नेहरू और पटेल के बीच पारस्परिक सूझबूझ और कश्मीर समस्या

j k garg
14 नवंबर 1949 को जब पुरे देश में प्रधानमंत्री नेहरु का 60 वां जन्मदिन मनाया जा रहा था तब अंको नेताओं ने एक ग्रंथ को प्रकाशित किया गया उसमें लोह्पुरुष पटेल ने भी नेहरू पर एक लेख लिखा. था उसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि नेहरू से उनके कोई मतभेद नहीं हैं बल्कि कुछ लोग अपने स्वार्थ और निजी हितों के चलते इस तरह की बातें फैलाते रहे हैं.

पटेल मानते थे कि नेहरू और मेरे दृष्टिकोण कई समस्याओं पर अलग होते थे लेकिन नेहरु सभी पर खुले दिल और दिमाग से विचार विमर्श करके रास्ता निकाल लेते थे. तमाम महत्वपूर्ण मामलों में नेहरू मुझसे से बातचीत करते थे. कोई ऐसा दिन नहीं होता था, जब दोनों की बातचीत नहीं हो. |पटेल खुद मानते थे कि गांधी के बाद अगर देश में कोई लोकप्रिय जननायक है तो वह नेहरू हैं| कई मसलों पर पटेल का रुख दृढ़ होता था और नेहरू को उसे मानना होता था | जिस प्रकार पटेल ने हैदराबाद विलय के सवाल पर सेना भेजने के मामले पर निर्णय लिया उस कार्रवाई में नेहरू की सहमति छिपी हुई थी|

देश के प्रथम राष्ट्रपति के लिए राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद दावेदार थे नेहरु राजगोपालाचारी के समर्थन में थे वहीं पटेल औरअधिकतर कांग्रेसी राजेंद्र प्रसाद के पक्ष में थे | नेहरू लोकतंत्र में अटूट विश्वास करने वाले थे इसलिए वे बहुमत के आगे झुक गए और उन्होंने राजेन्द्र बाबू के नाम पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी |

पटेल का कहना था कि नेहरू और उन्होंने इतने लंबे समय तक साथ में काम किया है कि उनमें अटूट अनुराग, भाईचारा और समझबूझ उत्पन्न हो गई है. अगर आपसी सलाह मशविरा के लिए मुझे नेहरू का सहयोग नहीं मिल पाता तो मैं अपने अंदर खालीपन महसूस करता | उन्होंने नेहरू के 60वें जन्मदिन पर साफ़ साफ़ लिखा की हमारी आपसी समझबूझ समय के साथ बढती जब हम अलग होते हैं तो एक-दूसरे को मिस करते हैं |
नेहरू ने पटेल के निधन के एक घंटे बाद 15 दिसंबर 1950 को संसद में अपना गला भरते हुवे कहा आज सुबह एक महान जीवन पंचतत्व में विलीन गया, हम सभी उनके महान जीवन की कहानी और देश भक्ति पूरा देश जानता है. इतिहास में उनके नाम कई पेज दर्ज होंगे. परंतु हममें से ज्यादातर के लिए वह स्वतंत्रता के हमारे संघर्ष के महान कप्तान हैं |
पटेल और नेहरू दोनों बहुत विशाल कद के नेता थे | नेहरू ने स्वीकार किया नेहरू ने अनेको बार खा था की की पटेल ने गृहमंत्री के रूप में कई असाधारण स्मरणीय काम किये हैं | पटेल ने सार्वजनिक तौर पर जो कुछ भी लिखा या कहा, उसमें नेहरू को लेकर एक अपनत्व हमेशा रहता था |.

.सरदार पटेल क्यों नहीं चाहते थे कश्मीर भारत में मिले??
आईये हम पटेल नेहरू के आपसी रिश्तों का पुनवलोकन करें |

