मेरा घर मेरा ख्वाब

डा. निशा माथुर
मेरे सपनों का घर-आंगन, दुआ में तुमको मांगा करती हूं,
अपने तकिये के नीचे रोजाना इक ख्वाब सुलाया करती हूं।

छोटी-छोटी खुशियो से चाहत की दीवार सजायी मैनें,
अरमानों के लहू से रंग कर फिर बन्दनवार बनायी मैने।
कुछ प्यार भरे गुलदस्ते में यूं मौहब्बत के फूल खिलाए,
मेरे जज्बातों को लफजों में अपने परिभाषित कर जाए।
अब उस चांद को छूने की, मैं सीढी भी बनाया करती हूं,
अपने तकिये के नीचे रोजाना इक ख्वाब सुलाया करती हूं।

मधुर मलय सी आरती को संध्या गीतो में गुनगुनाती,
घर की कुलदेवी को रोजाना मन्नत करती धोक नवाती।
तुलसी के क्यारे में आशाओं के यूं दीप जलाए मन से,
निष्चल, कान्त और पवित्रता का सम्प्रेषण तनमन से।
अब धूं धूं करती राई मिर्ची से यूं नजर उतारा करती हूं
अपने तकिये के नीचे रोजाना इक ख्वाब सुलाया करती हूं।

गहन निराशा मे, डूबे, उतराये, पर कभी हाथ ना छोङा,
उलझे धागों को सुलझाया पर खुद रिश्तो को ना तोङा।
मनवार बनायी ओढनी धानी, उसपे त्याग का गोटा टांका,
मान मनौवल अपने रूठों संग, चुन चुन कर हटाया कांटा।
इस आलय में कितनें ही अब मैं किरदार निभाया करती हूं,
अपने तकिये के नीचे रोजाना इक ख्वाब सुलाया करती हूं।

कतरे कतरे हिज्जे हिज्जे से जब कभी ये अन्तर्मन शिथलाया,
शरद सी अलसायी सुबह, शाम की शोखियों से उसे सजाया।
पत्तियों पे जमीं ओस पर मैनें संभावनाओं के फूल खिलाये,
ख्वाब फलक पे बौराये और फिर गीली लकङी से स्वप्न पकाये।
अब आंखों के काजल से कोने-कोने में टीका लगाया करती हूं
अपने तकिये के नीचे रोजाना इक ख्वाब सुलाया करती हूं।

—-डा. निशा माथुर

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