कश्मीर-मोहब्बत की गलियों में बर्फ

Ras Bihari Gaur (Coordinator)कश्मीर में हिंसा पर कुछ भी कहते हुए एक अलग तरह का भय रहता है क्योकिं एक ओर अतिवादी सोच, दूसरी ओर मानवतावादियों का समूह, दोनों प्रश्न के मूल को छोड़ आवाज के स्वरों की तहकीकात में जुट जाते हैं।कोई मुहब्बतों की उन गलिओं में जमी बर्फ नहीं पिंघलाना चाहता।
सच है कि जो काश्मीर में हो रहा है,उसे किसी भी कोण से जायज या उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उसके सारे उपकरण हिंसा पर आधारित है। सत्ता,समाज या देश अपने-अपने हितों के हिसाब से भले ही इसका औचित्य सिद्ध करने का असफल प्रयास करते रहे, किन्तु ये सच है कि घाटी में मौत का अश्लील नृत्य हमारे समय का सबसे घिनोना उपक्रम है।
सत्ताएं चाहे जिस दल की रही हो ,जातीय या धार्मिक समीकरण जितने भी उलझे हो, धरती के स्वर्ग कश्मीर पर देवों ने अपना सौंदर्य लुटाया और दानवों ने इसे अपना क्रीड़ा स्थल बनाया। फर्क सिर्फ ये ही है देव अदृश्य है और दावन मानव के वेष में खुलेआम विचर रहे हैं। अलबत्ता तो कोई इतिहास के पन्नों में झाँकने की जहमत ही नहीं उठाता, उठाता भी है तो वहां से सिर्फ और सिर्फ नफरत उठाकर हवा में उछाल देता है। विशेषकर अतिवादी धार्मिक और राजनैतिक दैत्य।
दो वर्ष पूर्व एक पर्यटक के रूप में कुछ दिन मुझे भी कश्मीर घाटी में रहने का अवसर मिला। अप्रीतम सौंदर्य, नशीला मौसम, खुशबुओं के पहाड़,निर्मल झरने,ज्यादा गुलाबी ठंठ, बर्फीली मस्ती, चिनार की गुम्बदनुमा छतरियां, लोक की गूंज और इन सबके बीच आम कश्मीरी का दुरूह जीवन, भागते दौड़ते मीलों का सफर, घास की तरह पसरी गरीबी की जड़े, चेहरों पर नाउम्मीदी का स्थाई ठहराव। क्या प्रकृति अपनी कीमत अपने लोगो से इस तरह वसूलती है? एक अनुत्तरित प्रश्न..? पहाड़ के दुर्गम रास्तो पर जीवन जीने की जिद इस प्रश्न का एकमात्र संभावित उत्तर है। इस सबके बावजूद उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं, शिकवा नहीं, वे तो हमारे आतिथ्य में बिछ- बिछ जा रहे थे। क्यों ना बिछे ! आखिर ये उनकी आजीविका थी,रोटी थी और बचपन की एकमात्र महत्वाकांक्षा भी। उन्हें तो बस शिकायत थी तो उन बंदूकों से, जिन्होंने उनके अथिति और उनका नाम उनसे छीन लिया।उनके लिये इस बात का कोई अर्थ नहीं था कि बन्दुक आतंकी के हाथ में है या किसी भारतीय फौजी के। एक उन्हें आजादी दिलवाने का लालच देता है, तो दूसरा उनकी आजादी बचाने की चिंता कर रहा है, परन्तु दोनों ही आजादी के नाम पर उनकी निजी आजादी से खेल कर रहे हैं।
सदियों की गुलामी के बाद मिली आजादी और विभाजन की पीड़ा के लिये तात्कालिक सत्ताएं जिम्मेदार या ईमानदार जो भी रही हों, किंतु कलांतर में उलझे मसलो की आग ने राजनीती को रोटी सेंकने का मौका जरूर दिया। जो आज तक बदस्तूर जारी है। बल्कि अब तो उसका स्वाद इस कदर जीभ पर लग गया है कि शिकार के लिए सत्ताएं नया भूगोल टटोल रही हैं।
ऐसा भी नहीं कि इसके लिए सिर्फ सरकारें ही दोषी है।ज्यादा दोषी वह समाज है, जो अपने स्व की महत्ता पर दूसरे पक्ष को न केवल नकार रहा है अपितु घृणा की हद तक तिरिस्कृत भी कर रहा है। समाज जब हिदुस्तान या पाकिस्तान, जिस भी तरफ खड़ा होता है, सिर्फ उसी देश के सच को सच मानता है। वह दूसरा पक्ष जानना ही नहीं चाहता। जब आतंकी वारदात के सापेक्ष फौजी शासन की बात होती है, तब वह अपने- अपने पाले की ही वकालत करता है। अब तो धर्म के आधार पर वह मरने वाले के प्रति वैयक्तिक सहानुभूति तक आरक्षित रखता है, तदनुरूप सत्ताएं उसका लाभ उठाती रहती हैं।
क्या हम या हमारे( हिंदुस्तान पकिस्तान की सिविल सोसाइटी )समाज एक दूसरे की जगह खड़े होकर नहीं देख सकते? क्या आतंकी वारदातों को क्रांति मानने वाले लाशो में अपने चेहरे नहीं देख सकते? क्या फौजी शाशन के दौरान अमानवीय व्यहवार की कल्पना हमे नहीं करनी चाहिए? देश,प्रदेश और जाती से बड़ा धर्म है इंसानियत और वह तभी समझ जा सकता है जब हम सामने वाले की जगह खुद को रखकर सोचते हैं।
इस बात पर ग़ालिब का शेर शायद कुछ कह सके-
उधर वो बदगुमानी है,इधर यह नातवानी है
न पूछा जाए है उससे,न बोला जाए है मुझसे

रास बिहारी गौड़
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