आज से 54 साल पहले की दिल्ली : जैसा मैने देखा (भाग-1)

डा. जे. के. गर्ग
डा. जे. के. गर्ग
आज से 54 वर्ष पूर्व यानि 1961 में मैं एक 17-18 वर्ष का नवयुवक था और राजस्थान की ह्रदयस्थली ब्यावर में राजकीय सनातन धर्म महाविद्यालय में फर्स्ट इयर त्री वर्षीय पाठयकर्म (विज्ञान-गणित) की परीक्षा दे चुका था | काफी सालों से मेरे मन में देश की राजधानी दिल्ली को देखने की बहुत तमन्ना थी | दिल्ली जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था, यकायक भारतीय रेलवे ने S.C.R.A. (स्पेशल क्लास रेलवे अप्रेंडिस्क) की परीक्षा हेतु विज्ञापन निकाला | में भी इस परीक्षा हेतु सभी तरह से पात्र था, इसीलिए मैने अपने माता पिता से आज्ञा लेकर परीक्षा हेतु आवेदन कर दिया | मेरे पिता ब्यावर में कपडे के प्रतिशिष्ट व्यापारी थे, वे मेरे अल्हड़पन को अपने मद्देनजर रखते हुए मुझे अकेले दिल्ली जाने की आज्ञा देने में हिचकिचा रहें थे | उन्ही दिनों मेरा हम उम्र भतीजा विष्णु भी जयपुर से ब्यावर आया हुआ था उसने भी मेरे पिताजी और अपने पिताजी से दिल्ली जाने की मंशा जाहिर की | हमारी काफी अनुनय विनय से द्रवित होकर पिताजी ने हमें दिल्ली यात्रा की आज्ञा दे दी | हालाँकि पिताजी ने तो मुझे मेरी दिल्ली यात्रा के लिये हरी झंडी तो दिखा दी थी किन्तु परिवार के अधिकांश सदस्य अपने मन ही मन में मेरी यात्रा पर हंस रहें थे क्योंकि उनका मानना था कि मुझ जैसा लापरवाह, बेवकूफ एवं अल्हड़पन प्रवर्ती वाला मनमस्त लड़का अकेले दिल्ली जैसे महानगर की यात्रा कैसे कर सकेगा ? वे मन ही मन में पिताजी के इस निर्णय को उनका मेरे प्रति विशेष पुत्र प्रेम बतला कर सवाल भी उठा रहें थे | अपने आप को विद्रोही कहलवा कर विद्रोह से डरना तो वास्तव मे विद्रोह जैसे पवित्र नाम पर कलंक है ओर इसी कलंक को मिटाने के लिये यही सोच कर कि जब दिवाने बनने चले तो शमा से क्या डरना हमने गुरुवार एक जून 1961 का जनता एक्स्प्रेस से जनता क्लास का स्टूडेंट्स रिहायती टिकट आरक्षित करवा लिया था |
lal kilaगुरुवार की सुबह ही मैनें अपनी यात्रा की सारी तय्यारी पुरी कर ली थी | पिताजी ने मुझे उनके मित्र श्री श्रीराम दलाल के नाम का पत्र देकर कहा कि दिल्ली मे मैं उनकी मदद ले सकता हूँ उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि श्रीराम दलाल मेरे ठहरने और खाने पीने का समस्त इंतजाम कर देगें |
अपराह्न 4.30 बजे भारतीय साज़ सज्जा से सुसज्जित एवं स्वयं की विशेषता के साथ दुबले पतले घोड़े वाला तागां हमारे घर पर आ धमका | मरियल घोड़े वाले तागें को देख मैं मन ही मन में बडबडाने लगा कि काश हिन्दुस्तानी घोड़े भी विश्वविजयी गाथा के ऐरावत के समान होते तो कितना अच्छा होता ओर तब मै भी कितना ख़ुश होता ? खेर !! जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेने में ही भलाई है इसी कावत को ध्यान में रखते हुए हम इसी तांगें पर सवार हो लिये | हमारे विशेष तांगे ने फतेपुरिया बाज़ार मे अपना विकराल रूप दिखाया ओर प्रभु अनुकम्पा से हमारे अस्थि पंजर अलग होते होते बचे इसके बाद हम दोनों (में तथा विष्णु ) राम-राम का नाम जपते हुए रेलवे स्टेशन पर पहुच ही गए | माफ कीजियेगा मै इस 2.5 अरब की आबादी वाली दुनिया के अन्दर राजस्थान के 8वें नम्बर के शहर ब्यावर का अपनी ही किस्म का सबसे अलग तरीके से चलने वाला प्राणी हूँ इसीलिए मै “ अंत भला जो भला मे पूर्ण आस्था रखता हूँ
