“बलिदान “

उर्मिला फुलवरिया
उर्मिला फुलवरिया
वर्तमान परिप्रेक्ष्य का इंसान धरा की महत्ता
को समझ पाने में असक्षम है पर जिस दिन वह इसके अस्तित्व को समझ पाने में सक्षम
होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और उस वक्त इंसान के लिए धरा मात्र “अवशेष ”
बनकर रह जाएँगी इसी वेदना के धागों से
बुना जाल रचना के रूप में आपके समक्ष है …..

अनगिनत जुल्म करते इंसा धरा के पावस आचँल पर
इन गमों को दफन करती हैं बलिदानों के विश्वासों पर ।
गमों का हलाहल पी जाती हैं प्रतिरूप बन हर का
सर्वस्व अर्पण आलोकित कर देता है रूप जग का ।

तोड़ा जिसने स्वयं के अरमानों को खुशियाँ पेश की सबको
बहुत मुदत पश्चात याद आयेगा बलिदान कल उसको ।
आज उसकी खुशी भ्रम,मिध्या,पाप, अविश्वास है
हकीकत सिर्फ यह उसकी खुशी एक अभिशाप है ।
पंचतत्व का रूप -स्वरूप समाहित कर स्वयं में
स्वयं को स्वयं से हर लिया सबको इस जग में ।
देने के संग लेने का भाव नहीं जिसमें
उसे बलिदान नहीं तो और क्या संज्ञा दे सब में।
इस पर लगा प्रश्नचिह्न हल कर देगा जहन
तब लगेगा अपनी आह पर दिल का हो रहा हवन ।
तब अमन नही तडप बस शेष रह जायेगी
तब पश्चाताप बैचेनी बन विशेष अवशेष रह जायेगी ।
उर्मिला फुलवारिया
पाली-मारवाड़ (राजस्थान)

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