महाविनाश से महानिर्माण की ओर प्रस्थान

डाॅ. लोकेश मुनि
डाॅ. लोकेश मुनि

– आचार्य डाॅ. लोकेश मुनि- समय-समय पर रह-रहकर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवादी घटनाएँ ऐसा वीभत्स एवं तांडव नृत्य करती रही हैं, जिससे संपूर्ण मानवता प्रकंपित हो जाती है। इनदिनों काश्मीर के चुनावों में वहां की जनता की सक्रिय भागीदारी से बौखलाए आतंकवादी अपनी गतिविधियों में तेजी लाते हुए देश में हिंसा का माहौल निर्मित कर रहे हंै, कुछ दिनों पहले पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाके में और उससे पूर्व उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर में सांप्रदायिक विद्वेष, नफरत एवं घृणा का माहौल बनाया। अहिंसा की एक बड़ी प्रयोग भूमि भारत में आज साम्प्रदायिक-आतंकवाद की यह आग-खून, आगजनी एवं लाशों की ऐसी कहानी गढ़ रही है, जिससे घना अंधकार छा रहा है। चहूँ ओर भय, अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल बना हुआ है। भगवान महावीर हो या गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद हो या महात्मा गांधी- समय-समय पर ऐसे अनेक महापुरुषों ने अपने क्रांत चिंतन के द्वारा समाज का समुचित पथदर्शन किया।

