ऐसे देते थे स्कूलों में सजा !

हास्य-व्यंग्य

शिव शंकर गोयल
पचास के दशक में स्कूलों एवं मदरसों में विद्यार्थियों द्वारा कसूर किए जाने पर मास्टर उन्हें तरह तरह के दंड देते थे. हालांकि अधिकांश में अब दंड देने की बातें ईतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं.
टांगाटोली:- जो विद्यार्थी पाठशाला में बिना बतायें आदतन गैर हाजिर होता था उसे लाने के लिए मास्‘साब पांच बच्चों का एक दल भेजते थे. वह दल जबरदस्ती उस लडकें के चारों हाथ-पांवों को पकडकर उसे झुलाते हुए स्कूल लाता था. क्या मजाल जो लडके के माता-पिता कुछ बोल जाय. इस टुकडी के नायक के पास कसूरवार लडकें का बस्ता होता था. पाठशालामें आगे की सजा मास्साब देते थे.
मुर्गा-मुर्गी:- यह दंड बहुत आम था. छोटा मोटा कोई भी कसूर हो विद्यार्थी को मुर्गा बना दिया जाता था. इसके अनुसार उकडू बैठकर दोनों हाथों को घुटनों के नीचे से निकालकर अपने कान पकडने होते थे. कभी कभी कसूर की डिग्री ज्यादा होने पर मुर्गा बनाने के बाद पीठ पर कोई किताब अथवा स्लेट रखकर उसे अधर कर दिया जाता था. किताब अथवा स्लेट के नीचे गिर जाने पर दंड की अवधि बढा दी जाती थी. इस सजा के भुक्तभोगी बताते है कि यह अनुभव बादमें कॉलेज में रेंगिग के समय उनके खूब काम आया.
उन दिनों सहशिक्षा तो थी नही इसलिए पता नही कि लडकियों को मुर्गा बनाते थे या मुर्गी बहरहाल अर्से पहले कि एक बात याद आरही है. एक बार मेरी पोती रोती हुई जब स्कूल से घर लौटी तो मैंने उससे इसका कारण पूछा तो वह बोली आज मैंने मैडम को मुर्गी कह दिया था इसलिए उसने मुझे मारा. इस पर मैंने उससे कहा कि तूने उसे मुर्गी क्यों कहा तो वह बोली वह हर ‘टैस्ट” में मुझे अन्डा देती हैं तब मैं और क्या कहतीं.

