राजस्थान के प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी कवि केसरी सिंह बारहठ

राजस्थान में आजादी की अलख जगाने वाले कवियों में केसरी सिंह बारहठ का अपना विशेष स्थान है। जहाँ अन्य कवियों ने अपनी वाणी और लेखनी से वीरता का वर्णन ही किया वहीं वीर केसरी सिंह बारहठ ने उस वीरता को साक्षात् अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया। देशप्रेम के गायक दूसरे कवियों की तरह उन्होंने केवल देशभक्ति और आजादी के गीत ही नहीं गाये वरन् अपने को और अपने सारे परिवार को देश के स्वतंत्र्ता संग्राम में झोंककर वे स्वयं मुक्ति की मशाल बन गये। यहाँ तक कि उन्होंने अपने इकलौते बेटे प्रताप को भी राष्ट्र की बलिवेदी पर न्यौछावर कर दिया। बारहठ केसरी सिंह आजादी के ऐसे ही दीवाने और राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक थे जिनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों से उल्लिखित है।
केसरी सिंह का जन्म २१ नवम्बर सन् १८७२ को उनके पैतृक जागीर के गाँव देवपुरा (मेवाड का शाहपुरा राज्य) में एक यशस्वी चारण कुल में हुआ। उनके पिता ठाकुर *ष्ण सिंह सौदा डिंगल और संस्*त के प्रकाण्ड विद्वान् थे। महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण रचित �वंशभास्कर� की टीका तथा राजस्थान का अपूर्व इतिहास उनकी विद्वता के प्रमाण हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार तथा �वीर विनोद� के लेखक कविराजा श्यामलदास व ठाकुर *ष्ण सिंह के मामा थे। इस प्रकार विद्या प्रेम और कविता के संस्कार केसरी सिंह बारहठ को अपने पितृकुल और मातृकुल दोनों से ही मिले थे।
ठाकुर *ष्ण सिंह के अपने समकालीन नरेशों – महाराणा सज्जन सिंह व फतह सिंह उदयपुर, जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह और कर्नल सर प्रताप से आत्मीय सम्बन्ध थे और उन पर विशेष *पा थी। शाहपुरा के तो वे पोलपात थे ही जिस उपलक्ष्य में उन्हें ताजीम और जागीर मिली हुई थी। लेकिन केसरी सिंह के बाल्यकाल में एक अनहोनी हो गई। जन्म के एक माह बाद ही माँ का साया उनके सिर से उठ गया तथा दादी शृंगार कंवर ने बालक केसरी सिंह का पालन पोषण किया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गुरु महन्त सीताराम जी की देखरेख में शाहपुरा में तथा औपचारिक शिक्षा चारण पाठशाला उदयपुर में हुई। इस अवधि में वे महर्षि दयानन्द सरस्वती के सम्फ में आये तथा उनके व्यक्तित्व एवं विचारों से बहुत प्रेरणा मिली। केसरी सिंह बचपन से ही बहुत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के थे। उनमें सीखने की बहुत लगन थी। अपनी इस ज्ञान पिपासा से वे जल्दी ही अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और बंगला भाषा में निपुण हो गए थे। संस्*त के अलावा गणित और ज्योतिष का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान था।
केसरी सिंह बारहठ में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। स्वातंत्र््य प्रेम उनके मन में बाल्यकाल से ही हिलोरें ले रहा था। देश की पराधीनता से वे मन ही मन व्यथित थे। अंग्रेजी हुकूमत उन्हें बिलकुल नहीं सुहाती थी। सन् १८९१ में वे महाराणा फतह सिंह की सेवा में आये तभी से उन्होंने देखा कि पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स का मेवाड के राजकार्य में हस्तक्षेप निरन्तर बढता जा रहा था। ऐसे समय में केसरी सिंह बारहठ ने राजपूताना के क्षत्र्यि नरेशों व जागीरदारों को जो अपने को स्वतंत्र्ता का प्रहरी और मायड भूमि के रक्षक समझते थे तथा ऐशो आराम एवं भोग विलास में डूबे हुए थे, नींद से जगाने और कर्त्तव्य बोध का कार्य किया। यथा –
