वैचारिकी-मेरा धर्म, मेरा गर्व

रासबिहारी गौड
परिवार, परवरिश और परिवेश पर सहज-स्वभाविक गर्व होता है ..। कभी यह गर्व बहुत रूढ़ होकर अपनी चमक खो देता है तो कभी अहंकार में अनूदित हो शेष समाज को तुच्छ या पराया समझने लगता है । जबकि उम्र और अनुभव के साथ उक्त गर्वोक्ति में यथोचित विनम्रता और सतत परिष्कार का गहरा आग्रह होना चाहिए..।
आज मेरी गर्वोक्ति का विषय मेरा वह धर्म है जो मुझे हर पूजा पद्धति को अपनाने की इजाज़त देता है, यहाँ तक कि वह मेरा नास्तिक होना भी स्वीकारता है। ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिक्ख किसी भी अन्य से द्वेष का कोई एक कारण नहीं देता है। चूँकि मुझे अपनी परंपरा के बारे ही विचार करने का वैध अधिकार है, अतः मेरे गर्व के मूल में, जिस वैदिक संस्कृति की बात में कर रहा हूँ वह सर्वाधिक ग्राह्य और लोकतांत्रिक है। सागर की तरह अनेक धर्म, भाषा, संस्कृतियों को समाहित कर इसनी विराट है कि यहाँ मूर्त-अमूर्त, द्वेत-अद्वेत, साकार-निराकार, आत्मा-परमात्मा से लेकर कला, साहित्य, परंपराओ तक सारी विविध संकल्पनाएँ एक साथ रहती हैं, मानो किसी बड़े से उपवन में छोटे-बड़े अलग-अलग रंगो के फूल खिले हों। यह आकर्षण ही दूसरे धर्मों या संस्कृतियों को हमारे बगीचे तक खींच लाया ..भले ही उनका उद्देश्य शासकीय विस्तार या कुछ और रहा हो, लेकिन हमारे बगीचे ने हर फूल से ख़ुश्बूएँ बटोरी और अपनी महक को समूची हवा में फैला दिया ..। आज मै या मेरा धर्म जितना दीपावली, होली या रक्षाबन्धन पर खुशियां बनाता है उतना ही ईद, क्रिसमस, बैशाखी, पौंगल, महावीर जयंती पर इतराता है।
मेरे उक्त गर्व का रंग पिछले दिनों यकायक तब फीका सा दिखा जब उसे किसी एक रंग से रंगने की अहमक कोशिशें की गई। नव संवत्सर के बहाने शहर दर शहर एक ही रंग झंडो से पाट दिए गए, गर्व को अहंकार का चोला पहना कर सड़कों पर खड़ा कर दिया ..। इस बीच रमज़ान अपने रंग को लेकर अपनी-अपनी गली, इलाक़ों तक सिमट गया।
यह बताने की ज़रूरत नहीं कि मेरे धर्म का एक बड़ा वर्ग हिसंक होने की हद तक अहंकारी हो चुका है। इसका सीधा-सरल कारण है कि हमनें पिछले कुछेक दशकों में शिक्षा की आड़ में एक ऐसा अशिक्षित समाज तैयार कर दिया है, जिसे ना समाज के अर्थ पता है और ना ही वह धर्म के विषय में कुछ जानता है। परिणाम सबके सामने है कि हम अपने उजले पक्ष को दूसरे के स्याह रंग से काला करने में लगे हैं। अशिक्षित और ढोंगी नायक हमें संचालित कर रहे हैं।
यह सब क्यों हुआ..? ज़रूरी था या ग़ैर ज़रूरी..? राजनीति है या कोई और वजह.? इन सवालों के उत्तर कभी और खोजेंगे….। फ़िलहाल, मै अपने गर्व के खोए हुए कारणो को खोज रहा हूँ।
क्या आपको पता है कि दुनिया में हमारे अकेले धर्म के देवी- देवता हथियारों के साथ है..युद्ध का गान करते हैं..फिर भी हम अहिंसक हैं..मानव कल्याण में यक़ीन करते हैं। ज्ञात इतिहास को कोई भी बड़ा युद्ध हमारे धर्म के कारण नहीं हुआ। प्रेम और शांति का पाठ पढ़ाने वाले गौतम, नानक, गांधी दुनिया को हमनें दिए। जबकि दूसरे अधिकतर धर्मों के ईश्वर या देवता अहिंसक होते हुए भी उनके अनुयायी सारे युद्धों के वाहक बने..विध्वंस के कारक बने ..क्योंकि वे धर्म को कभी समझ ही नहीं पाए।
मैं अपने उसी धर्म पर गर्व करता हूँ जो समाज के आसमान पर मिलेजुले रंगों का इंद्र्धनुष सजाएँ। मैं अपने खोए गर्व को ढूँढने निकला हूँ ।

*रास बिहारी गौड़*

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