गांधी और नेहरू, दोनों चाहते थे कि कश्मीर भारत के साथ आए किन्तु सवाल तो यह है की पटेल क्या चाहते थे?वी पी मेनन जो माउंटबेटन के राजनीतिक सलाहकार थे उन्होंने अपनी पुस्तक है द स्टोरी ऑफ द इन्टीग्रेशन ऑफ द इंडियन स्टेट्स कश्मीर पर भी उल्लेख किया है पुस्तक का पेज नंबर 393 के आखिरी पैराग्राफ सेपेज नंबर 394 तक जो लिखा है, उसका अध्ययन करना होगा वे लिखते हैं की स्टेट्स ऑफ मिनिस्ट्री के गठन के बाद हम लोग भौगोलिक तौर पर भारत के साथ मिली हुई रियासतों के राजाओं और उनके प्रतिनिधियों के साथ भारत में मिलने की उनकी संभावनाओं पर चर्चा कर रहे थे | तीन जून 1947 के प्लान की घोषणा बाद जब माउंटबेटन रियासतों के भारत और पाकिस्तान में मिलने की पॉलिसी पर बात कर रहे थे, तब वो कश्मीर को लेकर ज्यादा परेशान थे. कश्मीर सबसे बड़ी रियासत थी. वहां की आबादी में बहुसंख्यक मुसलमान थे, जिनके ऊपर एक हिंदू राजा का शासन था. माउंटबेटन राजा हरि सिंह को अच्छी तरह जानते थे. जून के तीसरे हफ्ते में माउंटबेटन कश्मीर पहुंचे. वहां चार दिन रहकर उन्होंने सारी स्थितियों, विकल्पों पर महाराजा से बात की. माउंटबेटन ने राजा से कहा कि उनके मुताबिक जम्मू-कश्मीर का आजाद रहना व्यावहारिक नहीं होगा. ये भी बताया कि ब्रिटिश सरकार जम्मू-कश्मीर को अपने डोमिनियन स्टेट का दर्जा नहीं दे सकती है. माउंटबेटन ने महाराजा को आश्वासन दिया. कि अगर 15 अगस्त, 1947 के पहले या फिर इस तारीख तक वो भारत या पाकिस्तान, दोनों में से किसी एक के साथ मिलने का फैसला कर लेते हैं, तो कोई परेशानी नहीं आएगी. कि वो जिस किसी में भी मिलने का फैसला करेंगे, वो देश जम्मू-कश्मीर को अपना भूभाग मानकर उसकी सुरक्षा करेगा. माउंटबेटन ने महाराजा से ये तक कहा कि अगर वो पाकिस्तान में मिलते हैं, तो भारत इससे बिल्कुई भी नाराज नहीं होगा.
शुरुआत में पटेल कश्मीर को भारत में मिलाने के बहुत इच्छुक नहीं थे. इसकी एक बड़ी वजह वहां की आबादी में मुसलमानों का बहुसंख्यक होना भी था. क्योंकि बंटवारे की शर्तों में सबसे जरूरी बात ‘टू नेशन थिअरी’ ही थी. मुसलमानों के लिए पाकिस्तान, हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान. सारे मुसलमान नहीं, वो जो पाकिस्तान को चुनना चाहें. इसीलिए जम्मू-कश्मीर को भारत में मिलना है या नहीं, इसका फैसला पटेल वहां के राजा हरि सिंह पर छोड़ना चाहते थे | उनका मानना था कि राजा ही तय करे कि भारत और पाकिस्तान, दोनों में से कौन से देश के साथ जाना उसके और उसकी आबादी के लिए सही रहेगा | सच्चाई तो यही है की पटेल किसी भी कीमत पर पाकिस्तान में नहीं जाने देना चाहते थे | हमको वी के मेनन की इस किताब का पीडीएफ आपको बीजेपी की ऑनलाइन लाइब्रेरी पर भी मिल जाएगा | जूनागढ़ के नवाब महाबत खान मुसलमान थे जूनागढ़ में बहुसंख्यक आबादी हिन्दुओ की थी | जैसे ही 15 अगस्त की तारीख आई वहन के दीवान भुट्टो ने ऐलान किया कि जूनागढ़ पाकिस्तान के साथ जाएगा | जूनागढ़ के साथ समस्या को हल करने का डील करने का जिम्मा नेहरू ने पटेल को सौंपा | जूनागढ़ की सीमाओं पर भारतीय फौज भेज दी गई और जूनागढ़ का भारत में विलय क्र दिया गया | विलय के बाद व्झां की जनता से उनकी राय्राय पूछी गई भीड़ से पूछा कि वो दोनों मुल्कों में से किसके साथ जाना चाहते हैं. हजारों लोगों ने हाथ उठाकर एक आवाज में कहा- भारत | इसके बाद 20 फरवरी, 1948 को वहां एक आधिकारिक जनमत संग्रह हुआ. 2,01,457 रजिस्टर्ड वोटर्स में से बस 91 ने पाकिस्तान के साथ जाने को वोट दिया. ये बातें इसलिए बता रहे हैं आपको कि आप समझ सकें कि कश्मीर में जनमत संग्रह की बात एकाएक नहीं उठी थी क्योंकि कश्मीर मन जनमत संग्रह जूनागढ़ मे सफलता पूर्वक कराए गये जनमत संग्रह के बाद ही उठी थे |जूनागढ़ एपिसोड के बाद सरदार पटेल का