विश्वकर्मा जयन्ती का महत्व

(जानिए कौन हैं भगवान विश्वकर्मा जी, उनके जन्म की कथा, कार्य, महत्व और आरती को)..
मानव को शिल्पकला विज्ञान के सभी चमत्कार भगवान विश्वकर्मा की देन हैं ..जाने और समझें..

दयानन्द शास्त्री
हर वर्ष विश्वकर्मा पूजा कन्या संक्रांति को मनाई जाती है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था, इसलिए इसे विश्वकर्मा जयंती भी कहते हैं. इस बार विश्वकर्मा जयंती 17 सितंबर 2019 को (मंगलवार) के दिन मनाई जा रही है।
सृष्टि के आदिकाल, जो पाषाण युग कहलाता है, में आज का यह मानव समाज वनमानुष के रूप में वन-पर्वतों पर इधर से उधर उछल-कूद कर रहा था। मनुष्य की उस प्राकृतिक अवस्था में खाने के लिए कंदमूल, फल और पहनने को वलकल तथा निवास के लिए गुफाएं थीं। उस प्राकृतिक अवस्था से आधुनिक अवस्था में मनुष्य को जिस शिल्पकला विज्ञान ने सहारा दिया, उस शिल्पकला विज्ञान के अधिष्ठाता एवं आविष्कारक महर्षि आचार्य विश्वकर्मा थे।
ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की शिल्प विज्ञान प्रवर्तक अथर्ववेद के रचयिता कहे जाते हैं। अथर्ववेद में शिल्पकला विज्ञान के अनेकों आविष्कारों का उल्लेख है। पुराणों ने भी इसको विश्वकर्मा रचित ग्रंथ माना है, जिसके द्वारा अनेकों विद्याओं की उत्पत्ति हुई।

मानव जीवन की यात्रा का लंबा इतिहास है और इसका बहुत लंबा संघर्ष है। भगवान विश्वकर्मा ने उसे सबसे पहले शिक्षित और प्रशिक्षित किया ताकि उसे विभिन्न शिल्पों में प्रशिक्षित किया जा सके। इस तरह मानव की संस्कृति और सभ्यता का प्रथम प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा जी हुए जिसे वेदों ने स्वीकार किया है और उनकी स्तुति की है।

इस प्रकार विभिन्न कलाओं का विकास हुआ। धर्म ग्रंथों में कहा जाता है कि भगवान विश्वकर्मा के पांच पुत्र हुए। उन्होंने अपने पांचों पुत्रों को विभिन्न शिल्पों में दक्ष बनाया। प्रथम पुत्र मनु लौह कला में प्रवीण हुआ, दूसरा पुत्र मय काष्ठ कला का ज्ञाता बना, तीसरे पुत्र स्वष्टा ने तॉम्ब्र कला में विशेषता प्राप्त की, चौथा पुत्र शिल्पी पाषाण कला का मर्मज्ञ हुआ और पांचवां पुत्र दैवज्ञ स्वर्ण कला का ज्ञाता बना। उनके पांचों पुत्रों ने विश्वकर्मा के शिल्पकला विज्ञान का विकास और विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप मानव जाति को सुख-सुविधा के लिए अनेक साधन-प्रसाधन प्राप्त हुए।

चार युगों में विश्वकर्मा ने कई नगर और भवनों का निर्माण किया। कालक्रम में देखें तो सबसे पहले सत्ययुग में उन्होंने स्वर्गलोक का निर्माण किया, त्रेता युग में लंका का, द्वापर में द्वारका का और कलियुग के आरम्भ के ५० वर्ष पूर्व हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। विश्वकर्मा ने ही जगन्नाथ पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में स्थित विशाल मूर्तियों (कृष्ण, सुभद्रा और बलराम) का निर्माण किया।

ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐ लिखी हुई है। जिनके प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि। यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो मे आया है ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों मे भी विशेषण रूप मे इसके प्रयोग अज्ञत नही है यह प्रजापति का भी विशेषण बन कर आया है।

प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित।
परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-

बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः॥16॥

महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।

शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है।

प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। ” विश्वकर्मा” शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है

“विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः
अर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विश्वकर्मा है। यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदों में
विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात
कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है। हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए।

पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं की भगवान विश्‍वकर्मा के जन्‍मदिन को विश्‍वकर्मा पूजा, विश्‍वकर्मा दिवस या विश्‍वकर्मा जयंती के नाम से जाना जाता है. इस पर्व का हिन्‍दू धर्म में विशेष महत्‍व है. मान्‍यता है कि इस दिन भगवान विश्‍वकर्मा ने सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के सातवें धर्मपुत्र के रूप में जन्‍म लिया था. भगवान विश्‍वकर्मा को ‘देवताओं का शिल्‍पकार’, ‘वास्‍तुशास्‍त्र का देवता’, ‘प्रथम इंजीनियर’, ‘देवताओं का इंजीनियर’ और ‘मशीन का देवता’ कहा जाता है. विष्‍णु पुराण में विश्‍वकर्मा को ‘देव बढ़ई’ कहा गया है।

यही वजह है कि हिन्‍दू समाज में विश्‍वकर्मा पूजा का विशेष महत्‍व है। हो भी क्‍यों न?
अगर मनुष्‍य को शिल्‍प ज्ञान न हो तो वह निर्माण कार्य नहीं कर पाएगा. निर्माण नहीं होगा तो भवन और इमारतें नहीं बनेंगी, जिससे मानव सभ्‍यता का विकास रुक जाएगा. मशीनें और औज़ार न हो तो दुनिया तरक्‍की नहीं कर पाएगी. कहने का मतलब है कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक विकास के लिए श‍िल्‍प ज्ञान का होना बेहद जरूरी है. अगर शिल्‍प ज्ञान जरूरी है तो शिल्‍प के देवता विश्‍वकर्मा की पूजा का महत्‍व भी बढ़ जाता है. मान्‍यता है कि विश्‍वकर्मा की पूजा करने से व्‍यापार में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है।

भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उद्योगों में भगवान विश्वकर्मा की महता को प्रगत करते हुए प्रत्येक वर्ष 17 सितम्बर को श्वम दिवस के रूप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर राष्ट्रीय समृद्धि के लिए एक संकल्प दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है।

यह पर्व सोरवर्ष के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विश्वकर्मा-पुजा के रूप मे सरकारी व गैर सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना की जाती है।

भगवान विश्वकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा इस तिंथि की महिमा का पुर्व विवरण महाभारत मे विशेष रूप से मिलता है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है। अन्नकुट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है।

मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है। रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रूप मे मनाया जाता है। 5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रूप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रूप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है–

“माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च॥”

धर्मशास्त्र भी माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रूप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। भगवान विश्वकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है।

निःसन्देह यह विषय निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विश्वकर्मा मन्दिर व धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्भधींत संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी चाहीए की सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाए। श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ, गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रूप से विश्वकर्मा जी की पुजा करनी चाहिए।

“विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विशवकर्मा इति श्रुतम॥””

स्पष्ट है कि विश्वकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्ट्र उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।

पंडित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार भगवान विश्‍वकर्मा को निर्माण का देवता माना जाता है. मान्‍यता है कि उन्‍होंने देवताओं के लिए अनेकों भव्‍य महलों, आलीशान भवनों, हथियारों और सिंघासनों का निर्माण किया था। हर वर्ष 17 सितंबर को निर्माण के देवता “भगवान विश्‍वकर्मा जी” का जन्‍म दिन मनाया जाता हैं। ऐसी मान्यता हैं कि विश्‍वकर्मा जी देवशिल्‍पी यानी कि देवताओं के थे। उन्हें वास्‍तुकार के रूप में पूजा जाता है. मान्‍यता है कि उन्‍होंने देवताओं के लिए महलों, हथियारों और भवनों का निर्माण किया था. विश्‍वकर्मा पूजा के मौके पर ज्‍यादातर दफ्तरों में छुट्टी होती है और कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. इस दौरान औजारों, मशीनों और दुकानों की पूजा करने का विधान है.
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
विश्‍वकर्मा पूजा का महत्‍व —
भगवान विश्‍वकर्मा के जन्‍मदिन को विश्‍वकर्मा पूजा, विश्‍वकर्मा दिवस या विश्‍वकर्मा जयंती के नाम से जाना जाता है. इस पर्व का हिन्‍दू धर्म में विशेष महत्‍व है. मान्‍यता है कि इस दिन भगवान विश्‍वकर्मा ने सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के सातवें धर्मपुत्र के रूप में जन्‍म लिया था. भगवान विश्‍वकर्मा को ‘देवताओं का शिल्‍पकार’, ‘वास्‍तुशास्‍त्र का देवता’, ‘प्रथम इंजीनियर’, ‘देवताओं का इंजीनियर’ और ‘मशीन का देवता’ कहा जाता है. विष्‍णु पुराण में विश्‍वकर्मा को ‘देव बढ़ई’ कहा गया है. यही वजह है कि हिन्‍दू समाज में विश्‍वकर्मा पूजा का विशेष महत्‍व है।

