*वैचारिकी- तिरंगा-तमाशा नहीं, त्यौवार है*

रास बिहारी गौड़
आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व “तिरंगा “शीर्षक से एक मंचीय कविता लिखी थी। कविता में आम आदमी की छत पर फहरते तिरंगे को लेकर व्यंग्य, विसंगति और राष्ट्रप्रेम का लोकप्रिय मुहावरा था..यह वह समय था जब स्वतंत्रता और गणतंत्र के आलवा अन्य दिनों में आम छतों पर तिरंगा फहराना निषेध था..बाद में ऐसा नहीं रहा।
आज घर-घर तिरंगा या तिरंगा रेलियों को देखकर अनायास यह सुखद स्मृति सामने आकर खड़ी हो गई, ठीक वैसे ही जैसे बहुत प्यारा सा सपना आँख खुलने पर सामने खेलता हुआ मिल जाए।
इसके साथ ही मन विषाद से भर उठता है जब तिरंगे को राजनीति का उपकरण बनाकर देशवशियों की निष्ठाओं का दोहन करते देखता हूँ।
अमृत महोत्सव के सरकारी पोस्टर पर उस व्यक्तित्व का चेहरा ढूँढने की कोशिश करता हूँ जिसने इस तिरंगे को पहली बार फहरा कर ब्रितानी सत्ता को देश के जज़्बातों से रूबरू करवाया था।मुझे वह चेहरा नहीं दिखता तब नियामकों की नियत में खोट नज़र आता है, हालाँकि इसकी अपनी वजह उसी इतिहास में छिपी है जिसमें तिरंगे को अपशगुन या अप्रिय बताने वाली विचारधारा तिरंगे के उत्सव में विभाजन का अपशगुन खोज रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी अनुपस्थिति को धोने के लिए तिरंगे का इस्तेमाल हो या सवा सौ साल की विरासत खोने की अयोग्यताओं पर पर्दा डालने के लिए तिरंगे की रैलियाँ..।सारे दल या विचारधाराएँ तिरंगा को तमाशे बनाकर फहरा रहे हैं, जैसे पिछले दीनों त्रासदी में एक इवेंट खोजकर ताली -लोटा बजाया था या फिर घर घर दिए जलाकर अंधेरा पूजा गया था।
तिरंगे को तमीज़ या त्यौवार बनना था, हम उसे तमाशा बना रहे हैं। माना इन दिनों हर शिखर सिर्फ़ तमाशे से चल रहा है किंतु देश के प्रतीकों को तमाशा मत बनाइए वरना देश तमाशबीनों का मजमा बन जाएगा..।
तिरंगे को हाथ में लेकर या फहरा कर महसूस कीजिए कि वह महज़ एक ध्वज नहीं है ,हमारी अस्मिता है। पहचान है। उस समय को याद कीजिए, जब यह हुंकार भरता था तो ग़ुलामी की ज़ंजीरे कांपती थी ..जब यह क्रांतिकारियों के हाथों में होता था तो फाँसी के फंदे खुल जाते थे..जब हिंद फ़ौज के बीच खड़ा था तो जय हिंद का नारा गूंजता था..जब इसे जवाहर लाल ने थामा तो रात का प्रहर रुक गया था..जब गाँधी के साथ चला तो सत्य का मार्ग बन गया था…।
यह केवल यूनीयन जैक से ही नहीं लड़ा ,देश के भीतर लाल, भगवे ,नीले, हरे झंडो ने भी इसे बहुत प्रताड़ित किया।आज भी अलग-अलग अवसरों पर अपने-अपने गुम्बदों से इसे ललकारते हैं। दंगे या नफ़रत के दौरान वें रंग इसके तीनों रंगो को लहूलुहान करते हैं।
आइए ,तिरंगे के तीन रंगो के साथ हम अपने उत्सव को अमृतमय बनाएँ..! विभाजन के अपशगुनी संदेशो की इस पर कोई छाया ना पड़ने दें..शपथ लें कि तिरंगे के तीनों रंगो को मन में लेकर देश को पप्रेम के गीतों से सींचेगे ।
जय हिंद

*रास बिहारी गौड़*

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