वैचारिकी- काश! हम गलत साबित हो..

जब कभी अपने आप को गलत साबित करने का मन खुद को बचाने का एकमात्र जरिया नज़र आता हो तब दुआएं दूर की आवाजें लगने लगती हैं। धर्म ,जाति,भाषा, परम्परा के साथ- साथ विवेक और विचार भी अल्पसंख्यक मानें जाएँ, तो संख्या के दम्भ में पनपे शोर के नीचे यह डर ही कामना बनकर जिंदा रहता है। बदलाव के विरुद्ध एक जगह खड़े रह जाने की पीड़ा इतिहास के पृष्ठों से बटोरी जा सकती है।
पांच हजार साल की सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करते- करते कब हम अपने आप से शर्मशार होने लगे? सचमुच, पता ही नहीं चला। सैकड़ो आक्रांता आये। समय से लड़े। जीते या हारे। पर हमें बदल नहीं पाए। हम जैसे थे वैसे रहे..। अलबत्ता पानी की तरह एक के बाद दूसरी संस्कृति की तरलता खुद-ब- खुद एक हो गई। हर माह की एकादशी से लेकर दूज, तीज, छठ, ग्यारहस, पूर्णिमा के में रोज़ा, रमजान, बैशाखी,क्षमावाणी पर्व मनाते चले गए। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम ही नहीं सदूर पार के उत्सव भी उसी तरह घुल गए जैसे समंदर में नदिया मिल कर खो सी जाती है। दिवाली, ईद, क्रिसमस, को धर्म से ज्यादा सरोकारों का उत्स मानते रहे। राजे- राजवाड़े, रियासतों, के युध्द हमारे भीतर को कलुषित नहीं कर पाए। 1857 की क्रांति को बहादुर शाह जफर ने नेतृत्व में लड़ते हुए ना लक्ष्मीबाई या तात्या टोपे को कम आंका और ना ही मंगल पांडे से उसका ईमान पूछा। असफाक और आजाद में कभी कोई फर्क नहीं लगा। समय समय पर अवसर और अतिवादियों ने जहर घोलने की कोशिश की। कुछ सफल हुए ,कुछ असफल हुए।पर हमारी जड़ो को नहीं उखाड़ पाए।
कालिदास, तुलसीदास, बच्चन महादेवी, अज्ञेय से लेकर अमीर खुसरो , मीर, दाग, गालिब, फैज, साहिर के धर्म का पता ही नहीं चला। कभी जान ही नहीं पाए कि जायसी, रहीम, रसखान की भक्ति हमारी शक्ति नहीं है। नूरजहां और लता मंगेशकर का गायिकी के अलावा भी कोई मजहब है। स्वतंत्र भारत मे कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था जिसे हमने धर्म के दायरे में कैद करके पढ़ा हो..।
*पर अब बदल रहा है। हम बदल रहे हैं। हमें देश को धर्म के पैमानों पर नापना आ गया है। अब आंदोलन को एक रंग के कपड़ो से पहचाना जाने लगा है। कविता के स्वरों में नारों की जुबान अच्छी लगने लगी है। संसद से लेकर सड़क तक आवाज को नाम की रोशनी में सुना जा रहा है।*
सचमुच समय बदल गया है। आज किसी जाकिर हुसैन, फकरूद्दीन अली अहमद या अबुल कलाम का राष्ट्रपति बनना सम्भव नहीं लगता। अब खय्याम कोई धर्मिक धुन नापाक हो सकती है। कोई रफी का गाया भजन हमारे धार्मिक विश्वाश को खंडित कर सकता है। अब कोई बिस्मल्ला खां काशी के घाट पर बैठ अपनी बांसुरी से गंगा को रिझा नहीं सकता,,,। हमें पता है कि कौन खान है..? कौन खेर है? अब ऐसे नायक अच्छे लगते हैं जो कपड़ो के रंग से आस्थाओं पर दाग लगा देते हैं। *आज नासिर या नासिरा होने पर आपको अपना प्रमाण देना है। गोपाल या गोडसे होने पर आप दोषमुक्त हो सकते हैं।*
यही नहीं, यदि आप जड़ो से जुड़े रहना चाहते हैं तो आपको उखाड़ फेंका जाएगा क्योंकि नई फसल को आप दूषित कर सकते हैं। आप गंगा जमुनी तहजीब का हवाला देकर *कबीर की जुबान बोलोगे तो आपको दफनाया या जलाया नहीं जाएगा, भीड़ द्वारा मारकर पटक दिया जाएगा।* भले ही आप विशुद्द सनातनी हिन्दू हो, क्या फर्क पड़ता है। वह तो गांधी भी था..। क्या हुआ..? धार्मिक कट्टरता ने उसे मार दिया..। लेकिन तब गांधी को मारकर बचाने वाले लोग थे..।आज ऐसा नहीं है। गांधी को नाटकबाज कहने वाले लोग लोकप्रिय हैं। गोडसे को हुतात्मा मानने वाले साधु साध्वियों की गिनती में गिने जा रहे हैं। उन्हें ऊंची कुर्सियां मिल रही हैं। *गांधी के शव पर पांव रखकर सत्ता शिखर पर पहुँचने के बाद उसका चश्मा दिखाकर चकमा दिया जा रहा है और उसकी लाठी से उन्हें ही डराया जा रहा है जो गांधी के रास्तो पर चलने की जिद कर रहे हैं।*
*सचमुच देश बदल रहा है..।* उम्मीद करनी चाहिए कि हम गलत साबित हो ..। एक बार फिर पता चले कि देश और हम कभी नहीं बदल सकते।

*रास बिहारी गौड़*

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