कश्मीर को लेकर मन बदला. उनका आधार साफ था. कि जब जूनागढ़ में पाकिस्तान शासक के फैसले को आधार मानकर उसका विलय कर सकता है, तो कश्मीर में यह चीज भारत क्यों नहीं कर सकता? पटेल लोकतांत्रिक तरीके से ये मसला सुलझाना चाहते थे | उनकी नजर हैदराबाद पर थी |अगर पाकिस्तान हैदराबाद भारत को देने पर राजी होता, तो पटेल कश्मीर उसे सौंपने को तैयार थे. मगर पाकिस्तान ने ऐसा किया नहीं. फिर पटेल ने मन बना लिया. कि पाकिस्तान अपनी सहूलियत देखकर पॉलिसी तय नहीं कर सकता. कि वो जूनागढ़ में राजा की बात को तवज्जो दे और कश्मीर में लोगों की इच्छा की बात करे, ये दोनों चीजें एक साथ मुमकिन नहीं है. कश्मीर का घटनाक्रम 22 अक्टूबर, 1947. 200 से 300 लॉरी में भरकर आए पाकिस्तानी कबीलाइयों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया. वो श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे. राजा की फौज के मुस्लिम हमलावरों के साथ हो लिए थे. इन्होंने ऐलान किया कि 26 अक्टूबर को वो श्रीनगर फतह करके वहां की मस्जिद में ईद का जश्न मनाएंगे | 24 अक्टूबर की रात महाराजा ने भारत सरकार से मदद मांगी. 25 अक्टूबर की सुबह माउंटबेटन की अध्यक्षता में डिफेंस कमेटी की बैठक हुई | 26 अक्टूबर को वो दिल्ली लौटे. उनके लौटते ही तुरंत डिफेंस कमेटी की बैठक हुई | माउंटबेटन ने सलाह दी कि जब तक राजा हरि सिंह भारत में विलय न करें, तब तक भारत को अपनी फौज जम्मू-कश्मीर नहीं भेजनी चाहिए. फिर ये बात भी हुई कि हमलावरों को भगाने के बाद वहां भी जूनागढ़ की तरह जनमत संग्रह हो |
मेनन रजा हरी सिंह से मिलने के लिए जम्मू पहुंचे राजा विलय के लिए तैयार थे उन्होंने भारत के अंदर कश्मीर को विलय के कागजात पर दस्तखत करने क्र दिए जिसके फलस्वरूप कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया | फिर राजा ने मदद की अपील करते हुए गवर्नर जनरल को चिट्ठी लिखी. इसमें लिखा कि वो तत्काल एक अंतरिम सरकार का गठन करना चाहते हैं | इसमें शासन की जिम्मेदारी निभाएंगे नैशनल कॉन्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला (जो कि नेहरू के दोस्त थे और भारत में विलय के सपोर्टर) और रियासत के वजीर मेहर चंदर महाजन दोनों चीजें लेकर मेनन दिल्ली लौटे | फिर से डिफेंस कमिटी की मीटिंग हुई | नेहरू का कहना था कि अगर भारत ने फौज नहीं भेजी, तो जम्मू-कश्मीर में भयंकर मारकाट होगी. तय हुआ कि विलय की अपील मंजूर की जाए | ये भी तय हुआ कि जब वहां कानून-व्यवस्था की हालत सामान्य हो जाएगी, तो जनमत संग्रह करवाया जाएगा | 27 अक्टूबर को भारतीय सेना हवाई रास्ते से वहां जाने लगी | इस बीच गिलगित में बगावत हो गई. महाराजा के प्रतिनिधि गवर्नर को कैद करके वहां प्रोविजनल सरकार बना दी गई. इन लोगों ने पाकिस्तान का झंडा भी लहरा दिया | नवंबर जाते-जाते पाकिस्तान ने वहां अपना पॉलिटिकल एजेंट भी तैनात कर दिया |चूंकि गिलगित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था और महाराजा भारत में विलय कर चुके थे, इसलिए ये अवैध था |
कश्मीर विवाद को UN ले जाने की सलाह माउंटबेटन ने दी थी | उनका मानना था कि दोनों देशों के बीच इस मसले पर जंग छिड़ सकती है | ऐसी नौबत न आए, इसके लिए UN का सहारा लिया जा सकता है | नेहरू शुरू में इसके लिए तैयार नहीं थे | बाद में वो मान गए | 2 नवंबर को नेहरू ने अपने भाषण में कहा कि कश्मीर में जो हुआ, वो हमलावरों के खिलाफ आम कश्मीरियों का संघर्ष है. इसी भाषण में नेहरू ने कहा कि हालात सामान्य हो जाने के बाद वो संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में जनमत संग्रह कराए जाने के लिए तैयार हैं. 