विद्यार्थी कन्सेशन के साथ हमने जनता एक्सप्रेस में जनता क्लास के डिब्बे में अपनी अपनी सीट पर जाकर अपना अधिकार जमा लिया | रास्ते में सहयात्रियों से बतियाते हुए रात्री के दस बज गये, हमारी आँखों में नींद ही नींद थी इसलिये हम अपनी बर्थ पर जाकर सो गये | मालूम ही नहीं पढ़ा कि कब सुबह हो गई और हमने अपने आप को पुरानी दिल्ली स्टेशन पर पाया |
india gateशुक्रवार 2 जून के प्रात: काल को मेरी बहुत पुरानी इच्छा पूरी हुई और मैनें देश की राजधानी की जमीन पर पांव रक्खा | कहते हैं कि राजधानी दिल्ली की आबादी लगभग 25-26 लाख है जबकि मेरे शहर ब्यावर की आबादी मात्र 40-50 हजार | दिल्ली स्टेशन के समीप ही एक धर्मशाला मे हम दोनों ने अपना सामान रक्खा एवं वही एक कमरा ले लिया | हालाँकि ना ही धर्मशाला ना ही कमरा हमारी पसंद का था, मजबूरी में ही हमने स्नान किया एवं जल्दी ही परीक्षा के बाद दूसरा स्थान खोजने का मानस बनाया | स्नान आदि से निर्वत होने के पश्चात अपनी परीक्षा का केंद्र खोजने के लिए मैं विष्णु के साथ निकल पड़ा | रास्ते की भीड़भाड़, विभिन्न तरह के वाहनों का कोलाहल देख मै विस्मित सा हो गया | रास्ते मे ही 2-3 छात्र हमें मिल गये थे जिन्हें भी मेरे समान ही मेरे ही परीक्षा केंद्र पर ही S.C. R.A. की परीक्षा देनी थी ओर वे कोलम्बस एवं युरी गगारिन बन कर परीक्षा केन्द्र को खोज रहें थे | मै भी उनके साथ अपने आप को कर्नल शेपर्ड मान कर उनके साथ हो लिया |
स्टेशन से तीन नंबर की बस में हम सभी जा बैठे और 25 पैसे की चुंगी चुका कर अपने आपको गोल मार्केट मे खड़ा पाया, जंहा से पूछते पांछ्ते हम सभी बिडला मंदिर पहुँच ही गये | बिडला मंदिर के पास वाला भवन हरकोर्ट बटलर हायरसेकंड्री स्कूल का था जो हमारा परीक्षा केंद्र था |सुबह के लगभग साढे सात बज चुके थे, पेटू महाराज अपनी क्षुधा से त्रस्त हो रहें थे, इनकी भूख को शांत करने के लिए हमने जे.बी कोल्ड ड्रिंक पिया, परीक्षा प्रारम्भ होने मे अभी काफी समय था, इसलिए हम बिडला मंदिर देखने चले गए, मंदिर का प्रागण विशाल और अपने आप मे भव्य एवं दर्शनीय था | मंदिर मे भारतीय एवं हिंदु संस्कृति का मार्मिक तथा सजीव चित्रण किया गया था | मैने ह्रदय से इस भव्य मन्दिर निर्माण के लिये बिडला परिवार को नमन किया | मुझे मन्दिर प्रागण में एकाएक तीस जनवरी की वह भयावह शाम याद आ गई जिस दिन नाथूराम गोंडसे ने अहिंसा की प्रतिमूर्ती एवं मानवता के पुजारी 44 करोड़ भारतियों के राष्ट्र पिता बापू को सदा सदा के लिए हम से अलग कर दिया था | नाथूराम गोडसे की बन्दूक से निकली गोलियों से भारत माता का सपूत और स्वतन्त्रता आन्दोलन का नायक सदा सदा के लिए अनंत मे विलीन हो गया |
परीक्षा देने के बाद लगभग संध्या होने को थी पांच बज चुके थे, विष्णु ने बताया की उसके लिए 10 से 5 बजे का समय बड़ा बोरिंग रहा | हम सभी को धर्म शाला जाने की जल्दी होने लगी थी | हम सभी यानि मैं, विष्णु और राजेंद्र शिवहरे बस से यात्रा कर धर्म शाला पहुच गये |
