मृत व्यक्तियों के बैंक खातों का भुगतान वारिसों को जल्द हो

नरेन्द्र कुमार जैन सीए
नरेन्द्र कुमार जैन सीए

राहुल जी, हम आपके सामने मृत व्यक्ति यों के बैंक खातों से सम्बन्धित जनता के हित का एक मुद्दा पेश करते हैं, शायद ही आपने इस मुद्दे के बारे मे सोचा हो, इसे अपने घोषणा-पत्र का हिस्सा अवश्य बनाएंं:
राष्ट्रीयकृत बैंक बड़ी ही प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं, इन्हें एक ट्रष्टी के रूप में सम्मान दिया जाता है। परन्तु यह देखने में आया है कि जहां बात किसी व्यक्ति के मृतक हो जाने की होती है तो उसके जमा खातों के भुगतान हेतु उसके वारिसोंं को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कई-कई बरस बीत जाने के बाद भी इनके खातों का भुगतान सही वारिस को समय पर नहीं किया जाता है। ऐसे खातों का जब फाइनल निपटारा किया जाता है तो इन्हें सेविग्स बैंक की दर से 4 प्रतिशत ब्याज देने की बात की जाती है जबकि बैंक स्वयं इस धन पर लोन या अन्य प्रकार का एडवान्स देकर 15 से 18 प्रतिशत तक ब्याज कमाता है।
हमारा निवेदन है कि बैंकों में जो भी धनराशि मृत व्यक्तियों की होती है उनका भुगतान बहुत जल्दी वारिस को किया जाना चाहिए। ऐसे खातों पर विशेष नजर रखी जानी चाहिए। ऐसे खातों के सम्बन्ध में यदि तय मापदण्ड से हटकर कोई बैंक कार्य करता है तो सम्बन्धित अधिकारी सहित रीजनल मैनेजर व बैंक के अभिवक्ता को भी जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए।
आज भारतीय जीवन वीमा निगम की जो ख्याति व प्रतिष्ठा है उसका कारण है कि निगम अपनी मेचोर्ड पालिसियों का भुगतान व क्लेम्स का सेटलमेंट समय पर व बिना किसी कठिनाई से करता है और वह इस बात को प्रचारित भी करता है कि उसके द्वारा इस प्रकार के भुगतान का प्रतिशत क्या रहा है। इस आधार पर ब्रान्च मैनेजर की परफोरमेंस भी गिनी जाती है।
जिस प्रकार की कठिनाइयां मृत व्यक्तियों के उत्तराधिकारियों को आई हैं उनके प्रमाण भी हमारे पास हैं। उनमें से कुछ के उदाहरण निम्र प्रकार हैं:
1. मृत व्यक्ति द्वारा वैधानिक रूप से वसीयत निष्पादित किए जाने के बाद भी बैंक द्वारा उत्तराधिकारी से वसीयत का कोर्ट के द्वारा प्रोवेट मांगा जाता है व उत्तराधिकार प्रमाण पत्र मांगा जाता है। जबकि इस बाबत रिजर्व बैंक के साफ निर्देश हैं कि जहां बसीयत की गई हो और उसे किसी भी कोर्ट में चेलेंज करने के बाद स्टे प्राप्त नहीं किया गया हो, वहां उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र या वसीयत का प्रोवेट नहीं मांगा जाना चाहिए। राजस्थान हाईकोर्ट काभी यह फसला है कि बसीयत के केस में प्रोवेट या उत्राधिकार प्रमाण-पत्र नहीं मांगा जान चाहिए।
2. मृत व्यक्ति के खाते का जब फाइनल सेटिलमेंट किया जाता है तो उसे एफ डी आर की दर से ब्याज नहीं दिया जाता है, उसे मजबूर किया जाता है वह सेविग्स बैंक की दर से ही ब्याज स्वीकार करे। यह सरासर गलत व गैर कानूनी है। बैंकों के स्वंय के प्रावधान तो ये हैं कि यदि बैंक की गलती से भुगतान होने में विलम्ब होता है तो बैंक अपनी कम्पेनसेसन पालिसी के तहत खाताधारक उत्तराधिकारी को तय नियमों से अधिक दर से भुगतान करे।
