मैं मजदूर नहीं मगर बेहद मजबूर हूँ

ना कह सकता हूँ ना चुप रह सकता हूँ
कैसे बताऊँ कि मैं क्या-क्या सहता हूँ

बच्चों के भविष्य में चिंतित ये दिल है
हाथ में दूध,पानी, बिजली का बिल है

हर चीज खरीद कर लाता हूँ
टैक्स भी सब पर चुकाता हूँ
मध्यमवर्गीय आदमी हूँ जनाब
अपने सपनों को ही खाता हूँ

ना कटोरा ले सड़कों पर जा सकता हूँ
ना बैठ किसी लंगर में खा सकता हूँ

कल नौकरी थी पर कल का पता नहीं
उधारी और पेंशन पर ज़िंदगी चल रही

मैं नही जानता दो वक्त़ सबको
खिला पाऊँगा भी या नहीं
मैं नही जानता माँ पापा से नज़रे
मिला पाऊँगा भी या नहीं

जरूरी हर कर्ज के किश्त चुका रहा हूँ
यूं लगता है किश्तों मे ही जिए जा रहा हूँ

मेरे वास्ते कोई स्कीम नहीं, परवाह नहीं
हर साँस मेरी जीने की कीमत चुका रही

उठाई थी ज़िम्मेदारी जिन कँधों पर
वो कंधे थकने से लगे हैं
रास्ते जितने भी थे बनाए अब तक
ओझल नैनों से हो रहे हैं

रहने को घर है मगर राशन नही है शेष
जा कर किससे कहूँ मन के सारे क्लेश

टुकडे-टुकड़े हर रिश्ते मे बँटकर
टुकड़ों में मैं जिए जा रहा हूँ
सबकी आस है मुझ से ही बँधी
उस आस मे मैं बंधा जा रहा हूँ

मैं अपनी ही ख़्वाहिशों से हो रहा दूर हूँ
मजदूर तो नही हूँ मगर बेहद मजबूर हूँ।

चिराग मुदगल
अजमेर

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