*विचार – प्रवाह*

नटवर विद्यार्थी
“खिचड़ी” हमेशा से पसंदीदा भारतीय व्यंजन रही है । बचपन में सुना था ” खिचड़ी के हैं चार यार , दही, पापड़, घी,अचार ” । खिचड़ी को रुचिकर बनाने के लिए समय- समय पर प्रयास भी होते रहे हैं । इसे राष्ट्रीय भोजन के रूप में प्रतिष्ठित कराने के भी अभियान चले हैं । आस्था और परंपरा के साथ- साथ यह भी मान्यता रही है कि शनिवार को खिचड़ी खाने से ग्रह – दोष ख़त्म होते हैं । सबसे बड़ी बात खिचड़ी सात्विक और सुपाच्य भोजन की श्रेणी में आती है ।
पहले खिचड़ी पूरे परिवार के लिए पकती थी । समय ने करवट ली , आजकल सभी अपनी – अपनी खिचड़ी पकाने में लगे हुए हैं । जो भी हो खिचड़ी का अस्तित्व क़ायम है , एक हांडी में पके चाहे अलग – अलग हांडी में , खिचड़ी पक रही है और पकती भी रहनी चाहिए ।
पहले खिचड़ी दाल – चावल युक्त सीधी – सादी थी किन्तु जब से इसमें राजनीति की छौंक लगी है इसका स्वरूप कुछ और ही हो गया है । आज की खिचड़ी ने सियासी खिचड़ी का रूप ले लिया है । यह खिचड़ी चुनाव आते ही पकने लगती है । मिश्रण सही हो तो पक जाती है और सही नहीं हो तो हांडी को ही फोड़ देती है ।बीरबल की खिचड़ी भी तो खिचड़ी के इतिहास का एक हिस्सा है । खिचड़ी समता और समाजवाद की उद्घोषक है अतः यह कहना भी जरुरी है –
हर एक को अपनी थाली में खिचड़ी चाहिए ,
ज़नाब , सिर्फ अपने लिए ही इसे मत पकाइए ।

– नटवर पारीक

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