अगर मनुष्‍य को शिल्‍प ज्ञान न हो तो वह निर्माण कार्य नहीं कर पाएगा. निर्माण नहीं होगा तो भवन और इमारतें नहीं बनेंगी, जिससे मानव सभ्‍यता का विकास रुक जाएगा. मशीनें और औज़ार न हो तो दुनिया तरक्‍की नहीं कर पाएगी. कहने का मतलब है कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक विकास के लिए श‍िल्‍प ज्ञान का होना बेहद जरूरी है. अगर शिल्‍प ज्ञान जरूरी है तो शिल्‍प के देवता विश्‍वकर्मा की पूजा का महत्‍व भी बढ़ जाता है. मान्‍यता है कि विश्‍वकर्मा की पूजा करने से व्‍यापार में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है।
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
जानिए कौन हैं भगवान विश्‍वकर्मा?

भगवान विश्‍वकर्मा को निर्माण का देवता माना जाता है. मान्‍यता है कि उन्‍होंने देवताओं के लिए अनेकों भव्‍य महलों, आलीशान भवनों, हथियारों और सिंघासनों का निर्माण किया. मान्‍यता है कि एक बार असुरों से परेशान देवताओं की गुहार पर विश्‍वकर्मा ने महर्षि दधीची की हड्डियों देवताओं के राजा इंद्र के लिए वज्र बनाया. यह वज्र इतना प्रभावशाली था कि असुरों का सर्वनाश हो गया. यही वजह है कि सभी देवताओं में भगवान विश्‍वकर्मा का विशेष स्‍थान है. विश्‍वकर्मा ने एक से बढ़कर एक भवन बनाए. मान्‍यता है कि उन्‍होंने रावण की लंका, कृष्‍ण नगरी द्वारिका, पांडवों के लिए इंद्रप्रस्‍थ नगरी और हस्तिनापुर का निर्माण किया. माना जाता है कि उन्‍होंने उड़ीसा स्थित जगन्नाथ मंदिर के लिए भगवान जगन्नाथ सहित, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति का निर्माण अपने हाथों से किया था. इसके अलावा उन्‍होंने कई बेजोड़ हथियार बनाए जिनमें भगवान शिव का त्रिशूल, भगवान विष्‍णु का सुदर्शन चक्र और यमराज का कालदंड शामिल हैं. यही नहीं उन्‍होंने दानवीर कर्ण के कुंडल और पुष्‍पक विमान भी बनाया. माना जाता है कि रावण के अंत के बाद राम, लक्ष्‍मण सीता और अन्‍य साथी इसी पुष्‍पक विमान पर बैठकर अयोध्‍या लौटे थे.
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
जानिए कैसे मनाई जाती है विश्‍वकर्मा जयंती?

विश्‍वकर्मा दिवस घरों के अलावा दफ्तरों और कारखानों में विशेष रूप से मनाया जाता है. जो लोग इंजीनियरिंग, आर्किटेक्‍चर, चित्रकारी, वेल्डिंग और मशीनों के काम से जुड़े हुए वे खास तौर से इस दिन को बड़े उत्‍साह के साथ मनाते हैं. इस दिन मशीनों, दफ्तरों और कारखानों की सफाई की जाती है. साथ ही विश्‍वकर्मा की मूर्तियों को सजाया जाता है. घरों में लोग अपनी गाड़‍ियों, कंम्‍प्‍यूटर, लैपटॉप व अन्‍य मशीनों की पूजा करते हैं. मंदिर में विश्‍वकर्मा भगवान की मूर्ति या फोटो की विधिवत पूजा करने के बाद आरती की जाती है. अंत में प्रसाद वितरण किया जाता है.