जग रखवाला जेरहया, विरदाला घर बींद ।
ताला मुँह जडया तिके, नींदाला बस नींद ।।
वीर केसरी सिंह बारहठ ने समकालीन क्षत्र्यि नरेशों और सामन्तों को वीर रस से ओतप्रोत अपनी कविताओं और दोहों द्वारा प्रबोधित एवं प्रताडत कर उनमें नवचेतना का संचार किया। उनके द्वारा देश को स्वतंत्र् कराने का आह्वान और शंखनाद करने से अंग्रेजी हुकूमत उनसे कुपित हो गयी। वीर केसरी सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत की प्रसन्नता, अप्रसन्नता की परवाह न करते हुए स्वयं तो अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का बीडा उठाया ही साथ ही अपनी पत्नी माणक कंवर,*पुत्र् प्रताप, भाई जोरावर सिंह, बेटी चन्द्रमणि और दामाद ईश्वरदान सहित परिवार के सभी सदस्यों को स्वतंत्र्ता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल कर दिया। इस अंग्रेज विरोधी मुहिम को ब्रिटिश हुकूमत ने राजद्रोह के रूप में लिया। केसरी सिंह तथा उनके परिवार पर कष्टों का पहाड टूट पडा। शाहपुरा की उनकी जागीर जब्त कर ली गई। परिवार के सदस्यों को झूठे मुकदमे लगाकर जेल में बन्द कर दिया गया तथा अनेक प्रकार की यातनाएँ दी गईं। उनके स्वयं के शब्दों में –
विपदा घन सिर पर घुटे, उठै सक्ल आधार ।
ग्राम धाम सब ही लुटे, बिछुटे प्रिय परिवार ।।
कवि केसरी सिंह ने अंग्रेजों के दमनचक्र की तनिक भी परवाह नहीं की बल्कि इससे उनके अन्तस् में धधकती स्वतंत्र्ता की लौ और भी प्रचण्ड हो उठी। ब्रिटिश हुकूमत को भारतभूमि से अलविदा करना उनके जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य बन गया। केसरी सिंह बारहठ को सर्वाधिक प्रसिद्धि उस घटना से मिली जब फरवरी सन् १९०३ में तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर प्रसिद्ध दिल्ली दरबार का आयोजन किया। इसमें शामिल होने के लिए देश भर के सारे रजवाडों के राजाओं के नाम फरमान जारी किया गया। उदयपुर के महाराणा फतह*सिंह भी इस दरबार में शामिल होने के लिए तैयार हो गये। उन्हें इस आयोजन में भाग लेने से विरत करने के लिए कुछ राष्ट्रीय विचारधारा वाले राजपूत सरदार प्रमुखतः राव गोपाल*सिंह खरवा, ठाकुर भूर*सिंह मलसीसर, ठाकुर कर्ण*सिंह जोबनेर तथा बारहठ केसरी सिंह इत्यादि जयपुर स्थित मलसीसर के डेरे पर एकत्र् हुए तथा आपसी विचार विमर्श के बाद केसरी सिंह बारहठ ने महाराणा फतेह*सिंह को सम्बोधित कर कुछ सोरठे लिख भेजे जो इतिहास में �चेतावणी रा चूंगटिया� नाम से प्रसिद्ध हैं। इन सोरठों में हिन्दुआँ-सूरज कहलाने वाले मेवाड के महाराणा को स्वतंत्र्ता और स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में मेवाड राज्य की छवि तथा उनके कुल गौरव की याद दिलायी जिससे महाराणा का सुप्त गौरव और स्वाभिमान जाग उठा।
पग पग भम्या पहाड धरा छोड राख्यो धरम ।
महाराणा मेवाड हिरदै बसिया हिन्द रै ।।
पहाडों और वनों में दर दर की ठोकरें खाकर भी जिन्होंने अपने धर्म और स्वतंत्र्ता को सदा अक्षुण्ण रखा वे महाराणा मेवाड इसीलिए देशवासियों (भारत) के हृदय में बस गये।
सिर झुकिया सहशाह, सींहासण जिण साम्हने ।
रलणो पंगतशह फाबै किम तोने फता ।।
जिस मेवाड राजसिंहासन के सामने बडे-बडे राजाओं के सिर झुके हैं उसके अधिपति होते हुए हे फतेह*सिंह अधीनता स्वीकार करने के आदी अन्य राजाओं की पंक्ति में उनके साथ आसन ग्रहण करना तुम्हें कैसे शोभा देगा*?
