बदलते राजनीतिक दृश्यों में उथल-पुथल के संकेत

lalit-garg
आज जब नववर्ष प्रारम्भ हो रहा है या यूं कहूं कि इक्कीसवीं शताब्दी का ट्वींटी-ट्वींटी प्रारम्भ हो रहा है, तब इसकी पूर्व संध्या पर मुझे भारत की एक नवीन तस्वीर दिखाई दे रही है। बीता वर्ष जाते-जाते घटनाबहुल बन गया। राष्ट्रीय स्तर पर जहां राममंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक कानून, एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) से जुड़ी अनेक घटनायंे घटित हुईं, वहीं महाराष्ट्र एवं झारखंड के बदलते राजनीतिक परिदृश्यों-मूल्यमानकों ने राजनीति की नयी परिभाषाओं को गढ़ा है, इनसे जन-मानस गहरे रूप में प्रभावित हुआ है।
झारखंड एवं महाराष्ट्र में राजनीतिक मूल्यों का टूटना, जिसने यह साबित किया कि सत्ता के मोह एवं मुड़ में राजनीति की दीवारें अलग नहीं कर सकतीं। किंपलिंग की विश्व प्रसिद्ध पंक्ति है-”पूर्व और पश्चिम कभी नहीं मिलते।“ पर मैं देख रहा हूं कि कट्टर विरोधी मिलकर संवाद स्थापित कर रहे हैं, सत्ता-सुख भोग रहे हैं। जाता हुआ पुराना वर्ष नये वर्ष के कान में कह रहा है, ”मैंने आंधियाँ अपने सीने पर झेली हैं, तू तूफान झेल लेना, पर भारतीयता के दीपक को बुझने मत देना।“ झारखंड के चुनावी नतीजों ने बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को गहरा झटका दिया है। झारखंड में हार के साथ ही बीजेपी ने अपने शासन वाले जो पांच राज्य गंवाए हैं, उन सभी में कांग्रेस या तो सीधे या फिर एक भागीदार के रूप में सत्ता में आ गई है। वर्ष 2014 के बाद से ही बीजेपी लोगों को यह समझाती रही है कि एक राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस तेजी से सिकुड़ रही है और जल्द ही यह अतीत का हिस्सा बन जाएगी। लेकिन उलट हो रहा है, राजनीति में कब-क्या हो जाये, कहां नहीं जा सकता है। बहुत बड़ी ताकत बनी बीजेपी अवश्य सिकुड़ती जा रही है। एक जीवंत एवं आदर्श लोकतंत्र के लिये पक्ष एवं विपक्ष दोनों का संतुलित होना जरूरी है।
एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) ने इतना विकराल मुँह खोल लिया है कि वह आज सब कुछ निगल सकता है। इन विरोध करने वाले राजनेताओं एवं उनके उकसाये लोगों को देश से जैसे कोई मतलब नहीं, इन्हें सिर्फ अपना जनाधार चाहिए। वोट चाहिए। किसने लगाई ये आग? क्यों राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को तार-तार किया जा रहा है? इन कानूनों में किसी के अहित की बात नहीं है, बल्कि जिनका अहित हुआ है, उनका हित निहित है, फिर क्यों बवाल है? पहले किसी भी गलत बात के लिए ”विदेशी हाथ“ का बहाना बना दिया जाता था। अब कौन-सा हाथ है? कौन चक्र चलाता है? कौन विरोधी स्वर घोलता है? आश्चर्य की बात यह कि जब पिछले दिनों सीएए-एनआरसी को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ तो एक सुर में कहा गया कि यह कांग्रेस ही है जो लोगों को भड़का रही है। यानी यह तो तय है कि कांग्रेस की उपस्थिति देश भर में है और उसका असर जनता के एक बड़े तबके पर है। इस बात को स्वीकारते हुए कांग्रेस की ताकत को इग्नोर करना राजनीति अपरिपक्वता को ही दर्शाता है।
कांग्रेस अपनी जमीन मजबूत कर रही है, धीरे-धीरे वह अपनी खोई प्रतिष्ठा एवं जनाधार को हासिल करने में लगी है। इन स्थितियों को पाने के लिये वह सभी हदें पार कर रही है, मूल्यों एवं नीतियों को भी नजरअंदाज करने में भी उसे कोई संकोच एवं परहेज नहीं है। लेकिन किन्हीं मोर्चों पर वह दृढ़ होने का भी प्रमाण दे रही है। जैसाकि महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने पर भी राहुल गांधी ने सावरकर पर अपने विचार खुलकर व्यक्त किए और शिवसेना के विरोध के बावजूद नरमी का कोई संकेत नहीं दिया। कांग्रेस का ढांचा भले ही किसी वैचारिक लड़ाई के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है, लेकिन सत्ता तक पहुंच बनाने में वह अभी भी काबिल है। उसकी दूसरी लाइन के नेताओं के लिए सत्ता में बने रहना और अपनी खोई जमीन हासिल करना ज्यादा बड़ी प्राथमिकता है।