आज देश में गहरे हुए घावों को सहलाने के लिए, निस्तेज हुई मानवता को पुनर्जीवित करने एवं इंसानियत की ब्यार को प्रवहमान करने के लिए अहिंसक समाज रचना की अपेक्षा है जो मनुष्य जीवन के बेमानी होते अर्थों में नए जीवन का संचार कर सकें। अहिंसा विश्व भारती इसी उद्देश्य को साकार करने के लिये कृतसंकल्प है।
अहिंसा विश्व भारती का मुख्य उद्देश्य है साम्प्रदायिक सौहार्द एवं सद्भावना। किसी भी राष्ट्र, समाज और परिवार की उन्नति और शांति के लिए पारस्परिक सद्भाव अपेक्षित होता है। सद्भाव के अभाव में अहिंसा जीवन व्यवहार में प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। पारस्परिक टकराव आपसी दूरियां ही नहीं बढ़ाता, अपितु वह कितनों-कितनों के लिए घातक बन जाता है। जाति, भाषा, वर्ण व क्षेत्र का दुराग्रह, साम्प्रदायिक उन्माद, तुच्छ स्वार्थवृत्ति और विकृत मानसिकता पारस्परिक असद्भाव के कारण बनते हैं।
अहिंसा विश्व भारती नैतिकता की स्थापना के लिये भी प्रयत्नशील है। बेईमानी सामाजिक स्वस्थता का बाधक तत्व है। जब तक परस्पर धोखाधड़ी का क्रम जारी रहेगा, व्यक्ति ऐसे माहौल में सुख और शांति की श्वास नहीं ले सकता। आज के युग में अनैतिकता एक प्रमुख समस्या के रूप में उभर रही है। चोरी न करना, बेमेल मिलावट न करना, अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि न पहुंचाना, रिश्वत न लेना, चुनाव और परीक्षा के संदर्भ में अवैध उपायों का सहारा न लेना आदि ऐसे संकल्प हो सकते हैं, जो अहिंसक, तनावमुक्त एवं स्वस्थ समाज के लिए आधारस्तंभ बन सकते हंै। आपके व्यावसायिक प्रतिष्ठान अथवा कार्यक्षेत्र में अन्य देवी-देवताओं के चित्र हों अथवा नहीं, किन्तु ईमानदारी की देवी अवश्य प्रतिष्ठित होनी चाहिए। भारत के प्रधानमंत्री का संकल्प की- ना मैं खाऊंगा और न खाने दूंगा- अवश्य ही भ्रष्टाचारमुक्त समाज के संकल्प को पूरा करेगा।
आज देश में ऐसे नेतृत्व की भी जरूरत है जो आपसी मतभेदों से देशहित को ऊपर मानते हैं, जिनकी निगाहें बिते हुए कल पर नहीं, बल्कि आने वाले कल पर हों। यह मौका तोड़ने का नहीं जोड़ने का है, टूटने का नहीं जुड़ने का है और इसका मतलब अपने अहं के अंधेरों से उभरने का है।
अहिंसा विश्व भारती एक सशक्त माध्यम है, जिससे पुनः अमन एवं शांति कायम हो सकती है। इतिहास साक्षी है कि समाज की धरती पर जितने घृणा के बीज बोए गए, उतने प्रेम के बीज नहीं बोए गए। इसके माध्यम से हम मनुष्य मनुष्य के बीच इतना सशक्त वातावरण बनाएँ कि उसमें भ्रष्टाचार, नशाखोरी, घृणा, नफरत एवं सांप्रदायिक विद्वेष को पनपने का मौका ही न मिले। मेरा मानना है कि अहिंसा को एक शक्तिशाली अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। यह अस्त्र संहारक नहीं होगा, मानवजाति के लिए बहुत कल्याणकारी होगा।
मेरा विश्वास है कि अहिंसा में इतनी शक्ति है कि सांप्रदायिक हिंसा में जकड़े हिंसक लोग भी अहिंसक आभा के पास पहुँच जाएँ तो उनका हृदय परिवर्तन निश्चित रूप से हो जाएगा, पर इस शक्ति का प्रयोग करने हेतु बलिदान की भावना एवं अभय की साधना जरूरी है। अहिंसा में सांप्रदायिकता नहीं, ईष्र्या नहीं, द्वेष नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक व्यापकता है, जो संकुचितता और संकीर्णता को दूर कर एक विशाल सार्वजनिन भावना को लिए हुए है।
विश्व के समस्त धर्मों, धर्माचार्यों, धर्मग्रन्थों, महापुरुषों और विचारकों ने अहिंसा को सबके लिए कल्याणकारी माना है। मानवीय-मूल्यों में अहिंसा सर्वोपरि है। अहिंसा की स्थापना के लिए जरूरी है कि अनेकता के ऊपर एकता की प्रतिष्ठा हो। तभी हम धर्म और राष्ट्र की सार्वभौमिकता को बचा सकेंगे। धर्म के बचने पर ही राष्ट्र बचेगा, राष्ट्र के बचने पर ही समाज बचेगा और समाज के बचने पर ही व्यक्ति बचेगा। अहिंसा सर्वोत्तम मानवीय मूल्य तो है ही, यह समस्त मानवीय मूल्यों का मूलाधार भी है। अहिंसा के होने से अन्यान्य मूल्य भी मूल्यवान बने रहते हैं। अहिंसा के नहीं होने से दूसरे सारे मूल्य भी मूल्यहीन होते चले जाते हैं। आज संसार में यही हो रहा है। अहिंसा की उपेक्षा से सारे-के-सारे मूल्य अपने अर्थ खोते चले जा रहे हैं। मानवाधिकारों की बातें भी स्थायी सुपरिणामदायी नहीं सिद्ध हो रही हैं। मानवता, मानवीयता और इनसे जुड़े मूल्यों की गरिमा में गिरावट समय की विकट और बड़ी त्रासदी है।
अहिंसा एक शाश्वत तत्व है। हिंसा विनाश है और अहिंसा विकास है। हिंसा मृत्यु है, अहिंसा जीवन है; हिंसा नरक है, अहिंसा स्वर्ग है। यदि हमें प्रगति एवं विकास के नये शिखर छूने हैं, जीवन की अनंत संभावनाओं को जिंदा रखना है, धरती पर स्वर्ग उतारना है तो अहिंसा धर्म को सर्वोपरि प्रतिष्ठा देनी ही होगी।
भगवान महावीर कितना सरल किन्तु सटीक कहा हैैं- सुख सबको प्रिय है, दुःख अप्रिय। सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। हम जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें। यही मानवता है और मानवता का आधार भी। मानवता बचाने में है, मारने में नहीं। किसी भी मानव, पशु-पक्षी या प्राणी को मारना, काटना या प्रताडि़त करना स्पष्टतः अमानवीय है, क्रूरतापूर्ण है। हिंसा-हत्या और खून-खच्चर का मानवीय मूल्यों से कभी कोई सरोकार नहीं हो सकता। मूल्यों का सम्बन्ध तो ‘जियो और जीने दो’ जैसे सरल श्रेष्ठ उद्घोष से है।
सह-अस्तित्व के लिए अहिंसा अनिवार्य है। दूसरों का अस्तित्व मिटाकर अपना अस्तित्व बचाए रखने की कोशिशें व्यर्थ और अन्ततः घातक होती हैं। आचार्य श्री उमास्वाति की प्रसिद्ध सूक्ति हैैं- ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ अर्थात् सभी एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। पारस्परिक उपकार-अनुग्रह से ही जीवन गतिमान रहता है। समाज और सामाजिकता का विकास भी अहिंसा की इसी अवधारणा पर हुआ। अहिंसा व्यक्ति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की विराट भावना का संचार करती है। मनुष्य जाति युद्ध, हिंसा और हत्या के भयंकर दुष्परिणाम भोग चुकी है, भोग रही है और किसी भी तरह के खतरे का भय हमेशा बना हुआ है। मनुष्य, मनुष्यता और दुनिया को बचाने के लिए अहिंसा से बढ़कर कोई उपाय- आश्रय नहीं हो सकता।
यह स्पष्ट है कि हिंसा मनुष्यता के भव्य प्रासाद को नींव  से हिला देती है। मनुष्य जब दूसरे को मारता है तो स्वयं को ही मारता है, स्वयं की श्रेष्ठताओं को समाप्त करता है। इस बात को भगवान महावीर ने ‘आचारांग-सूत्र’ में बहुत मार्मिक और सूक्ष्म ढंग से बताया हैै- ‘‘जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है।’’ यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है। एक हिंसा, हिंसा के अन्तहीन दुश्चक्र को गतिमान करती है। अहिंसा सबको अभय प्रदान करती है। वह सर्जनात्मक और समृद्धिदायिनी है। मानवता का जन्म अहिंसा के गर्भ से हुआ। सारे मानवीय-मूल्य अहिंसा की आबोहवा में पल्लवित, विकसित होते हैं एवं जिन्दा रहते हैं। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु (आॅक्सीजन) है। प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, पानी और प्राणीमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है। हम अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाते हैं तब प्रकृति अपना काम करती है। इसलिए महाविनाश या महानिर्माण के लिए जिम्मेदार हम हैं, दूसरा कोई नहीं। प्रकृति भी नहीं।
प्रेषक- आचार्य लोकेश आश्रम, 63/1 ओल्ड राजेन्द्र नगर, करोल बाग मेट्रो स्टेशन के समीप, नई दिल्ली-60 सम्पर्क सूत्रः 011-25732317, 9313833222
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