सकल चढावे सीस दान धरम जिण रो दियो ।
सो खिताब बखसीस, लेवण किम ललचावसी ।।
जिसके दिये हुए धर्म संयुक्त दान को सब लोग प्रसन्न होकर सिर आँखों पर चढाते हैं, वह हिन्दूपति महाराणा ब्रिटिश हुकूमत से खिताबों की बख्शीश लेने हेतु कैसे लालायित होगा।
देखेला हिंदवाण, निज सूरज दिस नेह सूं ।
पण तारा परमाण निरख निसासा न्हाकसी ।।
सब देशवासी अपने महाराणा को जो हिन्दुआँ सूरज कहलाते हैं, को स्नेह और आत्मीयता से तो देखेंगे पर वह एक तारे (स्टार ऑफ इण्डिया) की उपाधि से विभूषित होकर प्रजा के सम्मुख आयेंगे तो लोग परिताप के निःश्वास छोडेंगे।
देखे अंजस दीह, मुलकेलो मन ही मना ।
दम्भी गढ दिल्लीह सीस नमतां सीसवद ।।
हे सीसोदिया ! आपको अपने सामने शीश नवाते हुए देखकर दिल्ली का गढ और उसके अधिपति (अंग्रेज) अहंकार की तुष्टि होते देख मन ही मन प्रसन्न होंगे। आप पर मुस्कुरायेंगे।
घण घलिया घमसांण राण सदा रहिया निडर ।
पेखंता फुरमाण हलचल किम फतमल हुवै ।।
मेवाड की धरती पर एक से एक भीषण युद्ध लडे गये, लेकिन महाराणा सदैव निर्भय रहे। लेकिन हे फतेह*सिंह आज एक शाही फरमान देखकर इतनी हलचल कैसे मच गयी।
गिरद गजां घमसाण, नहचै घरमाई नहीं ।
मावे किम महाराण, गज दोसैरा गिरद में ।।
युद्धस्थल पर जिसके रणोन्मत्त हाथियों के पैरों से उडी धूल आसमान में इतना आच्छादित हो जाती थी उसमें नहीं समा पाती थी। आज वही महाराणा दिल्ली में उनके लिए निर्धारित दो सौ गज के क्षेत्र् में कैसे समायेगा*?
ओरां ने आसान हाकां हरवल हालणो ।
किम हालै कुलराण, हरवल साहां हांकिया ।।
और राजाओं के लिए जो शाही सवारी के साथ कदम बढाते हुए चलना कोई नयी बात नहीं होगी पर कुल परम्परा का निर्वाह करने वाले महाराणा आपसे यह कैसे होगा। आफ पूर्वजों ने तो शाही सवारियों को ही खदेड दिया था।
नरियँद सह नजराण, झुक करसी सरसी जिकाँ । पसरैलो किम पाण, पाण छतां थारो फता !
जिनके लिए सहज है या जिनकी आदत है वे सब राजा लोग तो झुक झुक कर नजराने करेंगे, क्योंकि यह उनकी कुल परम्परा रही है। परन्तु हे महाराणा फतह*सिंह ! हाथ में तलवार होते हुए भी आपका हाथ नजराने के लिए कैसे फैलेगा ?
अंत बेर आखीह, पातल जे बातां पहल ।
राणा सह राखीह, जिण री साखी सिर जटा ।।
महाराणा प्रताप के अंतिम वचनों और उनकी इच्छा को अब तक सभी महाराणाओं ने निभाया है उसका पालन किया है इसके साक्षी आफ सिर के बाल (जटाएँ) हैं।
कठिण जमानो कौल, बांधै नर हिम्मत बिना ।
वीरां हंदो बोल, पातल सांगे पेखियो ।।
समय खराब है या जमाना बडा कठिन है, इस वाक्य से तो हिम्मतविहीन और कमजोर व्यक्ति अपना सहारा ढूँढते हैं। वीर वचनों और संकल्पों को अपने हृदय में धारण करने वाले राणा सांगा और प्रताप जैसे महानायक नहीं अर्थात् वे तो समय और युग की दिशा निर्धारित करते हैं।
अब लग सारां आस, राण रीत कुल राखसी ।
रहो स्हाय सुखरास, एकलिंग प्रभु आप रै ।।
अब तक भी सब लोगों को यही आशा है कि महाराणा अपनी कुल परम्परा की रक्षा करेंगे। सुख और समृद्धि देने वाले भगवान एकलिंग सदैव आपकी सहायता करें।
मान मोद सीसोद राजनीति बल राखणो ।
गवरमिन्ट री गोद, फल मीठा दीठा फता ।।
यह सच है कि अपनी प्रतिष्ठा और यश को राजनीति के बल से कायम रखना चाहिए। हे फतह*सिंह ! क्या इस अंग्रेज सरकार की शरण में जाने से कभी मीठे फल पा सकोगे ?