लेटलतीफ:- यह सजा हमारी स्कूल में सुबह देरी से पहुंचने पर दी जाती थी. देर से आनेवाले विद्यार्थियों को स्कूल के गेट के बाहर ही रोककर एक मास्साब उन्हें प्लेटफार्म पर लाते जिसके सामने पहले से ही स्कूल के सारे बच्चें सामूहिक प्रार्थना के लिए खडे हुए होते थे. कुछ देर बाद हमारे हैड मास्साब वहां आते और केन से उनके हाथों पर मारते थे. घेरकर लाने वाले मास्साब हिंगलिश के विद्वान थे और इसलिए अपने आपको हैडपंडित लिखते थे. चूंकि वह अहिंसा में विश्वास करते थे अतः हैडमास्टर साहब द्वारा बच्चों को मारते समय वह सिर्फ है.मा.साहब को उकसाने का काम करते थे, खुद मारपीट में हिस्सा नही लेते थे. जानकार लोग बताते है कि आदतन लेट आने वाले अधिकांश लडकें आगे चलकर पुलीस में भर्ती हो गए एवं वहां काफी कामयाब भी हुए उन्हें सिर्फ गालियों का ‘एडवांस कम्प्यूटराइज्ड” कोर्स और करना पडा.
हवाई जहाज:- वैज्ञानिक भले ही दावा करते रहे कि हवाई जहाज का आविष्कार राईट बंधुओं ने किया था लेकिन हमारे मास्साब तो वर्षों पहले से चली आरही इस परम्परा में बच्चों को दंड देते समय उन्हें हवाई जहाज बनाया करते थे. इस सजा में दोनों हाथों को दांये-बांयें फैलाकर और एक पांव को जमीन से उपर पीछे की तरफ रखना पडता था. सजा की अवधि मास्साब पर निर्भर होती थी. मेरे एक सहपाठी को अक्सर ‘हवाई जहाज बनने की सजा मिलती थी और मजे की बात देखिए वही सहपाठी बादमें नौकरी के दौरान मुझे जयपुर में हमारे विभाग में ही कार्यरत मिल गया. वहां एक बार कर्मचारी यूनियन के चुनाव हुए और वह भी किसी पद के लिए खडा हुआ. संयोग की बात देखिये कि उसने अपना चुनाव चिन्ह हवाई जहाज ही रखा और वह जीत गया. तबसे आज तक उसे लोग हवाई जहाज के नाम से ही पुकारते हैं. वह भी सुनकर खुश होता है. सजा मानो तो सजा और मजा मानो तो मजा !
उबाना अर्थातखडें रहने की सजा:- छोटें मोटें कसूर पर यह सजा आम थी. कम कसूर हुआ तो फर्श पर और नही तो बैंच पर खडा कर दिया जाता था. कभी कभी इस सजा में हाथों को भी उपर उठाना पडता था. बादमें किसी ‘एल्यूमनी- पुराने साथियों का मिलन समारोह-में मिलने पर उनमें से कइयों ने बताया कि जैसे बचपन का खाया-पीया बुढापे में काम आता है वैसे ही खडे रहने का वह अनुभव उनकी जिन्दगी में बाद में बहुत काम आया क्योंकि आए दिन राशन-कैरोसीन की दुकान पर, बिजली-पानी का बिल जमा कराते वक्त, रोजगार दफ्तर के बाहर दिन दिन भर लाईन में खडा रहना पडता था.
बाहर से समर्थन:- लोगबाग बामपंथियों को ख्वामख्वाह बदनाम करते है कि सन 2004 में उन्होंने मनमोहनसिंह की सरकार को बाहर से समर्थन देकर कोई नई बात की. वैसे यह फार्मूला तो वर्षों पहले हमारी स्कूल में आजमाया जाता था. एक बार की बात है कि हमारें हिन्दी टीचर ने हमें ‘चुप रहने के लाभ हानियां विषय पर निबंध लिखने को दिया. हम सब उसी पर बहस कर रहे थे. क्लास में बहुत शोर हो रहा था. अचानक हमारे वही टीचर क्लास में आगए नतीजतन उन्होंने बहुतसे बच्चों को क्लास से बाहर खडा करके कहा कि मैं जो पढा रहा हूं तुम लोग बाहर से ही सुनो. संयोग से हमारे हैड मास्साब उधर से निकल रहे थे. जब उन्होंने इतने बच्चों को क्लास से बाहर देखा तो पूछा कि क्या बात है अंदर टीचर पढा रहा है और तुम लोग बाहर खडे हो तो हमने उन्हें सारा वाकया बताते हुए कहा कि हम बाहर से ही पढ रहे हैं. इसी तरह अखाडे में जब दो पहलवान कुश्ती लड रहे होते तो हम उन्हें बाहर से खूब समर्थन देते थे ‘अरे ! देख क्या रहा है धोबी पछाड दांव लगा, कोई कहता अरे ! गुद्धी पकडले इत्यादि. बाहरवालोंको क्या मालुम कि अंदरवालों पर क्या बीत रही है.
चूंटया-चिकोटी-:-यह सजा वैसे तो ‘एक्यूप्रेषर की ही एक प्रक्रिया होती थी लेकिन मास्साब अधिक जोश में होते तो यह ‘एक्यूपंचर में बदल जाती थी. इसके ‘अप्लाई करते ही विद्यार्थी के खून की लाल एवं सफेद दोनों तरह की टिकियां सक्रिय होजाती थी. हालांकि विशेषज्ञों का कहना था कि इससे उनकी संख्या-प्लेटलैटकाउंट-कम ज्यादा नही होती थी. भुक्तभोगी बताते है कि यह सजा जांघ पर ज्यादा कारगर रहती है. राम जाने कहां तक सही है.
उठक-बैठक:- कसरत और प्राणायाम वगैरह करानेवालों का दावा था कि यह उनके सूक्ष्म व्यायाम का ही हिस्सा था लेकिन बिना बताये स्कूलवालों ने इसे अपने ‘सजा कार्यक्रम में शामिल कर लिया. यह सजा कान पकडकर और बिना कान पकडे दोनों तरह से दी जाती थी.
