सृजन

उर्वशी
उर्वशी
तुमने,
शीशे के टुकड़ों
की भांति
बिखेरा मुझे
मेरे अफसोस पर
अट्टहास किया,
मैंने
किर्च किर्च होकर
बिखरें
हर टुकड़े में
अपने वजूद को देखा
हर कही मैं ही मैं थी।
तुमने मुझे
बीच राह की
अन्तहीन भटकन दी
मैंने,
तमाम हसरतों को छोड़
यात्रारत रहने का
संकल्प ले लिया
और सत्य भी तो यही है
मंजिल यात्रा का
पड़ाव नही
हिस्सा मात्र है ।
तुमने मेरी उम्मीदों के
केनवास पर
विषाद की लकीरें खींच दी
मैंने वहाँ उदित होते सूर्य का
आभासी चित्र उकेर दिया

तुम किस दंभ में भूल गए
कि
अपने सम्पूर्ण अर्थ में,
मैं एक स्त्री हूँ ।

उर्वशी

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