जीवन की राह: शांति की चाह

lalit-garg
आज हर व्यक्ति चाहता है – हर दिन मेरे लिये शुभ, शांतिपूर्ण एवं मंगलकारी हो। संसार में सात अरब मनुष्यों में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं होगा जो शांति न चाहता हो। मनुष्य ही क्यों पशु-पक्षी, कीट-पंतगें आदि छोटे-से-छोटा प्राणी भी शांति की चाह में बेचैन रहता है। यह ढ़ाई अक्षर का ऐसा शब्द है जिसे संसार की सभी आत्माएं चाहती हैं। यजुर्वेद में प्रार्थना के स्वर है कि स्वर्ग, अंतरिक्ष और पृथ्वी शांति रूप हो। जल, औषधि वनस्पति, विश्व-देव, परब्रह्म और सब संसार शांति का रूप हो। जो स्वयं साक्षात् स्वरूपतः शांति है वह भी मेरे लिए शांति करने वाली हो।’’ यह प्रार्थना तभी सार्थक होगी जब हम संयम, संतोष व्रत को अंगीकार करेंगे, क्योंकि सच्ची शांति भोग में नहीं त्याग में है। मनुष्य सच्चे हृदय से जैसे-जैसे त्याग की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे शांति उसके निकट आती जाती है। शांति का अमोघ साधन है-संतोष। तृष्णा की बंजर धरा पर शांति के सुमन नहीं खिल सकते हैं। मानव शांति की चाह तो करता है पर सही राह पकड़ना नहीं चाहता है। सही एवं शांति की राह को पकड़े बिना न मंजिल मिल सकती है और न शांति की प्राप्ति हो सकती। महात्मा गांधी ने शांति की चाह इन शब्दों में की है कि मैं उस तरह की शांति नहीं चाहता जो हमें कब्रों में मिलती है। मैं तो उस तरह की शांति चाहता हूं जिसका निवास मनुष्य के हृदय में है।
मनुष्य के पास धन है, वैभव है, परिवार है, मकान है, व्यवसाय है, कम्प्यूटर है, कार है। जीवन की सुख-सुविधाओं के साधनों में भारी वृद्धि होने के बावजूद आज राष्ट्र अशांत है, घर अशांत है, यहां तक कि मानव स्वयं अशांत है। चारों ओर अशांति, घुटन, संत्रास, तनाव, कुंठा एवं हिंसा का साम्राज्य है। ऐसा क्यों है? धन और वैभव मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता-रोटी, कपड़ा और मकान सुलभ कर सकता है। आज समस्या रोटी, कपड़ा, मकान की नहीं, शांति की है। शांति-शांति का पाठ करने से शांति नहीं आएगी। शांति आकाश मार्ग से धरा पर नहीं उतरेगी। शांति बाजार, फैक्ट्री, मील, कारखानों में बिकने की वस्तु नहीं है। शांति का उत्पादक मनुष्य स्वयं है इसलिए वह नैतिकता, पवित्रता और जीवन मूल्यों को विकसित करे।
पाश्चात्य विद्वान टेनिसन ने लिखा है कि शांति के अतिरिक्त दूसरा कोई आनंद नहीं है। सचमुच यदि मन व्यथित, उद्वेलित, संत्रस्त, अशांत है तो मखमल एवं फूलों की सुखशय्या पर शयन करने पर भी नुकीले तीखे कांटे चूभते रहेंगे। जब तक मन स्वस्थ, शांत और समाधिस्थ नहीं होगा तब तक सब तरह से वातानुकूलित कक्ष में भी अशांति का अनुभव होता रहेगा। शांति का संबंध चित्त और मन से है। शांति बाहर की सुख-सुविधा में नहीं, व्यक्ति के भीतर मन में है। मानव को अपने भीतर छिपी अखूट संपदा से परिचित होना होगा। आध्यात्मिक गुरु चिदानंद के अनुसार शांति का सीधा संबंध हमारे हृदय से है सहृदय होकर ही शांति की खोज संभव है।
शांतिपूर्ण जीवन के रहस्य को प्रकट करते हुए महान दार्शनिक संत आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं-‘‘यदि हम दूसरे के साथ शांतिपूर्ण रहना चाहते हैं तो हमारी सबसे पहली आवश्यकता होगी-अध्यात्म की चेतना का विकास। ‘हम अकेले हैं’, ‘अकेले आए हैं’-हमारे भीतर यह संस्कार, यह भावना जितनी परिपक्व होगी, हम उतना ही परिवार या समूह के साथ शांतिपूर्ण जीवन जी सकेंगे। समयासार का यह सूत्र शांतिपूर्ण सहवास का भी महत्त्वपूर्ण सूत्र है। अध्यात्म की उपेक्षा कर, धर्म की उपेक्षा कर कोई भी व्यक्ति शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता।
शांति के लिए सबसे बड़ी जरूरत है-मानवीय मूल्यों का विकास। सत्य, अहिंसा, पवित्रता और नैतिकता जैसे शाश्वत मूल्यों को अपनाकर ही हम वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकते हैं। हर मनुष्य प्रेम, करुणा, सौहार्द, सहिष्णुता, समता, सहृदयता, सरलता, सजगता, सहानुभूति, शांति, मैत्री जैसे मानवीय गुणों को धारण करे। अपना समय, श्रम और शक्ति इन गुणों के अर्जन में लगाये। ऐसे प्रयत्न वांछित है जो व्यक्ति को शांत, उत्तरदायी व समाजोन्मुखी बना सके। वर्तमान जीवन पद्धति में पारस्परिक दूरी, कथनी और करनी में जो अन्तर पैदा हो गया है उसपर नियंत्रण स्थापित किया जाए। जब तक मनुज जीवन की हंसती-खिलती ऊर्वर वसुन्धरा पर शांति के बीज, स्नेह का सिंचन, अनुशासन की धूप, नैतिकता की पदचाप, मैत्री की हवा, निस्वार्थता का कुशल संरक्षण/संपोषण नहीं देगा तब तक आत्मिक सुख-शांति की खेती नहीं लहराएगी।
