सारे रीते हैं ।
नीर ख़याली पीते-पीते ,
हम सब जीते हैं ।
अनुमानों के तीर चलाकर ,
काम बनाते हैं ।
जहाँ जरूरत है करने की ,
तब हट जाते हैं ।
टांग-खिंचाई करते-करते ,
दिन ढल जाता है ।
चिड़िया चुग गई खेत अरे फिर,
क्यों पछताता है ?
दियासलाई आग लगाती ,
पानी आग बुझाए ।
दोनों के गुण-धर्म अलग है,
किसको बड़ा बताएं ?
आग लगाना अच्छा होता ,
या फिर आग बुझाना ।
प्रश्न खड़ा है आज सामने ,
निर्णय कर बतलाना ।
मेरी क़लम भले ही कुछ ना ,
मग़र नहीं बिकती है ।
मेरी क़लम किसी के आगे ,
कभी नहीं झुकती है ।
मेरी क़लम किसी नेता का ,
यशोगान नहीं करती ।
मेरी क़लम सिर्फ़ ईश्वर की ,
नाराजी से डरती ।
मेरी क़लम वही लिखती है ,
जिसमें हो सच्चाई ।
मेरी क़लम वहीं टिकती जहाँ,
भीतर हो गहराई ।
– नटवर विद्यार्थी