महाराणा फतह*सिंह दिल्ली दरबार में शामिल होने के लिए अपनी स्पेशल ट्रेन से उदयपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुके थे। अजमेर के पास सुरेरी रेल्वे स्टेशन पर ये सोरठे विशेष दूत के हाथों महाराणा फतेह*सिंह को दिये गये। महाराणा पर इन दोहों का चामत्कारिक असर हुआ। चलती रेलगाडी में ही उन्होंने दिल्ली दरबार में जाने का अपना इरादा बदल दिया। महाराणा फतह*सिंह का सोया स्वाभिमान और आत्मगौरव जाग उठा। मेवाड के स्वर्णिम अतीत को याद कर वे रोमांचित हो उठे। उनमें नया जोश और ताकत आ गयी। उनकी स्पेशल ट्रेन दिल्ली पहुँची पर महाराणा फतेह*सिंह लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना वापस उदयपुर लौट आये। दिल्ली ददरबार में उनके बैठने के लिए निर्धारित सीट खाली ही रही। महाराणा फतह*सिंह पर केसरी सिंह बारहठ द्वारा लिखित चेतावनी के चूंगट्यों (सोरठों) का जो विलक्षण और चामत्कारिक अवसर पडा उससे देश के इतिहास के पृष्ठ आलोकित हैं।
इस घटना के बाद तो केसरी सिंह बारहठ ने स्वयं को और अपने सारे परिवार को देश के स्वतंत्र्ता आन्दोलन में झोंक दिया। देश के शीर्ष क्रान्तिकारियों रास बिहारी बोस, लाला हरदयाल, श्यामजी *ष्ण वर्मा, राव गोपाल*सिंह खरवा इत्यादि के साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन सभी का एक ही ध्येय था सशस्त्र् क्रान्ति द्वारा मातृभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया जाए। केसरी सिंह की देश के स्वतंत्र्ता संघर्ष में बढती हुई गतिविधियों और अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को भडकाने और षड्यंत्र् रचने के अभियोग में उन्हें मार्च १९१४ ई. में गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। केसरी सिंह और अन्य मुल्जिमों के बचाव पक्ष की पैरवी लखनऊ के प्रसिद्ध बैरिस्टर नवाब हामिद अली खान ने की। बैरिस्टर नवाब हामिद अली खान ने स्पेशल अदालत में दिनांक २ सितम्बर १९१४ को मुल्जिमों के बचाव पक्ष की ओर से अपनी बहस समाप्त करने के बाद भरी अदालत में मुल्जिम केसरी सिंह की देशभक्ति पर एक नज्म पढी जो कि एक असाधारण घटना थी। यह नज्म देश की आजादी के इतिहास में हिन्दू मुस्लिम एकता की अनूठी मिसाल है*-
यह इरशादे अदालत है उठो तुम बहस को हामिद
निगाहें मुल्जिमों की भी मगर कुछ तुमसे कहती है ।

वो मुल्जिम उम्र जिसकी देश की खिदमत में गुजरी है ।
वो मुल्जिम पानी होकर हड्डियां अब जिसकी बहती है ।।
वो मुल्जिम केसरी जो जां ओ दिल से देश का हामी
वो जिसकी खूबियां अखलाक का दम भरती हैं ।।
स्पेशल जज कोटा द्वारा ६ अक्टूबर १९१४ को केसरी सिंह बारहठ एवं अन्य को बीस साल के आजन्म कारावास एवं कालापानी (अण्डमान द्वीप) की सजा हुई। उनके सारे परिवार पर विपत्तियों का पहाड टूट पडा। केसरी सिंह के पुत्र् प्रताप को १९१५ ई. में बनारस षड्यंत्र् केस में गिरफ्तार किया गया जिसमें उसे पाँच वर्ष की सजा हुई। उसे बरेली सेन्ट्रल जेल की काल कोठरी में रखा गया। जेल की काल कोठरी में यातनाएँ सहते सहते प्रताप मई १९१८ में मात्र् २५ वर्ष की अल्पायु में देश की स्वतंत्र्ता की वेदी पर शहीद हो गया। प्रताप की लाश को परिजनों को देने के बजाय जेल परिसर में खड्डा खोदकर दफना दिया गया।
पारिवारिक विपत्तियों के इस घटनाक्रम में केसरी सिंह बारहठ की जीवनसंगिनी माणिक देवी चल बसी। केसरी सिंह के भाई जोरावर सिंह बिहार के आरा हत्याकाण्ड और हार्डिग बम काण्ड में शामिल थे। वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आये और आजीवन फरार रहे।
