वैचारिकी-संभावना रहित समय

रासबिहारी गौड
समाज के लिहाज से हम अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। महामारी, आर्थिक मंदी या सामाजिक संरचना से बड़ी त्रासदी हमारी सम्भावनाओं का खत्म हो जाना या कर दिया जाना है। इसके चाहे जो कारण या कारक हो पर परिणाम की कल्पना एक सवाल बनकर सामने खड़ी है।
सदियों की दासता के बाद आजादी की खुली हवा में साँस लेते हुए हमनें जिस सभ्य और समृद्ध समाज की नींव रखी थी, वह इमारत अब दरकती सी महसूस होती है।
*सात आठ साल पहले का, सम्भावनाओं भरा समय, याद आता है। जब हर परिवार अपने सपनों को आकार दे रहा था। बच्चे भविष्य का वैश्विक नागरिक गढ़ रहे थे। दुनिया हमारी ओर ललचाई नजरों से देख रही थी। हम अपने और अपनों के लिए लड़ रहे थे। महंगाई से लेकर आरुषि, निर्भया, लोकपाल, तक सड़को पर जमा हो जाते थे। भृष्टाचार, खाप पंचायत, नागरिक सुरक्षा, के मुद्दों पर हमें गुस्सा आता था। हम हर मुद्दे पर धड़कते थे। अपने होने का पता बताते थे।*
आज वह गुस्सा, जज्बा, सपने, आँसू, सिरे से गायब हैं।
बच्चों के अनिश्चित भविष्य, हमें डरा नहीं रहा। हमारी नींद सपनों से रूढ़ गई। घर के बाहर पसरा अंधेरा देखना नहीं चाहते। हर अनैतिक आचरण पर मौन सहमति है। *हम मौत जैसे विराट सत्य को अपनी नियति मान मरने की तैयारी में जुट जाते हैं। श्मशानों में जलती चिता हमारे भीतर आग नहीं लगाती। हम गंगा के पानी मे आंसुओ का नमक चुपचाप घुल जाने देते हैं।*
हमसे, हमारे सपने, उम्मीद, गुस्सा, रोना, हँसना, बोलना, होना, सब बड़ी चालकी से छीन लिया गया है। उसकी जगह कुछ काल्पनिक दृश्य या नारें सामने बिछा दिए गए है। *सच तो ये है कि हमें खुद अपने ही विरुद्ध एक सेना बनाकर खड़ा कर दिया गया है। हम अपने सपनों के विरोध में सोना भूल गए हैं। हम अपनी आवाज को कुचलने के लिए, कभी शाहीन बाग निकल पड़ते है तो कभी किसानों को धिक्कारते रहते हैं। हमें आभासी आवाजें संचालित करती है। हम अपने आप पर शक करने लगे हैं। हम एक मशीन के पुर्जो में ढल चुके हैं।* हम मान चुके है कि हमारे घिस जाने पर मशीन में नया पुर्जा आ जाएगा। हम अपनी सम्भावनाओं का अंत अपने हाथों से कर रहे हैं।
कौन है इसके लिए जिम्मेदार..? इस सवाल के जबाब में एक बार फिर मशीनी विरोध जाग सकता है। हम मशीनों से डर रहे हैं। मशीनगनों को एकमात्र सच मान रहे हैं।
*किसी भी जीवित समाज का होना उसकी सम्भावनाओं में निहित होता है। क्या सचमुच हम एक जीवित समाज मे जी रहे हैं..?* एक यक्ष प्रश्न जो समय और देश हमसे पूछ रहा है..।
अगर आपको कोई जबाब मिले तो जरूर बताना…।*

*रास बिहारी गौड़*

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