विध्वंस से कब निर्माण ड़रा हैं
जीजीविषा से यह पौधा हरा हैं
जन्म के पश्चात आती जरा हैं
सृष्टि का राज यह गहरा हैं ।।
उक्त भावों से ओतप्रोत उर्मि की कलम से…..
मेरी रचना
” जीजीविषा ”
दिवसावसन का समय था
झंझा-झकोर गर्जन ने
धरा को चहुँ ओर से घेरा
प्रलय बाँध आया
विनाश का ज्यों सेहरा
धूली धूसर सा वसुन्धरा ने
तम का वसन पहना
समय था गतिमान
चल रही अनवरत सूई की घड़ियाँ
नीलिमा में तड़ित दुति
मद्धिम हुई शशि की द्युति
बिजली बनी निरद माला
सृष्टि तिमिराँचल में समा गई
संसृति नष्ट होने के कगार पर आ गई
तदन्तर
तरूओं की ओट से
घनीभूत पीड़ा से संभीत
एक खग संसर्ग बैठा था
बाल विहांगिनी कौतुक विनोद भूल ऐठी थी
जनक जननी दोनों
निर्निमेष देख रहे थे
प्रलय ताण्ड़व को
निरधर नीर व चंचला
कर रहे थे घोर आलाप
स्फुलिग उठ रही थी
प्रतिपल झुलसते हिय में
तभी उच्छवास पवन ने
तरू को तोड़
क्षिति पर गिरा दिया
खग संसर्ग की मुमुषा ने
काल कलवित होने से उन्हें बचा लिया
नेश भर यही आलम रहा प्रलय का
ढ़ह गया आलम्बन उनके आलय का
उषा चीर तन्दा से जाग सुषुप्त हुई
नवस आशा के संग उद्दीप्त हुई
चीर विषाद ने करवट ली अभिलाषा में
दुख तब्दील हो गया सुख की परिभाषा में
आखिरकार प्रलय ताण्ड़व थम गया
अब जग नई आशा में रम गया
खग संसर्ग ने पहना नई आशाओं का जामा
विश्वास का दामन थामा
चूम नवल कलियों का मृदु मुख
आज फिर हुए संलग्न कृत्य
पाने नीड़ का सुख
विनाश के भय से
सृजन कब घबराया हैं
आशा विश्वास व नये जोश से
विनाश पर सृजन का ध्वज लहराया हैं।।
– उर्मिला फुलवारिया
पाली – मारवाड़