पारिवारिक जीवन में एक के बाद एक आयी विपत्तियों और पुत्र् एवं पत्नी वियोग के दारुण दुःख तथा अंग्रेजों के दमन और प्रताडना को झेलते हुए वीर केसरी सिंह बारहठ अपने यशस्वी जीवन के आखिरी पल तक स्वतंत्र्ता की लौ प्रज्वलित करते हुए राष्ट्र की सेवा में समर्पित रहे। राजस्थान के प्रख्यात स्वतंत्र्ता सेनानी कवि केसरी सिंह बारहठ
राजस्थान में आजादी की अलख जगाने वाले कवियों में केसरी सिंह बारहठ का अपना विशेष स्थान है। जहाँ अन्य कवियों ने अपनी वाणी और लेखनी से वीरता का वर्णन ही किया वहीं वीर केसरी सिंह बारहठ ने उस वीरता को साक्षात् अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया। देशप्रेम के गायक दूसरे कवियों की तरह उन्होंने केवल देशभक्ति और आजादी के गीत ही नहीं गाये वरन् अपने को और अपने सारे परिवार को देश के स्वतंत्र्ता संग्राम में झोंककर वे स्वयं मुक्ति की मशाल बन गये। यहाँ तक कि उन्होंने अपने इकलौते बेटे प्रताप को भी राष्ट्र की बलिवेदी पर न्यौछावर कर दिया। बारहठ केसरी सिंह आजादी के ऐसे ही दीवाने और राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक थे जिनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों से उल्लिखित है।
केसरी सिंह का जन्म २१ नवम्बर सन् १८७२ को उनके पैतृक जागीर के गाँव देवपुरा (मेवाड का शाहपुरा राज्य) में एक यशस्वी चारण कुल में हुआ। उनके पिता ठाकुर *ष्ण सिंह सौदा डिंगल और संस्*त के प्रकाण्ड विद्वान् थे। महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण रचित �वंशभास्कर� की टीका तथा राजस्थान का अपूर्व इतिहास उनकी विद्वता के प्रमाण हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार तथा �वीर विनोद� के लेखक कविराजा श्यामलदास व ठाकुर *ष्ण सिंह के मामा थे। इस प्रकार विद्या प्रेम और कविता के संस्कार केसरी सिंह बारहठ को अपने पितृकुल और मातृकुल दोनों से ही मिले थे।
ठाकुर *ष्ण सिंह के अपने समकालीन नरेशों – महाराणा सज्जन सिंह व फतह सिंह उदयपुर, जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह और कर्नल सर प्रताप से आत्मीय सम्बन्ध थे और उन पर विशेष *पा थी। शाहपुरा के तो वे पोलपात थे ही जिस उपलक्ष्य में उन्हें ताजीम और जागीर मिली हुई थी। लेकिन केसरी सिंह के बाल्यकाल में एक अनहोनी हो गई। जन्म के एक माह बाद ही माँ का साया उनके सिर से उठ गया तथा दादी शृंगार कंवर ने बालक केसरी सिंह का पालन पोषण किया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गुरु महन्त सीताराम जी की देखरेख में शाहपुरा में तथा औपचारिक शिक्षा चारण पाठशाला उदयपुर में हुई। इस अवधि में वे महर्षि दयानन्द सरस्वती के सम्फ में आये तथा उनके व्यक्तित्व एवं विचारों से बहुत प्रेरणा मिली। केसरी सिंह बचपन से ही बहुत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि के थे। उनमें सीखने की बहुत लगन थी। अपनी इस ज्ञान पिपासा से वे जल्दी ही अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और बंगला भाषा में निपुण हो गए थे। संस्*त के अलावा गणित और ज्योतिष का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान था।
केसरी सिंह बारहठ में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। स्वातंत्र््य प्रेम उनके मन में बाल्यकाल से ही हिलोरें ले रहा था। देश की पराधीनता से वे मन ही मन व्यथित थे। अंग्रेजी हुकूमत उन्हें बिलकुल नहीं सुहाती थी। सन् १८९१ में वे महाराणा फतह सिंह की सेवा में आये तभी से उन्होंने देखा कि पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स का मेवाड के राजकार्य में हस्तक्षेप निरन्तर बढता जा रहा था। ऐसे समय में केसरी सिंह बारहठ ने राजपूताना के क्षत्र्यि नरेशों व जागीरदारों को जो अपने को स्वतंत्र्ता का प्रहरी और मायड भूमि के रक्षक समझते थे तथा ऐशो आराम एवं भोग विलास में डूबे हुए थे, नींद से जगाने और कर्त्तव्य बोध का कार्य किया। यथा –
