सूरज चला आता है भीतर
छत पर से उतरकर
बालकनी के रास्ते से
फिसलता हुआ सीढ़ियों
की रेलिंग से,नुक्का-छिपी से
करता है प्रवेश,कमरे में
वैसे ही जैसे तड़के दोपहरी
उतर आता है शरारती लड़का,
पड़ोस का,मुंडेर पर
लेने कोई अटकी पतंग
या फिर ऊंघती गेंद…
जिद्दी सूरज अपने तेज से
नाचता है पूरे कमरे में
चिढ़ाता है उसे की बिन
झरोखों और खिड़कियों
के भी,
ढूँढ़ो तो मिल जाती है राह।
पर अब वो नहीं चाहता कुछ
सीखना,समझना या पढ़ना
तंत्र ने सिखाया है उसे
पढ़ना जरुरी नहीं,
जरुरी तो है आरक्षित होना।
अब थका सूरज आ बैठता है
उसकी बंद पलकों पर
जो अब और अधिक जोर
से भींच देता है वो।
ठीक वैसे ही जैसे
भींचे रखता है गहराई से नन्हा शिशु अपनी मुठ्ठियाँ।
उसका मन अब अमावस की स्याह रात हो चला है
नहीं पसंद अब ओट उसे
रौशनी की
सूरज थका मायूस सा
शाम तले फिर लौट जाता है।
एक निराश युवा मन अँधेरे
को यूँही थामे रखता है
ज़हन में,
जब हो जाता है स्वाह आरक्षण की आग में।