वो रामगढ़ था ये लालगढ़ ….!!

तारकेश कुमार ओझा
यादों के जनरल स्टोर में कुछ स्मृतियां स्पैम फोल्डर में पड़े रह कर समय के साथ अपने – आप डिलीट हो जाती है , लेकिन कुछ यादें बेताल की तरह हमेशा सिर पर सवार रहती है , मानो चीख – चीख कर कह रही हो मेरा जिक्र किए बगैर तुम्हारी जिंदगी की किताब पूरी नहीं हो सकती। किस्सा 2008 के मध्य का है . तब मेरे ही जिले पश्चिम मेदिनीपुर के जंगल महल के दुर्गम लालगढ़ में माओवादियों का दुस्साहस चरम पर था . अपने शीर्ष कमांडर किशनजी की तमाम विध्वंसात्मक कारगुजारियों के बीच माओवादयों ने स्थानीय थाने पर ताला जड़ रखा था . भारी उहापोह के बीच वहां पुलिस और अर्ध सैनिक बलों की संयुक्त फोर्स ने लालगढ़ मे अॉपरेशन शुरू किया . करीब छह किमी लंबे झिटका जंगल में कोबरा वाहिनी के प्रवेश के साथ अभियान शुरू हुआ . इसके बाद सैकड़ों की संख्या में सुरक्षा जवानों के साथ हम शहर को लौटने लगे . दर्जनों गाड़ियों में सवार सुरक्षा जवान लैंडमाइंस से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे . दो बाइकों में सवार हम चार पत्रकार कुछ ज्यादा ही जोश में शहर की ओर बढ़ रहे थे. स्टोरी फाइल करने की हड़बड़ी में हमें अंदाजा भी नहीं था कि आगे भारी विपत्ति हमारे इंतजार में खड़ी है . पिंडराकुली के नजदीक अचानक जोर के धमाके के साथ सबसे आगे चल रहा पुलिस महकमे का सफेद रंग का टाटा सूमो खड्ड में जा धंसा और बिल्कुल फिल्मी अंदाज में गोलियों की तडतड़ाहट के साथ यूं भगदड़ मची कि शोले फिल्म का रामगढ़ याद आ गया . वैसे एक रामगढ़ लालगढ़ में भी है , जो घटनास्थल से कुछ ही दूरी पर था . अचानक हुई गोलियाँ की बरसात से सुरक्षा जवानों ने तो पोजीशन लेकर जवाबी फायरिंग शुरू कर दी . लेकिन हम कलमकार क्या करें समझ में नहीं आ रहा था ….अचानक कहीं से आवाज आई खेतों में लेट जाइए . हमने ऐसा ही किया . दोनों ओर से बराबर गोलियाँ चलती रही . मौत हमारे सिर पर खड़ी थी कि क्योंकि शाम होने को था . अपनी मांद में लाशें बिछाना माओवादियों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी . फिर अचानक जाने क्या हुआ ….गोलियों की आवाजें थम गई . शाम के हल्के अंधियारे के बीच फोर्स का काफ़िला फिर मुख्यालय लौटने की तैयारियों में जुटा . अपडेट के लिए हम अभियान का नेतृत्व कर रहे वरीय पुलिस अधिकारी के पास पहुंचे . हमें देखते ही अधिकारी चीखा …प्रेस वाले पुलिस की गाडियों से दूर रहें …. आप लोग बिलकुल पीछे जाइए ….. घने जंगल में अंधेरे में रास्ता तलाशते हुए जैसे – तैसे शहर लौटे और ड्यूटी पूरी की . दूसरे दिन अखबारों में मुठभेड़ की खबर छपी थी , जिसमें राज्य सरकार के आला अधिकारी का बयान भी था जिसमें माओवाद प्रभावित इलाकों में मीडिया कर्मियों से पुलिस की गाड़ी के पीछे नहीं चलने की अपील की गई थी , बाद के दौरों में हमने सावधानी बरतने की भरसक कोशिश की …. इस तरह कभी न भूलने वाला यह वाकया जीवन का सबक बन गया .

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं। संपर्कः 9434453934, 9635221463

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