चन्द्रभान मार:- इस मार पर इस नामके मास्साब का कॉपीराईट अधिकार था और यह उनके नाम से ही जानी जाती थी. इसके अनुसार मास्साब बारी बारी से एक धूंसा पीठ पर और एक धप्प-थाप-सिर के पीछे रिदम से यानि संगीत की लय के साथ मारते थे. क्या मजाल जो कोई स्टैप बीच में छूट जाय. संगीत और वीर रस का मेल वही देखने में आता था.
मैं इस मार का भुक्तभोगी हूं. एक बार की बात है कामर्स की कक्षा थी. मास्’साब ने मुझसे पूछा अच्छा बताओ तुम्हारे पास दस रू. है. उसमें से पांच रू. तुम रमेश को दे देते हो तो अपने बहीखाते में इसकी एन्ट्री कैसे करोगे. मैंने खडे होकर कहा सर ! मेरे पास दस रू. है ही कहां जो उसे दूंगा, लिखने की बात तो बाद में आएगी. बस फिर क्या था मुझे उनकी मार का मजा चखना पडा जो मुझे आज तक याद हैं.
हवाई स्कूटर की सवारी:- जैसे संविधान में संशोधन होते रहते है वैसेही इन सजाओं में भी समय समय पर संशोधन होते रहे. जब मार्केट में स्कूटर आगए तो मास्टर सजा के रूप में ‘हवाई स्कूटर पर बैठाने लगे. इसमें सब कुछ वैसा ही होता था गोया आप स्कूटर पर बैठे हो हां आपके नीचे स्कूटर ही नही होता था. इसमें किसी ‘आरटीओ से लायसैंस लेने की आवश्कता नही होती थी ताकि आपको उन्हें कुछ ‘सुविधा शुल्क देना पडें. चालान की भी गुंजाइश नही के बराबर थी इसलिए पुलीस की भी ‘इनकम कहां से होती.
हवाई कुर्सी:- जैसे अकबर के समय बीरबल ने ‘हवा महल बनाया था शेखचिल्ली ने अपना ‘हवाई परिवार गढा था. कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ का हवाई नारा दिया था और बीजेपी ने ‘समृध्द भारत बनाया था उसी तर्ज पर हमारे मास्साब शरारत करनेवालों को ‘हवाई कुर्सी पर बैठाते थे. यह सजा भी हवाई स्कूटर के माफिक ही होती थी जिसमे काल्पनिक कुर्सी पर विद्यार्थी को बैठाया जाता था. इसका मकसद यह रहा होगा कि आगे चलकर अगर कही नौकरी में अफसर होजाय और मलाईदार पोस्ट-कुर्सी-ना मिले या राजनीति में रहते चुनाव में जनता घर बैठा दे तो किसी तरह का अफसोस ना रहे और कुछ साल इंतजार करना पडे तो अखरे नही.
नृत्य मुद्रा:- वैसेतो कुचिपुडी, मणिपुरी, कत्थक, गरबा, भंगडा, घूमर, लावणी इत्यादि कई नृत्य होते है लेकिन जिस मास्साब को उसकी नॉलेज हो या वक्त पर याद आजाय उसी नाच की मुद्रा बनाकर स्टूडेंट को सजा दे दी जाती थी. समय की कोई सीमा नही. कई बार तो शिवजी और भस्मासुर की कथा में जिस मोहिनी नृत्य का जिक्र है वह भी करना पडता था जिसमें नाचते नाचते अंत में वह दैत्य स्वयं ही अपने सिर पर हाथ रख लेता है और भस्म हो जाता हैं. जिन साथियों को यह सजा हुई उन्हें जब जब भी किसी जुलूस की झांकी में हिस्सा लेना पडा या बारात में जाने का अवसर मिला तो वहां बैन्ड की धुन पर नाचने में उन्हें कोई दिक्कत नही आई.
डंडा पिटाई:- यह सजा कभी कभार ही दी जाती थी. इसमें डंडों या बेंत से बुरी तरह पिटाई की जाती थी. एक बार की बात है कि एक शायर का यह शेर हमारी क्लास के एक लडके ने कही से सुन लिया. ‘बीडी में भी अजब गुफ्तगू है पीओ तो कश है और फूंको तो फूं है. वह कही से हनुमान छाप बीडी का टुकडा उठा लाया और छिपकर पीने लगा. मास्साब को इसकी खबर लग गई. बस फिर क्या था. उसे इस सजा का कहर सहना पडा. बताते है कि बडा होकर वह घंटाघर पुलीस चैकी का एसएचओ बना और आम अपराधियों से इसी तरह अपना हिसाब चुकता करता था.
कान उमेठना, पीछे से हाथ मरोडना:- इसमें मास्साब हाथ को पीठ की तरफ लेजाकर उसे मरोडते थे.
उत्तराधिकार .कुछ बच्चों के मां-बाप क्लास मॉनीटर बनने का हक वंश परम्परा के आधार पर जताते थे जैसे कई जातिगत पंचायतों या खेप में होता था. उनका कहना था कि जब हमारे पिताजी पढते थे तो वह मॉनीटर थे फिर हम पढें तो हम बने तो स्वाभाविक है कि अब हमारा लडका मॉनीटर बनेगा. उनका दावा था कि विश्व के ‘सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में यह क्रम छः-सात पीढी तक तो चलना ही चाहिए.
कभी कभी कुछ अमीर बच्चों के मां-बाप स्कूल में आकर मास्साब को कहते थे कि हमारा लडका कभी गलती नही करता फिर भी खुदा न खास्ता कोई गलती होजाय तो उसे सजा देने की बजाय उसके पास बैठनेवाले बच्चें को सजा दी जाय ताकि दशहत के मारे हमारा लाल गलती ना करे.
पुनश्च. हो सकता है कि उपरोक्त दंड में मुझसे कोई छूट गया हो और आपको उसका अनुभव हो तो कृपया बताने का कष्ट करें ताकि अन्य भी उसका लाभ उठा सकें

ई. शिव शंकर गोयल

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