महाराष्ट्र एवं झारखण्ड के गठबंधन प्रयोगों ने भारतीय राजनीति का मुहावरा बदल दिया है। दोनों ही राज्यों में बीजेपी विरोधी गठबंधन एकजुट बना है, झारखंड में हेमंत सोरेन के शपथ ग्रहण समारोह में साल में दूसरी बार तमाम विपक्षी नेताओं के जमावड़े के बीच कांग्रेस मुक्त भारत की जगह बीजेपीमुक्त भारत के स्वर उभरे हैं। हम कर्नाटक और उससे पहले बिहार में जो राजनीतिक उलटफेर के दृश्य देखें, उससे एक बात साफ हो गई कि भारतीय राजनीति को लेकर कोई भी निश्चित नीति एवं प्रयोग स्थिर है। आजादी के सात दशक बाद भी भारत की राजनीति विविध प्रयोगों से ही गुजर रही है। कांग्रेस के शुरुआती दौर को छोड़ दें तो वीपी सिंह ने केंद्र में गठबंधन की नयी अवधारणा पेश की। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही दो गठबंधन एनडीए और यूपीए सामने आए, जिनमें एक की धुरी बीजेपी और दूसरे की कांग्रेस थी। इसका सिद्धांत कुछ यूं बांधा गया कि अमेरिका-ब्रिटेन की तरह दो वैचारिक खेमों की सियासत भारत में भी चलेगी, लेकिन क्षेत्रीय ताकतों से समायोजन बनाकर। फिर बीजेपी ने यूपीए सरकार के कमजोर फैसलों का हवाला देते हुए मजबूत केंद्रीय सत्ता के नाम पर वोट मांगे और उसे जबर्दस्त जन समर्थन प्राप्त हुआ। लेकिन स्वल्प समय में ही बहुसंख्यक आग्रहों वाली इस सत्ता की आक्रामक राष्ट्रवादी विचारधारा गांव-कस्बों के चुनावों को भी ‘मोदी बनाम मोदी’ के स्थान पर ‘मोदी बनाम कौन’ में बदल गयी। यही कारण है कि पिछले एक-डेढ़ वर्षों में ही कुल पांच राज्य बीजेपी के हाथ से जा चुके हैं। इसके साथ ही गठबंधनों की संभावनाभरी सुबहें भी उजागर होने लगी है। बदलते राजनीति समीकरणों एवं सोच का ही परिणाम है कि बिहार में बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले नीतीश कुमार ने पलटकर उसी के साथ सरकार बना ली तो महाराष्ट्र में बीजेपी से मिलकर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ सरकार बनाने का फैसला किया। शक्तिशाली केंद्र सरकार द्वारा लाए गए नागरिकता कानून के विरोध में राष्ट्रव्यापी आंदोलन देखने को मिल रहा है। गौर से देखें तो सदी के दूसरे दशक का यह आखिरी दिन और इसके परिपाश्र्व में बन एवं बिगड़ रहे राजनीति परिदृश्य प्रचंड उथल-पुथल का संकेत दे रहे हैं। अब तो लोकतंत्र में अडिग विश्वास रखने वाले भी राजनीतिज्ञों के चरित्र एवं साख देखकर शंकित हो उठे हैं। क्या होगा? कौन सम्भालेगा इस देश को? क्या आने वाला वर्ष तनाव, भय, उत्पीड़न, हिंसा, अविश्वास, महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक अनिश्चितता की पीड़ा को भोगने को अभिशप्त रहेगा? संसदीय प्रणाली और संसद से लोगों का विश्वास उठने लगा है। अगर यही स्थिति रही और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा ही आचरण करता रहा तो सारी व्यवस्था से ही विश्वास उठ जाएगा। यह प्रश्न आज देश के हर नागरिक के दिमाग में बार-बार उठ रहा है कि किस प्रकार सही प्रतिनिधियों को पहचाना जाए, कैसे राजनीति स्वार्थ एवं सत्ता की बजाय सेवा एवं सौहार्द का माध्यम बने। सोच एवं संकल्प की यही एक छोटी-सी किरण है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि ”अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ“। अभी भी सब कुछ ठीक हो सकता है।“ एक दीपक जलाकर फसलें पैदा नहीं की जा सकतीं पर उगी हुई फसलों का अभिनंदन दीपक से अवश्य किया जा सकता है।
(ललित गर्ग)
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