शरद पूर्णिमा अथ खीर-महोत्सव

शिव शंकर गोयल
शुरूआत खुसरो से करते है. एक बार अमीर खुसरो कही जा रहे थे. उन्हें रास्ते में प्यास लगी तो एक पनघट पर जा पहुंचे. वहां चार औरतें पानी भर रही थी. उनमें से एक ने उन्हें पहचान लिया और बोली कि आप हमारी चीजों पर शायरी करदे तो पानी पिलाये. खुसरो ने मंजूर कर लिया, तब एक बोली आज मेरे घर खीर पकी है, इस पर कुछ कहिये. दूसरी बोली मेरे चरखे पर कुछ कहिये. तीसरी बोली सामने खडे कुत्तें पर कुछ कहिये तो चौथी ने आग्रह किया कि मेरी बीन पर कुछ कहिये. तब चारो के लिए खुसरो ने निम्न लिखित दोहा पढ दिया
“खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चला. कुत्ता आया खागया, तू बैठी बीन बजा.”
खीर का हमारे भारतीय जन जीवन में व्यंजन के रूप में काफी महत्व है. इसे शरद पूर्णिमा से भी जोडकर देखा जाता है. पूर्णरूप से अच्छी तरह पकाई हुई खीर को शरद पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा की चांदनी में रखा जाता है तो इसका औषधीय महत्व काफी बढ जाता है. कई स्थानों पर तो इस खीर के साथ कोई औषधी भी खाने के दी जाती है जिसके खाने से खांसी-दमा ठीक होजाता है. वैसे भी कही 2 बीमार व्यक्ति को साबूदाने की खीर खाने को दी जाती है ताकि वह जल्दी से स्वस्थ्य हो सके.
खीर हमारे जनजीवन से भी जुडी हुई है और इसके साथ कई मुहावरें, कहावतें प्रचलन में है. गर्मी और फिर वर्षा ऋतु के समय जब नगरपालिका की कृपा से हमारे आस-पास मक्खियों का प्रकोप बढ जाता है तो अपने हठी स्वभाव के कारण यह आसानी से स्थान छोडकर जाती नही है. इस बारें में वरिष्ठ लोग यह कहते हुए पाये जाते है कि “मक्खियां श्राध्दों की खीर खाकर ही जायेगी” और यह सच भी है आप स्वयं नोट करके देखलें.
रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई मुश्किल काम आजाय तो उसके लिए कहा जाता है “वह काम करना तो टेढी खीर है.” बोलचाल में जब किसी को चेताया जाता है कि अगर वह कोई ऐसै वैसा काम करेगा तो लोग उसकी उपेक्षा करेगे अर्थात “कोई कुत्ता भी उसकी खीर नही खायेगा.” किसी के द्वारा अपने घर का पता बताने पर मजाक में कह दिया जाता है कि हमें क्या पता “हम कौन से तेरे घर खीर खाने आएं थे ?.”
श्राध्दों में अपने पित्तरों की तुष्टि के लिए लोग पंडितों को खीर-पूडी और कही कही खीर मालपूएं खिलाते है भले ही जीवित अवस्था में अपने वरिष्ठ जनों को यह खाने को ना मिलता हो.
वर्षा ऋतु के दौरान ही पडने वाले तीज त्यौहारों पर कही कही खीर-घेवर का भी प्रचलन है.
खीर हमारी पौराणिक कथाओं से भी जुडी हुई है. त्रेतायुग में जब राजा दशरथ निसंतान थे तब गुरू वशिष्ठ के कहने पर उन्होंने श्रंगी ऋषी से पुत्रेष्ठि-यज्ञ करवाया जिसके अंत में ऋषी ने उन्हें खीर का प्रशाद दिया जिसे उन्होंने अपनी रानियों में बांट दिया फलस्वरूप राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न का जंम हुआ. खीर से ही जुडी एक घटना से रावण की पटराना मंदोदरी का जंम जुडा हुआ है. वह पूर्व जंम में मेंढकी थी. उसने पकी खीर में सांप के गिर जाने पर ऋषियों को आगाह करने के लिए अपनी जान देदी तो ऋषियों ने उसे वरदान दिया और वह रावण की पटरानी बनी. भले ही कलियुग में आज मेरठ एवं जोधपुर के पास मंडौर के लोग अपने अपने यहां मंदोदरी का पीहर बताते है. अब उनको ही सिध्द करना है कि रावण की असली ससुराल कौनसी है ? इस विषय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस छेडी जा सकती है क्योंकि रोज रोज आर्थिक मंदी, बेकारी, महंगाई आदि पर बहस छेडने से क्या फायदा ?
खीर की पहचान बचपन में ही करादी जाती है. बच्चें सप्ताह के सातों वार याद करते हुए बोला करते थे. सोमवार सोहारी खीर, खाकर हम हो जाये वीर. मंगल मोदक मंगलवार, खाकर कभी न सकते हार. बुधवार को बने कचालू, खाकर हम हो जाये दयालू………..आदि.
उन्ही दिनों लोमडी और सारस की कहानी पढाई गई. एक रोज लोमडी ने अपने मित्र सारस को अपने यहां निमंत्रण देकर खीर बनाई लेकिन अपनी आदत से लाचार उसे थाली में परोसा. लोमडी ने तो उसे आसानी से चाट लिया लेकिन सारस उसे खा नही सका. दूसरे रोज सारस ने लोमडी को अपने घर बुलाया और उसने भी खीर ही बनाई लेकिन उसे संकरी गर्दन वाले मर्तबान में परोसा जिसे लोमडी ढंग से खा नही सकी. अर्थात जैसे को तैसा.
इतना ही नही हमने यह भी पढा है कि सिध्दार्थ जब अपनी अराधना में लगे हुए थे तो सूखकर कांटा होगए थे. तब सुजाता ने उन्हें खीर का प्याला पिलाया और फिर उन्हें बोधित्सव प्राप्त हुआ. वह बुध्द कहलाये.
कश्मीर के अवंतिपुर-अनंतनाग-जिले में खीर भवानी का मंदिर है जहां रोजाना खीर का प्रसाद वितरित किया जाता है. आइये इस साल वहां मनाये जाने वाले सालाना उत्सव को सबके साथ मिलकर मनाने का शुभ संकल्प लेवें.

शिव शंकर गोयल

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