महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां

सशक्तिकरण, इस शब्द में ये अर्थ निहित है कि महिलाएं अशक्त हैं और उन्हें अब शक्तिशाली बनाना है । ऐसे में एक सवाल हमारे सामने पैदा होता है कि महिलाएं अशक्त क्यों है? क्या हम शारीरिक रूप से अशक्त होने की बात कर रहे हैं? या हम बौद्धिक स्तर की बात कर रहे हैं? या फिर हम जीवन के हर क्षेत्र में उनके अशक्त होने की बात कर रहे हैं फिर चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सामाजिक स्थिति का मुद्दा ही क्यो न हो!
मेरा जहां तक मत है ,मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं के अधिकतर क्षेत्रों कमतर या पिछड़ी होने के लिए जिम्मेदार है। उनका पालन पोषण एक दोयम दर्जे के इंसान के रूप में किया जाता है। जिसके सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ है। घर चलाने की जिम्मेदारी, घर की व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी, बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी, घर में रहने वाले बड़े बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी, और कहीं कहीं तो आर्थिक तंगी होने की स्थिति में पति का हाथ उस क्षेत्र में भी बंटाने की अनकही जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है।हालांकि आज इस स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन आया है। बेटियों के पालन पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है और जो हमारी वयस्क की महिलाएं हैं उनके अंदर एक बड़ा परिवर्तन आया है। ये जो बदलाव का समय था पिछले 20-25 सालों में वह हमारी उम्र की जो मांएं हैं, जिनके बच्चे इस समय 18-20 या 25 साल के लगभग हैं मैंने जो खास परिवर्तन देखा है उनके पालन पोषण में देखा है और महसूस किया है।
और मजे की बात यह है कि इन्हीं सालों में महिला सशक्तिकरण और महिला दिवस मनाने का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। तो एक सीधा सा सवाल हमारे मन में आता है कि ये जो बदलाव आया है, जागरूकता आई है वो इन सशक्तिकरण अभियान और महिला दिवस मनाने से आई है या कि जागरूकता आने के कारण सशक्तिकरण का विचार आया? ये एक जटिल सवाल है। दरअसल दोनों ही बातें एक दूसरे से इस कदर जुड़ी हुई हैं कि हम इसे अलग कर के नहीं देख सकते। ये एक परस्पर निर्भर चक्र है। जागरूकता है तो प्रयास हैं और प्रयास हैं तो जागरूकता है। पर फिर भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं।
जब तक महिला सशक्तिकरण को व्यक्तिगत रूप से देखा जाएगा तब तक वांछित परिणाम आ भी नहीं सकते। जिन परिवारों में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर है, वो आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर हैं उनका परम कर्त्तव्य हो कि अपने पूरे जीवन में वे कम से कम पांच अन्य महिलाओं के लिए भी इस दिशा में कुछ काम करें।
कहीं कहीं सशक्तिकरण का आशय स्वतंत्रता समझा गया है और स्वतंत्रता का आशय पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश या उनके द्वारा किए जाने वाले काम करने से लिया गया जो कि सर्वथा गलत है और भटकाव ही सिद्ध हुआ।
महिला सशक्ति तब है जब वो अपनी योग्यता और क्षमता और इच्छा के अनुसार पढ़ सके, धनोपार्जन कर सके। परिवार में सभी, सभी यानि कि पुरुष सदस्य भी उसके साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करें। महिला सशक्त तब है जब उसके साथ परिवार का प्रेम और सुरक्षा भी हो। किसी भी प्रकार के सशक्तिकरण के लिए पुरुष विरोधी होना आवश्यक नहीं है। पर इसके लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव लाना बेहद आवश्यक है। घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं ही इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। यानि घूम फिर कर गेंद महिलाओं के पाले में ही आ गिरती है। महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में हमारे अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा है और इन सबका पीढ़ी दर पीढ़ी पालन और हस्तांतरण भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। अगर महिलाएं इनमें कुछ बदलाव करके इसे अगली पीढ़ी को सौंपती हैं तो धीरे धीरे बदलाव आता जाता है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है LKK यानि ‘लोग क्या कहेंगे’? पर सच बात तो आज यही है कि लोग तो इंतज़ार कर रहे होते हैं कि कोई कुछ नया बेहतर करे, परंपरा तोड़े तो सबके लिए रास्ता खुले! बस इसी हिम्मत और पहल की आवश्यकता है।
मैं यहां एक उदाहरण देना चाहूंगी । एक महिला हैं। उम्र है कोई साठ साल। जे एल एफ में जाती थीं। वहीं से पढ़ने लिखने का शौक हुआ। अपने शहर के एक बड़े व्यापारिक घराने से हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया है। परिवार ने हंसी उड़ाई। फिर भी वो लिखती रहीं। फिर उन्होंने अपनी पुस्तक छपवानी चाही। पति को बहुत मुश्किल से मनाया। उन्होंने कहा जितना खर्च हो देंगे पर किसी को पता न चले कि तुमने कोई किताब लिखी है। किताब छपकर आ चुकी है पर उसका विधिवत विमोचन नहीं हो पाया है! क्योंकि परिवार नहीं चाहता। मुझे उनकी बेटियों और बहुओं से पूछना है कि एक स्त्री होकर अगर आप दूसरी स्त्री के लिए, जो कि आपकी मां है, इतना भी नहीं कर सकते तो आप भी कहां सशक्त हैं? आप अपनी कुंठाओं से,डर से जब तक बाहर नहीं आते आप कमज़ोर ही हैं।
आज भी किसी सफल महिला को देखकर लोगों को ये कहते सुना जा सकता है कि पति ने बहुत साथ दिया इसलिए यहां तक पहुंची है। पर स्थिति ये भी हो सकती है कि अगर पति ने सचमुच साथ दिया होता तो जहां है, वहां से कहीं ज्यादा आगे होती,सफल होती। इसलिए कहती हूं कि सशक्तिकरण के लिए हम महिलाओं को ही एक दूसरे का साथ देना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
पुराने परंपरागत तरीकों को , जो कि अब आधुनिक युग में अपनी उपयोगिता खो चुके हैं, छोड़कर अच्छे और नये विचारों के साथ,सबको साथ लेकर आगे बढ़ने से ही समाज में बदलाव आ सकता है।पर याद रहे बदलाव और तरक्की सदैव सामूहिक हो तो ही समाजोपयोगी होती है। एक सक्षम महिला जब तक अन्य महिलाओं को भी सक्षम बनाने की दिशा में काम नहीं करेगी,उसका सक्षम होना समाज के लिए कभी उपयोगी न होगा। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि महिलाएं अधिक से अधिक तरक्की करें जिससे समाज आगे बढ़े तो सामूहिक हितों की ओर कदम बढ़ाने होंगे।

शिवानी शर्मा
जयपुर

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