3 दिन बाद पटेल ने UN जाने का समर्थन किया था उधर कश्मीर में भारतीय सेना हमलावरों को पीछे धकेलती जा रही थी |भारत और पाकिस्तान के बीच लाहौर में हुई प्रधानमंत्री स्तर की बातचीत भी बेनतीजा रही. इसी मीटिंग में माउंटबेटन ने दोनों देशों को ये मसला UN ले जाने की सलाह दी थी. मगर तब नेहरू ने ये प्रस्ताव मंजूर नहीं किया. माउंटबेटन का मानना था कि अब ये विवाद | दोनों देशों की आपसी बातचीत से नहीं सुलझने वाला. उन्हें डर था कि दोनों मुल्कों में जंग की स्थिति आ सकती है. वो युद्ध की संभावना को किसी भी कीमत पर खत्म करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने गांधी और नेहरू को सलाह दी कि वो UN पर भरोसा करें. नेहरू शुरू में इसके लिए तैयार नहीं थे. मगर बाद में कोई राह न देखकर वो मान गए. पटेल को इसपर आपत्ति थी. आखिरकार 31 दिसंबर, 1947 को भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर इस मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र में अपील कर दी. दिसंबर 1948 में UN के सदस्य भारत और पाकिस्तान आए. 1 जनवरी, 1949 की आधी रात से भारत-पाकिस्तान के बीच सीज़फायर हुआ. जो जहां था, वहीं रह गया. और इस तरह कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा (जिसे हम PoK कहते हैं) पाकिस्तान के पास चला गया. जनमत संग्रह करवाने के पीछे भारत की शर्त थी कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर से पूरी तरह निकल जाए. ऐसा हुआ नहीं, सो जनमत संग्रह भी नहीं हुआ. 3 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में भाषण देते हुए पटेल ने UN में जाने के फैसले का समर्थन किया. वो बोले-गांधी का भी मानना था कि कश्मीर में भारतीय सेना भेजने का फैसला सही था | कबीलाई हमलावरों ने कश्मीर में अल्पसंख्यकों से साथ जैसी मार-काट की, उनपर जो अत्याचार किया, उससे गांधी काफी दुखी थे |
संघर्षविराम को मान लेने की वजह से जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया था |इससे भी पटेल खुश नहीं थे. |मगर ये भी सच है कि जब ये सब हो रहा था, तब पटेल नेहरू के ही साथ थे | जनमत संग्रह की बात उस समय की स्थितियों के हिसाब से गलत नहीं थी | भारत तो लोगों के फैसले को तवज्जो देने की बात शुरुआत से कर रहा था. जूनागढ़ में भी, कश्मीर में भी | एक बार पटेल ने माउंटबेटन से कहा था कि दिसंबर 1947 में कश्मीर को बांटने की उनकी सलाह शायद सही थी | शायद ऐसा करके इस समस्या को सुलझाया जा सकता था |
पटेल की बातों में विरोधाभास मिलता है. कहीं वो कहते हैं कि उनका नेहरू से कोई मतभेद नहीं. कहीं कहते हैं कि कश्मीर पर जो भी बस में था, वो बाकी नहीं रखा गया. फिर कभी वही पटेल कहते हैं कि कश्मीर समस्या सुलझ जाती, मगर नेहरू के कारण नहीं सुलझ सकी. कभी वो UN में जाने के फैसले पर असहमति जताते हैं, तो कभी उसका बचाव करते हैं. कभी कहते हैं कि संघर्षविराम ठीक नहीं था. कि सेना को बनिहाल से पुंछ की ओर न भेजा होता, तो तभी चीजें सुलझ गई होतीं. फिर मानते हैं कि शायद कश्मीर के बंटवारे पर राज़ी हो जाना सही रहता. जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि पटेल का दिमाग पढ़ना बहुत मुश्किल था | वो कश्मीर पर क्या सोचते थे, ये सही सही जान पाना और बता पाना बहुत मुश्किल था |
नेहरू ने पटेल को कभी अलग नहीं किया. और न पटेल ने नेहरू का साथ छोड़ा. विदेश मंत्रालय नेहरू के पास था, गृह मंत्रालय पटेल के पास. इतिहास इनके बीच कश्मीर को लेकर ऐसे किसी मतभेद के बारे में नहीं बताता, जिसको लेकर दोनों में ठन गई हो या राहें अलग हो गई हों. ये सही है कि नेहरू और पटेल के बीच कई बातों पर असहमति थी. लेकिन ये वैसी ही थी जैसी साथ काम करने वालों में अमूमन होती हैं | मतभेद जो थे भी, मनभेद नहीं बने |

डा जे के गर्ग
पूर्व संयुक्त निदेशक कॉलेज शिक्षा जयपुर

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