घूंघट गुलामी का नहीं तहज़ीब का प्रतिक

चंदन सिंह भाटी
जैसलमेर औरतें आज भी घूंघट से अपना मुंह ढकती हैं। विशेषकर ग्रामीण अंचलों में बड़ी संख्या में महिलाएं घूंघट में रहती है। घूँघट हिन्दू समाज की वो प्रथा रही है जिसे लाज का प्रतीक माना जाता है. हिन्दू धर्म में महिलाओं पर घूँघट के लिए दवाब नहीं डाला जाता बल्कि महिलायें स्वयं उस व्यक्ति से सम्मानस्वरुप पर्दा करती हैं जो रिश्ते में उनसे बड़ा होता है.घूंघट के पक्षधरों का मानना है घूंघट भारतीय परंपरा में तहज़ीब ,अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। आज भी राजस्थान में यह प्रथा गाँव से लेकर शहर तक में जीवित है। यह भी कहा जाता है हिन्दू धर्म में महिलाओं पर घूँघट के लिए दवाब नहीं डाला जाता बल्कि महिलायें स्वयं उस व्यक्ति से सम्मानस्वरुप पर्दा करती हैं जो रिश्ते में उनसे बड़ा होता है।इसी घूंघट प्रथा ने देश विदेशो में राजस्थान की संस्कृति को नया आयाम दिया,विदेशी महिलाएं घूंघट को पसंद करती हैं

चन्दन सिंह भाटी
घूंघट न तो गुलामी का प्रतिक हे न दासता का,यह मान सम्मान और तहज़ीब का प्रतिक हैं ,परम्पराओ का सम्मान हमारी संस्कृति रही हैं ,वैसे भी आजकल परिवारों में दबाव की स्थतियाँ नहीं रही ,ऐसे सेकड़ो उदाहरण हे की घूंघट की संस्कृति में पली बड़ी कई महिलाएं शिखर पर पहुंची हैं ,आज सेकड़ो उदहारण हे की घूंघट की आड़ में महिलाऐं फर्राटेदार इंग्लिश बोलती नजर आती हैं ,घूंघट कोई कुप्रथा नहीं हे इसको समझने के लिए लोक जीवन की यात्रा से गुजरना होगा ,घूंघट ने राजस्थान की उत्कृष्ट लोक संस्कृति को विश्व में पहचान दिलाई ,राजस्थान की लोक ग्राम्य संस्कृति में से घूंघट और साफा (पगड़ी )निकाल दे तो हमारे पास संस्कृति के नाम पर बचता ही क्या हैं,घूंघट आज स्टेटस सिंबल बन गया हैं ,रात को टी वी पर चलने वाले सीरियलों को ही देख लीजिये,हाई प्रोफाइल शादियां देख लो,उन पर तो कोई दबाव नहीं हैं फिर भी घूंघट में मंडप तक युवतियां पहुंचती हैं ,राजस्थान के पश्चिमी हिस्से में आज भी घूंघट का प्रचलन मान सम्मान का प्रतिक हे न की दबाव या गुलामी का ,घूंघट को महिलाओं की तरक्की में बाधा मानाने वालो की अपनी कोई सोच रही होगी जो वास्विकता से कोसों दूर हैं ,बेवजय संस्कृति और परम्पराओ पर ऊँगली उठाकर विवाद खड़े करना राजनेताओ की फितरत रही हैं ,

घूंघट ट्रेंड देश भर में लोकप्रिय तो विकास में बाधक कहाँ

अब फिर एक बार घूंघट ट्रेंड में चल रहा है। आज इसे फैशन ट्रेंड के रूप में देखा जा रहा है। अगर आप भी दुल्हन बनने जा रही हैं, तो इस तरह से खुद को पर्दे में रख सकती हैं। इसमें आप घूंघट में होती हैं, लेकिन फेस आपका पूरा दिखता है। बाजार में आपको घूंघट वाले अटैच दुपट्टे आसानी से मिल जाएंगे।फेरे और वरमाला के दौरान घूंघट लेना अब ट्रेंड बनता जा रहा है। इसी के चलते इस समय मार्केट में दुपट्टे वाले घूंघट आ गए हैं। इसमें दुपट्टे के साथ ही घूंघट अटैच होकर आ रहा है। अगर आप भी प्लान कर रही हैं घूंघट, तो बहुत अधिक मोटे दुपट्टे की जगह पर झीने कपड़े वाले हल्के दुपट्टे के ऑप्शन पर जाएं।अगर आप अलग से अटैच किया हुआ दुपट्टा नहीं लेना चाहतीं, तो लहंगे के साथ सिंगल दुपट्टे को ही लंबे घूंघट की तरह कैरी कर सकती हैं। घूंघट के दुपट्टे इन दिनों नेट फैब्रिक में आ रहे हैं जिस पर खूबसूरत थ्रेड, तिल्ले, मोती, सिपी-सितारे, स्टोन वर्क किया होता है। अगर आप हैवी घूंघट नहीं निकालना चाहतीं, तो प्लेन नेट में हल्के स्टोन और गोटा पट्टी बॉर्डर में कुछ यूनीक स्टाइल अपना सकती हैं। फ्लोरल जाल दुपट्टा भी फैशन में चल रहा है। नेट दुपट्टे के आगे फ्लोरल जाल बुना होता है। जब घूंघट परम्परा और संस्कृति के दायरे से निकल फैशन बन गया हे तो इसे महिलाओं की उन्नति में बाधक कैसे मान सकते हैं,

