1- सँगम
खोखला जिस्म, खोखली साँसें
रुक रुककर, चलने की चाह में जिँदा
कदम लड़खड़ाकर सँभलने लगे हैं-
हर आस रेत सी क्यों हाथ से फिसलती है ?
सीने से लिपटी, हर खुशी क्यों दम टोड़ती है?
ढळती उम्र है पर सूरज ढला नहीं है।
2 : सच की सरहद
जिँदगी की शान है सूरज अस्त होने तक
इन्सान की आन है जिँदगी ढलने तक
सच यह भी है, सच वह भी है
हर दौर से गुजर कर जिँदगी
सोच रही है
“जाना था सफर पर मुझे
क्यों मैं होश में बेहोश रही
क्यों न भरम की हद को पार कर
सच की सरहद छू सकी, हाँ छू सकी !
देवी नागरानी
