लघुकथा- प्रेम की पंखुरी

रासबिहारी गौड
वह कोविड आइसोलेशन वार्ड में अपनी साँसों से लड़ रहा था। आस- पास बिखरी कराहों के बीच मौत की सुगबुहाट उसे साफ सुनाई दे रही थी। पी.पी.ई. किट पहने चिकित्सा कर्मी, ऑक्सीजन लेवल, बी पी, टेम्परेचर, ग्लूकोस, इंजेक्शन में साथ हर बार थोड़ा सा डर उसके पास बिखेर देते थे। मास्क और कोविड शील्ड से ढँके चेहरों पर, अपने लिए उम्मीद पढ़ने की कोशिश, हर बार थक कर ढह जाती थी।
चूं चूं करती स्ट्रेचर पर दर्द, कराह, चीख, बेबसी, के साथ नए मरीज लाती और सफेद चादर में लिपटी असीम शांति चुपचाप बाहर ले जाती थी। दोनों के बीच मौत का हल्का सा फासला उसके इतने करीब से होकर गुजरता कि वह अपनी धड़कनों का हिसाब लगाने लगता।
कल रात बिल्कुल पास वाला बेड इसी तरह खाली हो गया था। देर रात जीता जागता आदमी लाश बनकर यहाँ से चला गया था। वह बहुत डर गया था। उस ओर मुँह फेरकर पड़ा था।
सुबह उस पलंग पर एक नई कराह आ गई थी। उसकी ओर देखते हुए पिछली रात का शून्य चीखने लगा था। उसने तकिए से अपने कानों को कस कर बंद कर लिया था। वह दर्द का कोई स्वर नहीं सुनना चाहता था। फिर भी रिस रिस कर एक आवाज उस तक पहुँच रही थी-
” ओ माँ..ओ माँ..ओ माँ..”
इस आवाज में दर्द अकेला नहीं था। यह एक लड़की की आवाज थी। उसके चेहरे पर बुझा हुआ उजाला रखा था..। उसकी आँखों मे अंधेरे को चीरने वाली चमक थी..। उसकी कराह में जिंदगी की पुकार थी..। वहाँ उस उम्मीद के चिन्ह भी थे जो वह शील्ड में छिपे चेहरो पर पढ़ना चाहता था।
लड़की अब सो गई थी। शायद दवाइयों का नशा था। उसे सोते हुए उसने इत्मीनान से देखा। उसके देखने से उसके भीतर कुछ जगा था जैसे सूखे पेड़ के तने में अचानक हरि कोपल उग आती है। उसका डर झर गए पत्तो सा अपने आप हवा में उड़ गया था।
वह समय से आँख बचाकर खुली आँखों से एक सपना देखने लगा था। सपने में लड़की को हँसते-खिलखिलाते, आईने में खुद को निहारते, अपने साथ डेट पर जाते, देख रहा था।
एकाएक लड़की की नींद टूट गई। वह फिर कराहने लगी..। लड़के ने नर्स को आवाज दी। उसे आश्चर्य हुआ क्योंकि उसने खुद अपनी खुली हुई आवाज कईं दिन बाद सुनी थी।
लड़की ने उसकी ओर निरीह आँखों से देखा। वहाँ अनजान सहारे की पुकार थी। आवृति रहित पूरी आवाज-
” डॉक्टर आया था क्या..?”
“हाँ, आया था ..”
लड़के के ये तीन शब्द, पीड़ा के धुंधलके की चीरते हुए, सामने वाले पलंग तक पहुँचे थे। फिर कुछ और टूटे और जरूरी संवादों ने दर्द के बीच रास्ता बनाया था। लड़का-लड़की अकेले और खाली समय को एक दूसरे की आवाजों, संवादों और सन्नाटों से भरने लगे थे।
हर दिन की सुबह उनके सिरहाने नई ताजगी रख जाती थी। चेहरों का सूनापन बोलने लगा था। वे हाथ बढ़ाकर जिंदगी को पकड़ने में कामयाब हो रहे थे…। हो गए थे..। वे अपने होने की ताकत को जान गए थे..। वे प्रेम की पंखुरी से पीड़ाओं का पर्वत ढहा चुके थे।

*रास बिहारी गौड़*

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