कवि होने की शर्त मोहब्बत है, मुनव्वर नहीं..।

रासबिहारी गौड
विचारों के प्रदूषण को न्यूनतम करने की लगातार चाह के बावजूद हवा में घुली गंदगी मन की देहरी के पास जमा हो ही जाती है, जिसे बुहारना स्वच्छ रहने की मजबूरी बन जाता है।
मैं भी बहुतों की तरह मुनव्वर राणा की शायरी का प्रशंसक हूँ, बल्कि आधुनिक शायरों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही सम्मान रहा है उनका। दुबई से लेकर देश के अनेक काव्य- मंचो पर उनके साथ उनके शायर और शायरी को करीब से जानने का मौका भी मिला है।आयु,अनुभव और कलाम में वे इतने विराट रहे कि मुझ सरीखा अदना सा कवि उनके सामने खुद की परछाई में ही सिमटा रहा..। लेकिन तेज धूप में जब उनका साया उनकी पौशाक सा काला नजर आया तो उसे मिटाने या छूने के लिए हाथ की अंगुली अपने आप आगे बढ़ गई।
दो दिन दिन पूर्व फ्रांस की घटना पर राणा जी की प्रतिक्रिया, हिंसा का पक्ष और स्वम को सही साबित करने की जिद ने उनकी शायरी के सौंदर्य को कलंकित किया ही। साथ ही दुनिया पर काबिज हिंसक कट्टरता को कलमों के सर कलम करने के लिए एक और हथियार मुहैया करवा दिया।
निजी अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि हिंदी और उर्दू के काव्य मंचो पर पिछले कुछ दशकों में लोकप्रियता के अप्रिय मानक स्थापित हो गए हैं। हिंदी मंचो पर “जय श्री राम”, “भारत माता की जय” टाइप के नारे लगाकर उन्मादी कवि एक बड़े वर्ग के प्रिय बन चुके हैं, तो मुशायरों में कुछ शायर “अल्लाहो अकबर” कहते हुए इस्लामिक कट्टरता के वाहक बन चुके हैं। कविता- शायरी में प्रवाहित उन्माद की ये ऑक्सीजन लोकप्रियता के शिखर सजा रही है। ठीक वैसे ही जैसे नफरत की जुबान इन दिनों राजनीति के राजमार्ग पर जय जय कार के स्वर बुन रही है। *भाषा को बदनाम कर, भाषा की आड़ में, कविता के मंच खंडित नायक गढ़ रहे हैं। कोई फर्क नही पड़ता नाम राम है या रहमान..। हाँ, *नाम की अपनी एक शिनाख्त है कोई ज्यादा चमकीला तो किसी के जरिये उन्माद का फैलाव थोड़ा तेज हो जाता है।*
बहरहाल, शायरी या कविता से इतर शायर अथवा कवि को अलग से पढ़ना होता है। फिर चाहे कोई मुनव्वर सर काटने को जायज कहे या तथाकथित वीर रस का राष्ट्रीय कवि मोबलॉन्चिंग को राष्ट्रीय गौरव गाये . दोनों कुछ भी हो सकते हैं,,कवि नहीं हो सकते..। *कवि होने की जरूरी शर्त मोहब्बत है….मुनव्वर नही।*

*रास बिहारी गौड़*

error: Content is protected !!