Qutub Meenar
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जून की कुख्यात गर्मी ऊपर से तापक्रम 44-45 डिग्री सेंटीग्रेड और बस के भीतर बस की क्षमता से अधिक भीड़ से हम सभी पसीने से नहा रहें थे | दिल्ली की इस कुख्यात गर्मी की भयंकरता के सम्मुख दस्युराज मानसिंह की भयानक प्रतिमा को भी मैने उस वक्त्त कहा “ कहाँ राजा भोज की सवारी ओर कहाँ गंगू तेली का छाती कुटा “ पसीने की बदबू से छुटकारा पाने के लिये हम सभी ने सबसे पहिले स्नान करने का तय किया | स्नान के बाद पेटू देवता अपनी भूख का राग भी अलापने लगे थे ओर इनकी भेरवी राग को सुन कर हम सभी को भी भोजन करने की चिंता सताने लगी | राजेंद्र शिवहरे ने आसपास के कुछ खाने पीने की जगह के बारे में बताया | हम सभी वहां चले गए ओर 50 पेसे खर्च पुडीयां और सब्जी-दाल खा कर हमने अपने पेटू देवता की अग्नि को शांत किया |
जैसे मैं पहले ही बता चुका हूँ कि विष्णु को धर्मशाला का वातावरण बिल्कुल भी पसंद नहीं था ओर वह अविलम्ब किसी अच्छे से होटल मे जाना चाहता था परन्तु मैं अपनी भारतीय मुद्रा की सीमित अवस्था की स्थिती को देखते हुए इस के लिये बिल्कुल भी तय्यार नहीं था | यकायक मुझे परम आदरणीय पिताजी के द्वारा उनके दलाल मित्र लाला श्री श्रीरामजी दलाल ( चाँदनी चौक के सुप्रसिद्ध व्यापरी हैं एवं उनकी पेडी पर भोजनालय और अतिथी ग्रह की सुविधा भी है) के नाम लिखे गये पत्र की याद आई जिसमे पिताजी ने उनसे हमारे दिल्ली प्रवास के दोरान हमारी मदद के लिये निवेदन किया था | अत: मैंने विष्णु को वहां पर चलने को कहा, विष्णु ने अपनी सहमति दे दी जिसके फलस्वरूपहम तीनो चाँदनीं चौक मे उनकी दुकान पर आ गए | मैने लाला श्रीरामजी को पिताजी का पत्र दे दिया, पत्र को पढ़ कर उनके चेहरे पर स्नेहमयी मुस्कराहट आ गई और लालाजी ने हमारा स्नेहपूर्ण स्वागत कर हमे एक कमरा दे दिया तथा अपने कर्मचारियों को हमारी सभी सुख सुविधाओं का ध्यान रखने का आदेश भी दिया | श्रीमान लालाजी का हमारे प्रति वात्सल्य एवं प्रेम वास्तव में पितृ तुल्य ही था | लालाजी का प्रेम को देख मुझे अपने पिताजी पर गर्व हुआ और मन ही मन मैनें उनके प्रति अपनी क्रतज्ञता प्रकट की |
रात्रि विश्राम करने से पूर्व हम सभी दिल्ली की ह्रदय स्थली चांदनी चौक का रात्री का नजारा देखने के लिये निकल पड़े | सड़क के दोनों तरफ पटरियो पर छोटे छोटे दुकानदार अपना अपना सामान ग्राहकों को आवाजें देकर बेच रहे थे, कहीं रेडीमेड कपड़े थे तो कहीं जूते-चप्पलों की दुकान तो कहीं बिसायती का सामान, वहीं एक तरफ बिजली का सामान बेचा जा रहा था | लोगों के अनुसार इन पटरियों पर सस्ते भाव में सामान मिलता है | सारा मार्केट स्त्री-पुरुषों-बच्चों से भरा हुआ था जिसे देख कर मेरे शहर ब्यावर के सुने बाज़ार मुझे याद आ गये | चारों तरफ खुश नुमा नज़ारा देखते ही बनता था खूब रोशनी हो रही थी | चाट खाकर कुछ देर बाद हम सभी लालाजी के गेस्ट हाउस लोट कर आ गये | हम सभी थके हुए थे इसलिये रात्रि में खूब अच्छी एवं गहरी नींद आई |
डा. जे. के. गर्ग

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