विश्वकर्मा ने मानव जाति को शासन-प्रशासन में प्रशिक्षित किया। उन्होंने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार और निर्माण किया, जिससे मानव जाति सुरक्षित रह सके। उन्होंने अपनी विमान निर्माण विद्या से अनेक प्रकार के विमानों के निर्माण किए जिन पर देवतागण तीनों लोकों में भ्रमण करते थे। उन्होंने स्थापत्य कला से शिवलोक, विष्णुलोक, इंद्रलोक आदि अनेक लोकों का निर्माण किया। भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, इंद्र के वज्र और महादेव के त्रिशूल का भी उन्होंने निर्माण किया जो अमोघ अस्त्र माने जाते हैं। आज शिल्पकला विज्ञान के जो भी चमत्कार देखने को मिलते हैं, वे सभी भगवान विश्वकर्मा की देन हैं।

भारतवर्ष के सामने अखंडता, सांप्रदायिक सद्भावना तथा सामाजिक एकता की समस्याओं का समाधान विश्वकर्मा दर्शन में है। भारत को स्वावलंबी और स्वाभिमानी राष्ट्र बनाने की जो बात कही जाती है, उसका समाधान भी विश्वकर्मा के शिल्पकला विज्ञान में ही है। यदि इसको विकसित किया जाए तो भारत से बेकारी और गरीबी दूर हो जाएगी और पृथ्वी पर भारत का एक अभिनव राष्ट्र के रूप में अवतरण होगा। सभी देवताओं की प्रार्थना पर विश्वकर्मा ने पुरोहित के रूप में पृथ्वी पूजन किया जिसमें ब्रह्या यजमान बने थे। पुुरोहित कर्म का प्रारंभ तभी से हुआ।

सभी देवताओं ने भगवान विश्वकर्मा को ही सक्षम देव समझा तथा उन सब के आग्रह पर वह पृथ्वी के प्रथम राजा बने, इन सभी चीजों का जिक्र भारतवर्ष के वेद पुराणों में है। कश्यप मुनि को राज-सत्ता सौंपकर विश्वकर्मा भगवान शिल्पकला विज्ञान के अनुसंधान के लिए शासन मुक्त हो गए क्योंकि भारत के आर्थिक विकास और स्वावलंबन के लिए यह आवश्यक था। कुछ दिनों के शासन में विश्वकर्मा भगवान ने शासन को सक्षम, समर्थ तथा शक्तिशाली बनाने के अनेकों सूत्रों का निर्माण किया जिस पर गहराई से शोध करने की आज आवश्यकता है।
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
जानिए कैसे हुई थी भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति–

एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ‘नारायण’ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए. उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे. ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव’ हुए. कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे. उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए. पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने.
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
अनेक रूप हैं भगवान विश्वकर्मा के–

भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं. यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया. इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है. विश्वकर्मा पर प्रचलित कथा भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है.

इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था. अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था. पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी. पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी. तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो.

इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे. उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है।
✍🏻✍🏻🌷🌷👉🏻👉🏻
ऐसे करें भगवान विश्‍वकर्मा जी की आरती—

ॐ जय श्री विश्वकर्मा प्रभु जय श्री विश्वकर्मा।
सकल सृष्टि के कर्ता रक्षक श्रुति धर्मा ॥
आदि सृष्टि में विधि को, श्रुति उपदेश दिया।
शिल्प शस्त्र का जग में, ज्ञान विकास किया ॥
ऋषि अंगिरा ने तप से, शांति नही पाई।
ध्यान किया जब प्रभु का, सकल सिद्धि आई॥
रोग ग्रस्त राजा ने, जब आश्रय लीना।
संकट मोचन बनकर, दूर दुख कीना॥
जब रथकार दम्पती, तुमरी टेर करी।
सुनकर दीन प्रार्थना, विपत्ति हरी सगरी॥
एकानन चतुरानन, पंचानन राजे।
द्विभुज, चतुर्भुज, दशभुज, सकल रूप साजे॥
ध्यान धरे जब पद का, सकल सिद्धि आवे।
मन दुविधा मिट जावे, अटल शांति पावे॥
श्री विश्वकर्मा जी की आरती, जो कोई नर गावे।
कहत गजानन स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे॥

error: Content is protected !!