बीजेपी के लिये ‘हार’ नहीं ‘उपहार’ है दिल्ली के नतीजे

साकेत गर्ग
साकेत गर्ग

आखिर इस वैलेंटाइन डे यानी 14 फ़रवरी 2015 को अरविन्द केजरीवाल को वह कुर्सी फिर मिल
ही गई, जिस कुर्सी से उन्होंने पिछले साल गत वैलेंटाइन डे पर बड़ी बेरुखी से तलाक ले लिया था। 10 फरवरी को आये दिल्ली चुनावों के अप्रत्याशित व ऐतिहासिक नतीजों ने अरविन्द केजरीवाल को भारतीय राजनीति का नया हीरो साबित कर ही दिया। लेकिन जितनी चर्चा अरविन्द केजरीवाल व आम आदमी पार्टी की ऐतिहासिक जीत की नहीं हुई, उससे ज्यादा चर्चा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी कि हार की हुई।
यूँ तो, इन चुनावो में कांग्रेस को तो एक सीट तक भी नहीं मिली। बावजूद इसके, न केवल भारतवर्ष में बल्कि दुनिया भर की मिडिया में प्रधानमंत्री मोदी व उनकी भारतीय जनता पार्टी की बुरी हार की ही चर्चायें होती रही। और होनी लाज़मी भी है साहब।
ज्यादातर विरोधी पार्टियों, पत्रकारों इत्यादि ने इन चुनावों को बीजेपी की हार के रूप में ही देखा।
मगर, मैं इन चुनावी नतीजों को बीजेपी व प्रधानमंत्री मोदी की ‘हार’ नहीं मानता, बल्कि इन चुनावी नतीजों को मैं उनके लिये एक ‘उपहार’ मानता हूँ। उपहार? जी हाँ, जनता की तरफ से दिया गया उपहार। अंहकार से बचने की सीख
का उपहार, अजय होने के दंभ से बचने का उपहार, जनता को दिखाये गये सपनों को (अब तो) हकीकत की ओर ले जाने का उपहार, बेलगाम नेताओ पर लगाम लगाने का उपहार, लोकसभा चुनाव के 9 महीने बाद भी सिर्फ लहर या सुनामी के भ्रम में फंसे रहने से बचने का उपहार, नौ महीने बीतने पर भी आम जनता को कोई ठोस राहत न मिलने पर आँखें खोलने का उपहार, आत्मविश्लेषण करने का उपहार।
एक बात तो है, ‘हार’ हो या ‘उपहार’, कुछ भी ‘ऐसे ही’ तो नहीं मिलता। कोई न कोई सॉलिड कारण तो होता ही है, बॉस। यहाँ क्या कारण है ? एक नहीं शायद कईं कारण है। ज़रा गौर फरमाइये,
आपको जो कारण पसंद आये छाँट लीजिये और हमे भी ज़रूर बताइये। कारणों की लिस्ट आपके निरिक्षण के लिये हाज़िर है श्रीमान- सिर्फ एक राज्य का चुनाव होना, नेगेटिव व्यक्तिगत टिपणियाँ करना, चुनावी घोषणा पत्र की जगह विजन डॉक्यूमेंट लाना, नौ लाख का या पता नहीं कितने हज़ार या कितने लाख का खुद का नाम लिखा सूट, सामने वाले का मफ़लर और खांसी, बेलगाम नेताओं की अनर्गल बयानबाज़ी, चार बच्चे कभी पाँच बच्चे पैदा करने की सीख, केजरीवाल को नक्सलियों के साथ जंगल में जाने की सीख, उपद्रवी गोत्र, रामजादे….., खुद को खुशनसीब दूसरों को बदनसीब कहना, विज्ञापन में जीते-जी अन्ना की कार्टून फोटो पर हार टाँकना, अलवर में पुल का नाथूराम गोंडसे पर नामकरण, पार्टी व सरकार में शामिल लोगों द्वारा धर्म की राजनीति करने पर भी ‘साइलेंट’ रहना, अपनी लहर के बाद किसी और की आँधी-सुनामी आना, अहंकार या ओवर-कॉन्फिडेन्स जैसा कुछ, काले धन का आना-
जाना, खाते में 15 लाख रुपये जमा कराने के चुनावी वादे को चुनावी जुमला कहकर पिंड छुड़ाना, वोटर से किये गये चुनावी वायदे का मज़ाक बनाना, सरकार बनने के नौ महीने बाद भी राहत, आम जनता की मूल-भूत समस्याओं और महँगाई का हाल- चाल, हर किसी को चाहे वो कितना भी धुर- विरोधी रहा हो या रही हो, अपनी पार्टी में ले कर असली कार्यकर्ताओं के दिल को ठेस पहुँचाना, चंद दिनों पहले पार्टी में आई महिला को वरिष्ठ से
वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की सेवा व मेहनत को धत्ता बताकर सीधे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार
बनाना, इत्यादि-इत्यादि।
खैर, अब चाहे आप मेरी बात से सहमत हो या ना हों, किसी को ‘हार’ मिले या ‘उपहार’ मिले। मगर, दिल्ली के नतीज़ों ने यह साबित कर दिया की एक बार फिर से जीता इस देश का लोकतंत्र ही है। और यही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की खूबी भी है, “जहाँ जनता कभी-भी किसी-भी ‘रंक’ को ‘राजा’ बना देती है और गद्दी पर बैठे ‘राजा’ को तख़्त से उतार भी देती है।” जय हिन्द !
लेखकः साकेत गर्ग
http://gargsaket.blogspot.in/

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