शांति का शुभारंभ वहीं से होता है जहां से महत्वाकांक्षा का अंत होता है। चाणक्य नीति के अनुसार शांति जैसा तप नहीं है, संतोष से बढ़कर सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर रोग नहीं है और दया के बढ़कर धर्म नहीं है।’’ इसलिए शांति की स्थापना के लिए संयम की साधना जरूरी है।
शांति सभी धर्माें का हार्द है। इसके लिए हिंदू गीता पढ़ता है, मुसलमान कुरान। बौद्ध धम्मपद पढ़ता है, जैन आगम-शास्त्र। सिक्ख गुरुग्रंथ साहिब पढ़ता है, क्रिश्चियन बाइबिल। नाम, रूप, शब्द, सिद्धांत, शास्त्र, संस्कृति, संस्कार की विभिन्नताओं के बावजूद साध्य सबका एक है-शांति की खोज। हर इंसान इस खोज को सार्थक आयाम देते हुए सच्चा इंसान बने, यही जीवन की सार्थकता को सिद्ध कर सकता है। लेकिन जीवन का बड़ा अजीब वाकया है, जहां शिकायत औरों से, परिवार से, पड़ौस से, बेटे और बहुओं से हो सकती है। पर सच यह भी है कि यह कटु सोच हमारी ऊर्जा का क्षरण करती है। ऐसी सोच संभावनाओं के द्वार बंद कर देती है, प्रगति पर ब्रेक लगाती है। यह नेगेटिव थिकिंग जहां जिधर से गुजरती है, हर डाली पत्ते, फूल और फल की विनाश लीला रचती है। इसीलिये भगवान महावीर ने कहा है- अंतर्मुखी बनो यदि शांति से जीना चाहते हो।
शांति केवल शब्द भर नहीं है, यह जीवन का अहम् हिस्सा है। शांति की इच्छा जहां भी, जब भी, जिसके द्वारा भी होगी पवित्र उद्देश्य और आचरण भी साथ होगा। शांति की साधना वह मुकाम है जहां मन, इन्द्रियां और कषाय तपकर एकाग्र और संयमित हो जाते हैं। जिंदगी से जुड़ी समस्याओं और सवालों का समाधान सामने खड़ा दिखता है तब व्यक्ति बदलता है बाहर से भी और भीतर से भी, क्योंकि बदलना ही शांति की इच्छा का पहला सोपान है। वर्षों तक मंदिर की सीढ़ियां चढ़ी, घंटों-घंटों हाथ जोड़े, आंखे बंद किए खड़े रहे, प्रवचन सुनें, प्रार्थनाएं कीं, ध्यान और साधना के उपक्रम किए, शास्त्र पढ़े, फिर भी अगर मन शांत न हुआ, चिंतन शांत न हुआ तो समझना चाहिए कि सारा पुरुषार्थ मात्र ढ़ोंग था, सबके बीच स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने का बहाना था। हमारा शांतिपूर्ण जीवन का संकल्प कोरा बहाना नहीं, बल्कि दर्पण बने ताकि हम अपनी असलियत को पहचान सकंे, क्योंकि जो स्वयं को जान लेता है, उसे जीवन के किसी भी मोड़ पर जागतिक प्रवंचनाएं ठग नहीं सकती।
शांति हमारी संस्कृति है। संपूर्ण मानवीय संबंधों की व्याख्या है। यह जब भी खंडित होती है, आपसी संबंधों में दरारे पड़ती हैं, वैचारिक संघर्ष पैदा होते हैं। निजी स्वार्थों को प्रमुखतः मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को सही और दूसरे को गलत ठहराता है। काॅलटन ने कहा है शांति आत्मा का सान्ध्यकालीन तारा है, जबकि सद्गुण इसका सूर्य है। ये दोनों कभी एक-दूसरे से पृथक नहीं होते हैं। इससे ही आत्मिक सुखानूभूति एवं सच्ची शांति फलित होती है। विकास की समस्त संभावनाओं का राजमार्ग है शांति। शांति ही जीवन का परम लक्ष्य है और इसमें सुख और आनंद का वास है। जरूरी है हम स्वयं के द्वारा स्वयं को देखें, जीवनमूल्यों को जीएं और उनसे जुड़कर शांति के ऐसे परकोटे तैयार करें जो जीवन के साथ-साथ हमारे आत्मिक गुणों को भी जीवंतता प्रदान करें। हम अपनी अपार आंतरिक सम्पदा से ऊर्जावान बने रह सकते हैं। लेकिन इसके लिये हमारी तैयारी भी चाहिए और संकल्प भी। हमारा संकल्प हो सकता है कि हम स्वयं शांतिपूर्ण जीवन जीयेंगे और सभी के लिये शांतिपूर्ण जीवन की कामना करेंगे। ऐसा संकल्प और ऐसा जीवन सचमुच जीवन को सार्थक बना सकते हैं। संकल्प में जो पाॅजेटिव आकर्षण शक्ति होती है वह न केवल बाह्य वातावरण को सरसब्ज बनाती है, अपितु प्रयोक्ता की संपूर्ण बाॅयकेमेस्ट्री को भी आनंदमय बनाती है। निःसंदेह जिंदगी को उम्दा परिवेश देने के लिए सोच का शांतिपूर्ण होना जरूरी है। जिसके जरिए सुखी बनने के ख्वाब को सच में गढ़ा जा सके।

(ललित गर्ग)
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