अजमेर राजस्थान से वास्ता रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी ने 1974 से गज़लों की दुनिया में आगाज़ किया और देशभर में शोहरत के बड़े-बड़े खम्बे गाढ़ दिये। उन्होंने दर्द-वे-अंदाज, सलीब पर टंगा सूरज उपन्यास, वक्त के खिलाफ, कभी नही सूखता सागर, अंदाजे बयां और गज़ल आसमां मेरा भी, अंजाम खुदा जाने जैसे दर्जन भर से भी ज्यादा किताबें आवाम को दीं और मकबूलियत हासिल की।
मीरा के सूबे से वास्ता
मीराबाई के सूबे में रहने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी गज़लों के अलावा उपन्यासों में भी खोये रहे। उन्होंने वेदमंत्रों का काव्यानुवाद भी कई किये। पुलिस और मानव व्यवहार जैसे संवेदनशील विषय पर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर आम जनता में व शासन प्रशासन में पुलिस के कारनामों पर भी आयना दिखाने का साहस दिखाया। उनका लेखन सूफियाना रहा है। वो मंचों पर गज़लों के जादूगर के तौर पर अजमेर, जयपुर से लेकर मुम्बई तक शोहरत पा चुके हैं। वो मशहूर शायर हैं देश के।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी से 30 साल से मेरी जान पहचान रही है। मानवता सद्व्यवहार उनमें कूट कूटकर भरा है। गज़लों की दुनिया के इस बादशाह को अमर गज़ल गायक जगजीत सिंह के लम्बे सानिध्य में रहने व फिल्मी गीतकार रविन्द्र जैन का भी सालों स्नेह मिलता रहा है। उन्होंने कोई 7 फिल्मों में गजलें व गाने भी लिखे थे। अनवर फिल्म में उनका गाना- “मौला मेरे मौला मेरे” काफी मकबूल रहा था।
सूफियाना अंदाज के शायर
सूफियाना अंदाज के शायर कवि व उपन्यासकार सुरेन्द्र को भारत के राष्ट्रपति रहे शंकरदयाल शर्मा से लेकर प्रतिभा पाटिल तक तमाम एज़ाज दे चुकी हैं व राजस्थान सरकार भी दर्जनों ईनामों से नवाज चुकी है। राजस्थान साहित्य अकादमी उन्हें विशिष्ट साहित्यकार सम्मान 10 साल पहले दे चुकी है। सुरेश 20 सालों तक पत्रकारिता से भी जुड़े रहकर सामाजिक न्याय का पक्ष लगातार मजबूत करते रहे थे। उन्हें पुलिस व प्रशासन ने कई बार परेशान करने का भी काफी प्रयास किया। सुरेन्द्र ने 10 सालों तक मुम्बई में रहकर भी अच्छी गज़लें फिल्मों में जोड़ने का सफल प्रयास किया। गज़ल दुआ हो जाती है, कुछ इसलिये भी हर कोई बेगाना सूफी, मेरे अंदर कई समंदर, अंधी गली है बंद मकान आदि नाम से गज़लों के दीवान लिखकर अजमेर व राजस्थान में काफी नये-नये अंदाज में गज़ल व गीतों को आम जनता में लोकप्रिय बनाने का अभियान चला रखा है। गांव कस्बों व शहरों पर उनका चन्द शेर देखें-
शातिर शहर के आगे है बेजुबान कस्बा
दावा है फिर भी देगा एक दिन बयान कस्बा
यूँ तो अपना भी चमन बेखौफ था पर क्या करें
घुस गये कुछ नाग घर में रातरानी देखकर
अजमेर दौरे के दौरान सुरेन्द्र ने मुझे (1990-91) में एक गज़ल की किताब भेंट की थी- “वक्त के खिलाफ” उसकी चन्द शेर भी गौर फर्मायें-
दोस्तों मैं जिस किसी दिन सिर फिरा हो जाऊँगा
नाम पर इंसानियत के मकबरा हो जाऊँगा
अन्नदाता किसानों पर उनका शेर भी काबिले तारीफ है देखें-
अनदाता! अब न्याय-धरम का बचा यहां रखवाला कौन?
ऊपर वाला जब रूठा हो देगा हमें निवाला कौन?
दोस्तों के नाम उनकी चन्द लाईनें-
मुझे-ऐ-दोस्त जाकर शहर में अपना पता लिखना
ये तुमने गांव क्यों छोड़ा हुई थीक्या खता लिखना।
(लेखक-नईम कुरेशी / ईएमएस)