“ऐसी होती है माँ”

“ऐसे तो मोहब्बत में कमी होती है
माँ का एक दिन नहीं होता सदी होती है।”

यह क्या बात हुई कि जिस माँ ने हमें 9 महीने गर्भ में जगह दिया हम उसके प्यार को 1 दिन में ही समेटने चले।

मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि
माँ पर क्या-क्या लिखूँ?
माँ को कहाँ-कहाँ लिखूँ?
क्योंकि माँ शब्द जैसे ही मेरे कानों में प्रवेश करता है
वैसे ही हृदय अनेकों विचारों को लेकर शीघ्र गति से धड़कने लगता है।

मैं जब भी ब्रह्मांड के उस सर्वश्रेष्ठ रचयता निरंजन निराकार की अद्भुत, विवेकशील रचना उस माँ के संदर्भ में सोचता हूँ जिसकी ममता पर मोहित होकर समस्त ब्रह्मांड की सर्वश्रेष्ठ आकर्षक रचना जन्नत को भी माँ के क़दमों के नीचे रख दिया गया।
और उस निरंजन निराकार ने अपने गुणों और अपनी असीम शक्तियों का वर्णन करते हुए कहा कि “ऐ लोगों मैं तुम्हें 70 माँओं से भी ज़्यादा प्यार करने वाला हूँ।”
भला इससे अधिक और ऊंचा मक़ाम क्या होगा माँ का कि वह समस्त जीव-जंतुओं का पालनहार
हवाओं और साँसों पर अपनी क़ुदरत रखने वाला
निरंजन – निराकार अपनी महत्ता बताने के लिए
अवतारों, संतो, सम्राटों या पैगंबरों का उदाहरण न देकर माँ का उदाहरण देता है।

जब बात रचीयता की आ गई तो अब
हम स्वयं की रचना पर ग़ौर करें।
आखिर क्या था मैं?
सिर्फ मैं ही नहीं! बल्कि समूची मानव जाति क्या थी?
हर बात पर औरतों को अपने कदमों से आंकने वाला यह पुरुष प्रधान समाज क्या था?
कैसे हुई थी इस प्रधान समाज की रचना?
क्या हम में से किसी ने भी अपने वजूद अपने अस्तित्व पर कभी ग़ौर किया है?
नहीं किया!
क्यों नहीं किया?
क्योंकि अगर हम अपने वजूद पर ग़ौर कर लेते तो
आज किसी भी औरत से, नारी से, स्त्री से ऊँची आवाज़ में बात करने का साहस नहीं करते।
क्योंकि हमारा अस्तित्व, हमारा वजूद ही नज़रों को झुका देने वाला है।
जिसको लफ़्ज़ों में पिरोकर शायर कहता है-
“यह औरत का ही रुतबा है कि
तेरे वहशत के पानी को
बदन के सीप में रखकर
तुझे इंसाँ बनाती है।”

कौन है यह औरत जिसने हमें कीचड़ से कमल बनाया?
यह औरत है माँ।
जिसने अपने गर्भ में हमें जगह दिया
प्यार दिया
ख़ुद खाती रही पेट हमारा भरता रहा।

आख़िर कैसे लिखूं माँ की ममता को?
जब से हम इस संसार में आए हैं.. तब से हमने माँ को केवल दर्द ही दर्द दिया है।
गर्भ में थे तब दर्द दिया
जब संसार में आए तब दर्द दिया
ज़रा याद करो उन दिनों को जब हम दो-तीन साल के ही थे हम गूंगे थे
हमें दिखता तो सब था
हम सुनते तो सब थे
पर बोल नहीं सकते थे
तब हमारी गूंगी इशारों पर तड़पने और मचलने वाली माँ हमें भूख के एहसास से पहले ही अमृत रूपी दूध पिला दिया करती थी।
आज सदी की आधुनिकता और समय रफ्तार ने हमें बेशर्म बेहया और घमंडी बनाकर रख दिया है।
जिसकी झूठी शान – शौक़त के अंधकार में हमें माँ का प्यार और माँ की ममता नहीं दिखती है।

मैं यहाँ बात केवल इंसानों को जन्म देने वाली माँ की नहीं कर रहा हूँ !
बल्कि मैं यहां बात कर रहा माँ इस दुनिया के तमाम जीव- जंतुओं को जन्म देने वाली शक्ति की।
अगर हम अपने आसपास विचरण कर रहे जीव-जंतुओं पर ग़ौर करें तो हम देखते हैं की
चिड़िया अपने अंडे देने के समय को पास पाकर एक महफूज़ जगह ढूंढ लेती है
वहां एक सुरक्षित घोंसला बनाती है
और फिर उसमें अंडे देती है
उन अंडों को अपने शरीर की गर्मी देकर
चूजों के निकलने का इंतजार कर रही होती है
जब चूज़े निकल आते हैं तब अपने मुंह में दाना भरकर चूज़ों के मुंह में डालती है
जब मैं देखता हूँ कि मुर्गी के सारे चूजे खतरे को अपने आसपास देखकर मुर्गी के पंखों में, उसके ऊपर, नीचे घुस कर खुद को छिपा लेते हैं
तब मुझे लगता है कि मेरी मां ने भी मेरी ऐसी ही हिफाज़त की होगी।

मैं माँ की ऐसी ममता, प्यार, दुलार और पुत्र मोह को देखता हूँ तो मुझे बहुत हैरानी होती है कि
कैसे शहीद ए आज़म भगत सिंह को उनकी माँ ने फांसी के फंदे पर झूलने के लिए भेजा होगा?
कैसे शिवराम राजगुरु को उनकी माँ ने उनके प्राण इस देश की आज़ादी के लिए बलिदान करने के लिए भेजा होगा?
कैसे सुखदेव थापड़ को उनकी माँ ने इस देश की माटी में धूमिल होने के लिए भेजा होगा?
कैसे राम प्रसाद बिस्मिल को उनकी माँ ने अपने सीने से अलग किया होगा?
मुझे याद आती है अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ और उनकी माँ की बातचीत
जब अशफाकउल्लाह ख़ाँ देश की आजादी के लिए लड़ने निकले तब उनकी माँ ने उनसे कहा था-
“बेटा यह न कहना कि मेरे सामने कितनी मुश्किलें हैं बल्कि मुश्किलों से यह कहना कि देख मेरा ख़ुदा कितना बड़ा है।”

उन क्रांतिकारियों की माँओं ने कैसे रखा होगा अपने दिल पर पत्थर ज़रा सोच कर तो देखें!

क्या बीती होगी उन माँओं के दिलों पर जिनकी सन्तानें 1947 के विभाजन में दो मुल्कों में बंट कर रह गयी।
मैं यह मानता हूँ कि अगर बंटवारे का अधिकार एक माँ के हाथों में दिया होता तो आज भारत की यह अधूरी तस्वीर हमारे आँखों के सामने नहीं होती।

इसी घाव के भाव को स्प्ष्ट करते हुए ग़ज़ल को मेहबूब के ज़ुल्फ़ों की पेच से खींच कर माँ के क़दमों में लाने वाले उर्दू के बड़े अदीब जनाब-ए- मुनव्वर राणा कहते हैं कि-

“कोई सरहद नहीं होती, ये गलियारा नहीं होता।
ग़र माँ बीच में होती तो बंटवारा नहीं होता।।”

अतहर अहमद
7014928700
9314894220

error: Content is protected !!