सांसारिक सुख-समृद्धि के लिए करिये गोवर्धन पूजा

-संजय बिन्नाणी-

जैसे-जैसे दीपावली के दिन नजदीक आ रहे हैं, मेरे अन्तर में लोक-कवि हरीश भादानी के स्वर गूँज रहे हैं-
”काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन
जै-जै गोरधन…
जै-जै गोरधन…’’
वास्तव में, ”अपने दीपक स्वयं बनो ’’- इस संदेश के साथ-साथ सुनहरे प्रकाश से जगमगाते दीयों की रातें लेकर आती हैं ढेर सारी खुशियाँ और उत्साह। पञ्चदिवसीय प्रकाश पर्व के अन्तर्गत, चौथे दिन सवेरे यानि दीपावली के दूसरे दिन ही, कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को घर-घर में होती है गोवर्धन पूजा, जिसे देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इसी दिन, कई क्षेत्रों में बलि पूजा और मार्गपाली उत्सव मनाए जाते हैं। गोवर्धन पूजा के साथ-साथ, अपरान्ह काल में होता है अन्नकूट, जिसका मतलब है अन्न का ढेर, जिसे छप्पन भोग, छत्तीसों व्यञ्जन के रूप में भगवान के सम्मुख समर्पित किया जाता है और प्रसाद के रूप में सभी को बाँट दिया जाता है। गोवर्धन पूजा के साथ ही अन्नकूट का यह आयोजन बड़ा ही महत्वपूर्ण है।
भारतीय लोक जीवन में यह त्योहार इसलिए अहम है, क्योंकि इस दिन कृषि उपज बढ़ाने के महत्वपूर्ण संसाधन गोबर, जिससे जैविक खाद बनती है, को भगवान के रूप में पूजा जाता है। साथ ही, गोवर्धन नाम के अनुरूप ही गोवंश की वृद्धि के लिए गोधन की भी पूजा की जाती है। गोवंश धन है। गाय हमें मीठा दूध तो देती ही है, साथ ही खेतों में अनाज उगाने में सहायक बछड़े भी देती है। और देती है बछियाएँ, जो गोधन के रूप में विकसित होती हैं, बड़ी होती हैं। हम गाय को माता मानते हैं। वैसे तो गाय के शरीर में समस्त देवी-देवताओं का निवास माना जाता है, लेकिन गोबर में देवी लक्ष्मी का और मूत्र में गंगा का निवास विशेष रूप से माना गया है। इसीलिए उन्हें ‘गोमय’ व ‘गोतीर्थ’ भी कहा जाता है। जैसे देवी लक्ष्मी हम सबको सुख समृद्धि प्रदान करती है, उसी तरह गौ माता भी अपने दूध से हमें स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती है, कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए गोबर का त्याग करती है। गौ के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करने के लिए गोवर्धन पूजा की जाती है। इस तरह गोवंश की सुरक्षा करने का प्रण लिया जाता है।

गोवर्धन पूजा का ये पर्व हमारी धार्मिक आस्था और लोक कल्याण की कामना से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि इसमें अपने स्वयं की भी सांसारिक सुख-समृद्धि व सुविधाओं के भोग की कामना जुड़ी होती है। गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाया जाता है। जल, मौली, रोली, चावल, दही और तेल का दीपक जलाकर, नैवेद्य चढ़ाकर इनकी पूजा – आराधना की जाती है और इसके बाद की जाती है गोवर्धन की परिक्रमा। इस दिन गाय, बैल, पशुओं को स्नान करा के उनकी पूजा की जाती है और अपने हाथों से ही उन्हें मिठाइयाँ खिलाई जाती हैं, फिर इनकी आरती भी उतारी जाती है।

गोवर्धन पूजा का प्रवर्तन भगवान श्रीकृष्ण ने किया। ब्रजवासी तो इस त्योहार को बडी ही धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस त्योहार का धार्मिक महत्व तो है ही साथ ही ये त्योहार हमारी प्रकृति से भी जुड़ा हुआ है। गोवर्धन पूजा हमें संदेश देती है कि हमें अपनी प्रकृति को कैसे संभाल कर रखना है, प्रकृति से प्रेम करना है जिससे कि हम प्रकृति के नजदीक रहें, क्योंकि इससे ही होता है हमारा भरण-पोषण और जुटते हैं भविष्य के लिए संसाधन।
इस संदर्भ में यह कथा तो आप लोगों को याद ही होगी कि देवराज इन्द्र को इस बात का अहंकार हो गया था कि वह वर्षा करवाते हैं। कृषक वर्ग और थलचर प्राणी उन्हीं की दया पर आश्रित रहते हैं। तब कृष्ण ने इन्द्र को एहसास करवाया कि वो ऐसा करके कोई कृपा नहीं करते। ये तो उनका कर्तव्य है जो भगवान ने उन्हें सौंपा है। इन्द्र का अहंकार तोड़ने के लिए ही कृष्ण ने परम्परागत रूप से चली आ रही इन्द्र की पूजा बंद करवा के, उसके स्थान पर गोवर्धन की पूजा प्रारम्भ करवाई।
कृष्ण को प्रकृति से बेहद लगाव था। इन्द्र का अहंकार तोड़ने के पीछे यही उद्देश्य था कि ब्रजवासी प्रकृति से प्रेम करें और अपने पर्यावरण को बचाएँ, उसकी रक्षा करें। लोकमान्यता है कि जिस भी तरह से आप गोवर्धन पूजा करें, श्रीकृष्ण खुश हो जाते हैं। वे स्वयं आ कर आपकी आराधना, पूजा को स्वीकार करते हैं। कहा जाता है कि जो गोवर्धन पूजा के दिन खुश रहता है, वो सदा सुखी रहता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि दूसरों के श्रम से प्राप्त फलों का भोग करता है इन्द्र। कृष्ण ने इस परम्परा को श्रमजीवियों के ही उपभोग की दिशा दिखाई। इस दृष्टि से, गोवर्धन का यह पर्व – भोगवर्धन का भी पर्व बन गया।

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