जग रखवाला जेरहया, विरदाला घर बींद ।
ताला मुँह जडया तिके, नींदाला बस नींद ।।
वीर केसरी सिंह बारहठ ने समकालीन क्षत्र्यि नरेशों और सामन्तों को वीर रस से ओतप्रोत अपनी कविताओं और दोहों द्वारा प्रबोधित एवं प्रताडत कर उनमें नवचेतना का संचार किया। उनके द्वारा देश को स्वतंत्र् कराने का आह्वान और शंखनाद करने से अंग्रेजी हुकूमत उनसे कुपित हो गयी। वीर केसरी सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत की प्रसन्नता, अप्रसन्नता की परवाह न करते हुए स्वयं तो अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का बीडा उठाया ही साथ ही अपनी पत्नी माणक कंवर,*पुत्र् प्रताप, भाई जोरावर सिंह, बेटी चन्द्रमणि और दामाद ईश्वरदान सहित परिवार के सभी सदस्यों को स्वतंत्र्ता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल कर दिया। इस अंग्रेज विरोधी मुहिम को ब्रिटिश हुकूमत ने राजद्रोह के रूप में लिया। केसरी सिंह तथा उनके परिवार पर कष्टों का पहाड टूट पडा। शाहपुरा की उनकी जागीर जब्त कर ली गई। परिवार के सदस्यों को झूठे मुकदमे लगाकर जेल में बन्द कर दिया गया तथा अनेक प्रकार की यातनाएँ दी गईं। उनके स्वयं के शब्दों में –
विपदा घन सिर पर घुटे, उठै सक्ल आधार ।
ग्राम धाम सब ही लुटे, बिछुटे प्रिय परिवार ।।
कवि केसरी सिंह ने अंग्रेजों के दमनचक्र की तनिक भी परवाह नहीं की बल्कि इससे उनके अन्तस् में धधकती स्वतंत्र्ता की लौ और भी प्रचण्ड हो उठी। ब्रिटिश हुकूमत को भारतभूमि से अलविदा करना उनके जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य बन गया। केसरी सिंह बारहठ को सर्वाधिक प्रसिद्धि उस घटना से मिली जब फरवरी सन् १९०३ में तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर प्रसिद्ध दिल्ली दरबार का आयोजन किया। इसमें शामिल होने के लिए देश भर के सारे रजवाडों के राजाओं के नाम फरमान जारी किया गया। उदयपुर के महाराणा फतह*सिंह भी इस दरबार में शामिल होने के लिए तैयार हो गये। उन्हें इस आयोजन में भाग लेने से विरत करने के लिए कुछ राष्ट्रीय विचारधारा वाले राजपूत सरदार प्रमुखतः राव गोपाल*सिंह खरवा, ठाकुर भूर*सिंह मलसीसर, ठाकुर कर्ण*सिंह जोबनेर तथा बारहठ केसरी सिंह इत्यादि जयपुर स्थित मलसीसर के डेरे पर एकत्र् हुए तथा आपसी विचार विमर्श के बाद केसरी सिंह बारहठ ने महाराणा फतेह*सिंह को सम्बोधित कर कुछ सोरठे लिख भेजे जो इतिहास में �चेतावणी रा चूंगटिया� नाम से प्रसिद्ध हैं। इन सोरठों में हिन्दुआँ-सूरज कहलाने वाले मेवाड के महाराणा को स्वतंत्र्ता और स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में मेवाड राज्य की छवि तथा उनके कुल गौरव की याद दिलायी जिससे महाराणा का सुप्त गौरव और स्वाभिमान जाग उठा।
पग पग भम्या पहाड धरा छोड राख्यो धरम ।
महाराणा मेवाड हिरदै बसिया हिन्द रै ।।
पहाडों और वनों में दर दर की ठोकरें खाकर भी जिन्होंने अपने धर्म और स्वतंत्र्ता को सदा अक्षुण्ण रखा वे महाराणा मेवाड इसीलिए देशवासियों (भारत) के हृदय में बस गये।
सिर झुकिया सहशाह, सींहासण जिण साम्हने ।
रलणो पंगतशह फाबै किम तोने फता ।।
जिस मेवाड राजसिंहासन के सामने बडे-बडे राजाओं के सिर झुके हैं उसके अधिपति होते हुए हे फतेह*सिंह अधीनता स्वीकार करने के आदी अन्य राजाओं की पंक्ति में उनके साथ आसन ग्रहण करना तुम्हें कैसे शोभा देगा*?
