जीवनमूल्यों की पुनर्स्थापना का महा-पर्व दीपावली

-संजय कपिलगोत्री-
हमारी संस्कृति का मूलस्वर है ”सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।’’ आलोक पर्व दीपावली में हम इस शुभकामना को साकार होते देख सकते हैं। कार्तिकी अमावस की काली रात, जब झिलमिलाते हैं माटी के दिए, घर-आँगन में, गाँव-गली, नगर-डगर में तो वह महानिशा दीपावली बन जाती है। हम अपनी सामूहिकता से उस अमावस्या की काली रात को ज्योतिर्मय कर देते है। धनिक की हवेली ही नहीं, गरीब की झोपड़ी भी नन्हें दीपों के प्रकाश से सुवर्णमयी हो जाती है।
दीपावली स्वत:स्फूर्त अनुष्ठान है। यह हमारी सामूहिकता का उत्सव है। समाज के प्रसुप्त उत्साह और ऊर्जा का प्रस्फुटन है। प्रकाश ही तो जीवन का केंद्र है। दीपावली में हम सब ज्योति की उपासना करते हैं।
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मामृतं गमय…
यह प्रार्थना करते हुए दीपज्योति का आह्वान करते है। हम पुनर्स्मरण करते हैं कि हमारी यात्रा अंधकार से प्रकाश की यात्रा है, असत्य से सत्य की यात्रा है। हम जीवन के केंद्र की ओर लौटते हैं।
हम निजता की सीमाओं को तोड़ते हैं। हम अपने ही घर-आँगन को, अपने ही जीवन को आलोकित नहीं करते, वरन जीवन के हर अँधेरे कोने को, हर उपेक्षित कोने को प्रकाशित कर देना चाहते हैं। हमारी दृष्टि में समाहित होता है समूचा परिवेश, समूचा वातायन, समाज और देश, समूची धरती और अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड।
भारत को परिभाषित करते हुए ऋषि-मुनियों ने कहा है- भारत का अर्थ है भा-रत। ”भा’’ अर्थात प्रकाश, ”रत’’ अर्थात लिप्त, लगा हुआ। आशय यह कि वह जो प्रकाश की ओर गतिशील है, जिसकी यात्रा प्रकाश की ओर है वह भारत है और उसका अनुसरण करने वाले भारतीय हैं। दीपावली का आयोजन क्या भारतीयता की इसी दार्शनिक अवधारणा की पुष्टि नहीं करता?
पौराणिक आख्यान यह भी है कि लंका काण्ड के पश्चात जब प्रभु श्रीराम अयोध्या लौटे तो अयोध्या के नगरजनों ने अपने घरों के सामने दीप जलाकर श्री राम का स्वागत किया था। इस आख्यान की ऐतिहासिकता या प्रमाणिकता में न उलझ कर, इसके निहितार्थ पर विचार करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
”लंका’’ अर्थात नकारात्मक शक्तियों का केंद्र। समाज विरोधी, आतंक, अत्याचार और शोषण का केंद्र। लंका – जहाँ बस अँधेरा है, अराजकता है, अहंकार है, तानाशाही है और ”रावण’’ इस सत्ता का प्रतिनिधि। जब ऐसी अंधकार की पोषक सत्ता का उन्मूलन होता है, और वह भी जन-जन के सहयोग से, जनक्रांति से तो जीवन प्रकाश से आलोकित हो जाता है।
राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। यह विलक्षण उपमा है। राम जब अयोध्या लौटते है, ”राम’’ अर्थात मर्यादा। जीवन में जब मर्यादा की वापसी होती है, मर्यादा की पुनर्स्थापना होती है, जब अनुशासन लौटता है, जीवन जब निर्भय होता है, जीवन में सकारात्मकता स्थापित होती है तो जीवन और जगत, व्यक्ति और समाज सहित प्रकृति भी ज्योतिर्मय हो जाती है। धरती का कण-कण ज्योतिर्मय हो जाता है।
इसीलिये दीपावली अंधेरे के साम्राज्य से मुक्ति का पर्व है। दीपावली व्यक्ति से समष्टि की यात्रा का पर्व है। दीपावली आतंक और अराजकता के विसर्जन से उत्साहित समाज के जीवनमूल्यों की पुनर्स्थापना का महा-पर्व है।

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