3. उत्तराधिकारी यदि उपभोक्ता मंच में केस लडऩे जाता है तो बैंक, रिजर्व बैंक व अपने प्रधान कार्यालय के नवीनतम सक्र्यूलर्स दिशा निर्देश न पेश करके पुराने सक्र्यूलर्स दिशा निर्देश पेश करने से भी परहेज नहीं करते और उत्तराधिकारी को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उसे मजबूर किया जाता है कि वह ऊपर के न्यायालयों में जाए, इस प्रकार पार्टी को हैरान-परेशान किया जाता है और उसे भुगतान से महरूम किया जाता है।
4. ऐसा भी देखने में आया है कि बिना किसी वैध कारण के बैंक किसी फर्म के खाते को उसके वारिश के नाम से पहले तो हंंस्तांतरित नहीं करती और काफी लिखापढ़ी के बाद यदि हंस्तांरित भी कर देती है तो दुबारा उसे मृतक खाता भी बना देती है। यह सब तब है जब हंस्तांतरण के बाद चैक बुक तक जारी कर देती है। बैंक यह सब मेन्युूपुलेशन अपने कम्प्यूटर में भी कर लेती है जबकि मुख्य सर्वर में यह मन्यूपुलेशन पकड़ा जाता है। तब भी बैंक अपनी गल्ती नहीं मानती और पार्टी को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ती। एक केस में 14 वर्ष गुजर जाने के बाद भी बैंक ने आज तक उस उत्तराधिकारी को मृत व्यक्ति के खाते की रकम नहीं दी है जो लाखों रुपयों में है। कोई कल्पना कर सकता है कि मृत व्यक्ति ने क्या सोचकर अपनी बसीयत की और बैंक पर भरोसा किया। उसकी आत्मा वहां से क्या सोच रही होगी। और रिजर्व बैंक की नजर में लाने के बाद भी कुछ नहीं होता है। आज भी बैंक सेविंग्स खाते की दर से ब्याज देकर मामले का सुलटाना चा हती है जबकि ऐसे केस में बैंक की खुद की गाइडलाइन है कि जहां बैंक की गल्ती से मामले में देरी हुई हो वहां कम्पेनसेटरी पॉलिसी के तहत निर्धारित मापदण्ड से अधिक की दर पर भुगतान किया जाय।
5. रिजर्व बैंक की गाइड लाइन के अनुसार प्रत्येक बैंक को अपने यहां मृत व्यक्ति के खाते का विवरण उसके भुगतान न होने के कारण के साथ नियमित अंतराल पर अपने उच्च् अधिकारी/रीजनल आफिस को भेजना होता है ताकि सम्पूर्ण बैंक/ प्रधान कार्यालय स्तर पर रिजर्व बैंक यह जान सके कि कितनी रकम ऐसी है जो मृतक खाते के रूप में बैंक के पास सेटिलमेंट की अवधि बीत जाने के बाद भी रह गई है। रिजर्व बैंक ऐसे हर खाते में भुगतान न होने का करण भी मांगता है जो हर ब्रान्च को देना पड़ता है। ऐसे उदाहरण हैं कि बैंक जानबूझकर ऐसे मृत खाते को ससपेंस खाते में डाल देती है ताकि रिजर्व बैंक से यह छुपाया जा सके कि उनके यहां कोई मृतक खाता बिना सेटिलमेंट के पड़ा है और बैंक बिना किसी वैध करण के वह रकम वसीयत के अनुसार उत्तराधिकारी को प्रदान नहीं कर रही है।
ऐसे अनेक तरीके हैं जिनके कारण मृत व्यक्तियों के खाते उत्तराधिकारियों के हक में निपटाए नहीं जाते हैं। बैंक रिस्तेदारों व जिन्हें वसीयत में कोई राशि नहीं मिली है उनके ऐसे पत्रों पर कार्यवाही करने को तैयार हो जाती है जो वैधानिक रूप से अमान्य हैं। बैंक वसीयत की धनराििश वहीं रोक सकती है जहां कोर्ट द्वारा स्टे दिया गया हो। मात्र कोर्ट में केस दर्ज होने पर बैंक ऐसे खातों का भुगतान नहीं रोक सकती।
राहुल जी हमार अनुरोध है कि मृतक की आत्मा को शान्ति प्राप्त हो ऐसा उपाय करें व मृतक खातों के सम्बन्ध में अपने घोषणा-पत्र में इसे स्थान दें, जैसा कि आप कुलियों, चायवालों, व अन्य गरीव व जुल्म के शिकार लागों के लिए कर रहे हैं।
-एन. के. जैन सी.ए., अजमेर

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