सकल चढावे सीस दान धरम जिण रो दियो ।
सो खिताब बखसीस, लेवण किम ललचावसी ।।
जिसके दिये हुए धर्म संयुक्त दान को सब लोग प्रसन्न होकर सिर आँखों पर चढाते हैं, वह हिन्दूपति महाराणा ब्रिटिश हुकूमत से खिताबों की बख्शीश लेने हेतु कैसे लालायित होगा।
देखेला हिंदवाण, निज सूरज दिस नेह सूं ।
पण तारा परमाण निरख निसासा न्हाकसी ।।
सब देशवासी अपने महाराणा को जो हिन्दुआँ सूरज कहलाते हैं, को स्नेह और आत्मीयता से तो देखेंगे पर वह एक तारे (स्टार ऑफ इण्डिया) की उपाधि से विभूषित होकर प्रजा के सम्मुख आयेंगे तो लोग परिताप के निःश्वास छोडेंगे।
देखे अंजस दीह, मुलकेलो मन ही मना ।
दम्भी गढ दिल्लीह सीस नमतां सीसवद ।।
हे सीसोदिया ! आपको अपने सामने शीश नवाते हुए देखकर दिल्ली का गढ और उसके अधिपति (अंग्रेज) अहंकार की तुष्टि होते देख मन ही मन प्रसन्न होंगे। आप पर मुस्कुरायेंगे।
घण घलिया घमसांण राण सदा रहिया निडर ।
पेखंता फुरमाण हलचल किम फतमल हुवै ।।
मेवाड की धरती पर एक से एक भीषण युद्ध लडे गये, लेकिन महाराणा सदैव निर्भय रहे। लेकिन हे फतेह*सिंह आज एक शाही फरमान देखकर इतनी हलचल कैसे मच गयी।
गिरद गजां घमसाण, नहचै घरमाई नहीं ।
मावे किम महाराण, गज दोसैरा गिरद में ।।
युद्धस्थल पर जिसके रणोन्मत्त हाथियों के पैरों से उडी धूल आसमान में इतना आच्छादित हो जाती थी उसमें नहीं समा पाती थी। आज वही महाराणा दिल्ली में उनके लिए निर्धारित दो सौ गज के क्षेत्र् में कैसे समायेगा*?
ओरां ने आसान हाकां हरवल हालणो ।
किम हालै कुलराण, हरवल साहां हांकिया ।।
और राजाओं के लिए जो शाही सवारी के साथ कदम बढाते हुए चलना कोई नयी बात नहीं होगी पर कुल परम्परा का निर्वाह करने वाले महाराणा आपसे यह कैसे होगा। आफ पूर्वजों ने तो शाही सवारियों को ही खदेड दिया था।
नरियँद सह नजराण, झुक करसी सरसी जिकाँ । पसरैलो किम पाण, पाण छतां थारो फता !
जिनके लिए सहज है या जिनकी आदत है वे सब राजा लोग तो झुक झुक कर नजराने करेंगे, क्योंकि यह उनकी कुल परम्परा रही है। परन्तु हे महाराणा फतह*सिंह ! हाथ में तलवार होते हुए भी आपका हाथ नजराने के लिए कैसे फैलेगा ?
अंत बेर आखीह, पातल जे बातां पहल ।
राणा सह राखीह, जिण री साखी सिर जटा ।।
महाराणा प्रताप के अंतिम वचनों और उनकी इच्छा को अब तक सभी महाराणाओं ने निभाया है उसका पालन किया है इसके साक्षी आफ सिर के बाल (जटाएँ) हैं।
कठिण जमानो कौल, बांधै नर हिम्मत बिना ।
वीरां हंदो बोल, पातल सांगे पेखियो ।।
समय खराब है या जमाना बडा कठिन है, इस वाक्य से तो हिम्मतविहीन और कमजोर व्यक्ति अपना सहारा ढूँढते हैं। वीर वचनों और संकल्पों को अपने हृदय में धारण करने वाले राणा सांगा और प्रताप जैसे महानायक नहीं अर्थात् वे तो समय और युग की दिशा निर्धारित करते हैं।
अब लग सारां आस, राण रीत कुल राखसी ।
रहो स्हाय सुखरास, एकलिंग प्रभु आप रै ।।
अब तक भी सब लोगों को यही आशा है कि महाराणा अपनी कुल परम्परा की रक्षा करेंगे। सुख और समृद्धि देने वाले भगवान एकलिंग सदैव आपकी सहायता करें।
मान मोद सीसोद राजनीति बल राखणो ।
गवरमिन्ट री गोद, फल मीठा दीठा फता ।।
यह सच है कि अपनी प्रतिष्ठा और यश को राजनीति के बल से कायम रखना चाहिए। हे फतह*सिंह ! क्या इस अंग्रेज सरकार की शरण में जाने से कभी मीठे फल पा सकोगे ?
