उलझन

त्रिवेन्द्र पाठक
त्रिवेन्द्र पाठक
उलझन बडी अजीब होती है
किसी की याद में जीना,
किसी की साथ में रहना,
किसी की बातों में खोना,
किसी की बात पर हँसना,
किसी की बात पर रोना,
उलझन इसमें भी कुछ नहीं……………
कोई वो है जिससे वादे किये थे
और बेवफा हो गया….
कोई वो है जिससे कोई वादा नहीं
फिर भी वो बावफा हो गया….
कोई वो है जिससे सबकुछ कह दिया
पर प्यार ना मिला…..
कोई वो है जिससे कुछ ना कहा
और प्यार मिला……
कोई वो है जिसे इजहार किया….
और उसने बुरा ना माना…..
कोई वो है जिससे इजहार किया
तो डर है कहीं बुरा ना मान जाये…
उलझन है कि कहें या नहीं
उलझन है कि कहीं छोड ना जाये
उलझन है कि कहीं नजरों से ना गिर जाये
उलझन है कि क्या पता वो कभी पास ना आये
अजीब सी उलझन है मेरे दोस्त……
कोई आये और आकर ‘‘पाठक‘‘ को समझाए
कि क्यूं उलझा है दोस्त….
ये तो जिन्दगी की उलझनें है।

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