*विचार – प्रवाह*

नटवर विद्यार्थी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । सामाजिकता की पहली पहचान उसके भीतर के संस्कार है क्योंकि संस्कारहीन व्यक्ति सामाजिक हो हो नहीं सकता और जो सामाजिक नहीं है उसे मनुष्य कहना ही अनुचित है ।
परिवार और विद्यालय दो ऐसे स्थान है जहाँ बाल्यकाल से ही संस्कारों का बीजारोपण होता है । संस्कारों का जीवन में अहम स्थान है । संस्कार आचरण से आते है । एक पुत्र और पुत्री अपने माता- पिता को तथा एक शिष्य अपने गुरु को जैसा करते हुए देखता है वही बात और आचरण आगे चलकर बालक के जीवन का संस्कार बन जाता है जो अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी । इन्ही संस्कारों में एक संस्कार है सेवा- भावना ।
एक जगह पढ़ा था -” सुंदर लोग हमेशा सेवाभावी नहीं होते किन्तु सेवाभावी लोग हमेशा सुंदर होते है ” । सचमुच जिसमें सेवा- भावना है उससे बड़ा सुंदर और कौन हो सकता है । सेवा ईश्वर को प्रसन्न करने का सबसे सुगम और सही रास्ता है । समाज के दबे – कुचले लोगों की सेवा करना तो सबसे बड़ी सेवा है । सेवा को ईश्वर का कार्य समझकर करने वाले हमेशा आनंदित रहते हैं और इस आनंद की एक बार आदत पड़ जाए तो तो फिर जीवनभर नहीं छूटती । सेवा – भाव से वह सब कुछ मिल जाता है जिसकी हम आकांक्षा रखते हैं ।

– नटवर पारीक

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