महाराणा फतह*सिंह दिल्ली दरबार में शामिल होने के लिए अपनी स्पेशल ट्रेन से उदयपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुके थे। अजमेर के पास सुरेरी रेल्वे स्टेशन पर ये सोरठे विशेष दूत के हाथों महाराणा फतेह*सिंह को दिये गये। महाराणा पर इन दोहों का चामत्कारिक असर हुआ। चलती रेलगाडी में ही उन्होंने दिल्ली दरबार में जाने का अपना इरादा बदल दिया। महाराणा फतह*सिंह का सोया स्वाभिमान और आत्मगौरव जाग उठा। मेवाड के स्वर्णिम अतीत को याद कर वे रोमांचित हो उठे। उनमें नया जोश और ताकत आ गयी। उनकी स्पेशल ट्रेन दिल्ली पहुँची पर महाराणा फतेह*सिंह लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में शामिल हुए बिना वापस उदयपुर लौट आये। दिल्ली ददरबार में उनके बैठने के लिए निर्धारित सीट खाली ही रही। महाराणा फतह*सिंह पर केसरी सिंह बारहठ द्वारा लिखित चेतावनी के चूंगट्यों (सोरठों) का जो विलक्षण और चामत्कारिक अवसर पडा उससे देश के इतिहास के पृष्ठ आलोकित हैं।
इस घटना के बाद तो केसरी सिंह बारहठ ने स्वयं को और अपने सारे परिवार को देश के स्वतंत्र्ता आन्दोलन में झोंक दिया। देश के शीर्ष क्रान्तिकारियों रास बिहारी बोस, लाला हरदयाल, श्यामजी *ष्ण वर्मा, राव गोपाल*सिंह खरवा इत्यादि के साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन सभी का एक ही ध्येय था सशस्त्र् क्रान्ति द्वारा मातृभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया जाए। केसरी सिंह की देश के स्वतंत्र्ता संघर्ष में बढती हुई गतिविधियों और अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को भडकाने और षड्यंत्र् रचने के अभियोग में उन्हें मार्च १९१४ ई. में गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। केसरी सिंह और अन्य मुल्जिमों के बचाव पक्ष की पैरवी लखनऊ के प्रसिद्ध बैरिस्टर नवाब हामिद अली खान ने की। बैरिस्टर नवाब हामिद अली खान ने स्पेशल अदालत में दिनांक २ सितम्बर १९१४ को मुल्जिमों के बचाव पक्ष की ओर से अपनी बहस समाप्त करने के बाद भरी अदालत में मुल्जिम केसरी सिंह की देशभक्ति पर एक नज्म पढी जो कि एक असाधारण घटना थी। यह नज्म देश की आजादी के इतिहास में हिन्दू मुस्लिम एकता की अनूठी मिसाल है*-
यह इरशादे अदालत है उठो तुम बहस को हामिद
निगाहें मुल्जिमों की भी मगर कुछ तुमसे कहती है ।

वो मुल्जिम उम्र जिसकी देश की खिदमत में गुजरी है ।
वो मुल्जिम पानी होकर हड्डियां अब जिसकी बहती है ।।
वो मुल्जिम केसरी जो जां ओ दिल से देश का हामी
वो जिसकी खूबियां अखलाक का दम भरती हैं ।।
स्पेशल जज कोटा द्वारा ६ अक्टूबर १९१४ को केसरी सिंह बारहठ एवं अन्य को बीस साल के आजन्म कारावास एवं कालापानी (अण्डमान द्वीप) की सजा हुई। उनके सारे परिवार पर विपत्तियों का पहाड टूट पडा। केसरी सिंह के पुत्र् प्रताप को १९१५ ई. में बनारस षड्यंत्र् केस में गिरफ्तार किया गया जिसमें उसे पाँच वर्ष की सजा हुई। उसे बरेली सेन्ट्रल जेल की काल कोठरी में रखा गया। जेल की काल कोठरी में यातनाएँ सहते सहते प्रताप मई १९१८ में मात्र् २५ वर्ष की अल्पायु में देश की स्वतंत्र्ता की वेदी पर शहीद हो गया। प्रताप की लाश को परिजनों को देने के बजाय जेल परिसर में खड्डा खोदकर दफना दिया गया।
पारिवारिक विपत्तियों के इस घटनाक्रम में केसरी सिंह बारहठ की जीवनसंगिनी माणिक देवी चल बसी। केसरी सिंह के भाई जोरावर सिंह बिहार के आरा हत्याकाण्ड और हार्डिग बम काण्ड में शामिल थे। वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आये और आजीवन फरार रहे।
पारिवारिक जीवन में एक के बाद एक आयी विपत्तियों और पुत्र् एवं पत्नी वियोग के दारुण दुःख तथा अंग्रेजों के दमन और प्रताडना को झेलते हुए वीर केसरी सिंह बारहठ अपने यशस्वी जीवन के आखिरी पल तक स्वतंत्र्ता की लौ प्रज्वलित करते हुए राष्ट्र की सेवा में समर्पित रहे।

-मूलचंद पेसवानी, वरिष्ठ पत्रकार, भीलवाडा

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