प्राचीन ग्रंथो में भी घूंघट का हे उल्लेख

जो लोग घूंघट को लेकर यह कह रहे की घूंघट कभी संस्कृति नहीं रही न इसका इतिहास हे ,घूंघट का उल्लेख प्राचीन ग्रंथो में नहीं हे तो यह बयान देने वाले अपना ज्ञान दुरुस्त कर ले ,कुछ उदाहरण प्राचीन ग्रंथो से प्रस्तुत हैं

प्राचीन भारत में पर्दा प्रथा और घूँघट प्रथा रही है , वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था । ऐसा भी नहीं था कि सिर ढँकना स्त्रियों के लिये ही अनिवार्य था ,पुरुषों के लिये भी सिर ढँकना अनिवार्य था । स्त्रियाँ साड़ी-चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं ,तो पुरुष मुकुट-पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे । स्त्रियों का पहनावा कैसा हो ? इस विषय में स्वयं वेद प्रमाण है , ऋग्वेद १०/७१/४ में कहा है – ‘स्त्री को लज्जापूर्ण रहना चाहिये ,कि दूसरा पुरुष मनुष्य उसका रूप देखता हुआ भी न देख सके । वाणी सुनता हुआ भी पूरी तरह न सुन सके ।’ एक अन्य मन्त्र में –

अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर ।

मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।। (ऋग्वेद ८/४३/१९)

अर्थात् ‘साध्वी नारी ! तुम नीचे देखा करो (तुम्हारी दृष्टि विनय से झुकी रहे ) । ऊपर न देखो । पैरोंको परस्पर मिलाये रक्खो (टाँगों को फैलाओ मत ) । वस्त्र इस प्रकार पहनो ,जिससे तुम्हारे ओष्ठ तथा कटिके नीचेके भागपर किसी की दृष्टि न पड़े । ‘ इससे स्पष्ट है कि स्त्री सलज्ज और मुख पर घूँघट डाले रहे । पर्दा प्रथा के इतिहास पर भी अवलोकन करें ,तो सर्वप्रथम रामायण के प्रसङ्ग देखिये –

माता जानकी जी जब वनवास जा रही थीं ,तब उन्हें देखने वाली प्रजा कहती है

या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि ।

तामद्य सीतां पश्यति राजमार्गगता जना: ।। (वाल्मीकिरामायण २/३३/८)

अर्थात् -‘ओह ! पहले जिसे आकाशमें विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे ,उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं । ‘

मन्दोदरी रावण के वध पर विलाप करते हुए कहती है –

दृष्ट्वा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहान वगुष्ठिताम् ।

निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो ।। ( वाल्मीकिरामायण ६/१११/६१)

अर्थात् -‘प्रभो ! आज मेरे मुँह पर घूँघट नहीं है ,मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी हूँ । इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं ?’

दूसरा प्रसङ्ग महाभारत से देखिये ,कुरु सभा में द्यूतक्रीड़ाके समय द्रौपदी कहती हैं –

यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे ।

साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ।। महाभारत सभापर्व ६९/५

अर्थात् -‘पहले राजभवन में रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे ,वही आज इस सभा के भीतर महान् जनसमुदाय में आकर सबके नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ ।’

रामायण-महाभारतके प्रसङ्गों से ऐसा प्रतीत होता है ,पर्दा प्रथा सामान्य स्त्रियों के लिये न होकर राजवंशकी राजकुमारियों-रानियोंके लिये ही थी । राजवंश की ये रानी-राजकुमारियां बड़े सुखों से रहती थीं ,जैसे आधुनिक युग में ऐसी में रहने वाली । वे विशिष्ट अवसरों पर ही बाहर निकलती थीं ,वे अवसर थे –

व्यासनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे ।

न कृतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२८

अर्थात्-‘विपत्तिकाल में ,शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसर पर ,युद्धमें ,यज्ञमें अथवा विवाह में स्त्री का दीखना दोष की बात नहीं है । ‘ अर्थात् इन अवसरों पर राजकुलकी स्त्रियाँ पुरुषों के मध्य जाती थीं ,उस समय उन्हें कोई दोष नहीं देता था ।

पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण ,प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है –

न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया ।

नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२७

अर्थात् -‘घर ,वस्त्र और चहारदीवारी आदि वस्तुएँ स्त्रीके लिये परदा नहीं हुआ करतीं । इस तरह लोगों को दूर हटाने ( किसी स्त्रीके समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना ,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें ) से जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है ,ये भी स्त्रीके लिये आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं । पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार — ये ही उसके लिये आवरण हैं ।’

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