……बच्चों के साथ खेलते-पढ़ते, बड़ों को देखते-सुनते शहर के बीच मोहल्ला बनकर उगा यह गाँव अपने भीतर उतना ही गाँव बचा पाया था जितना स्कूल की सफेद दीवारों पर लिखे संदेशों से स्कूल में महात्मा गांधी, चाचा नेहरू, दयानंद या कबीर बच गए थे।

ऐसा भी नहीं यहाँ सब कुछ उदास और अप्रिय था। ढेर सारा नया और रोमांचक सपने सा सामने बिखरा हुआ था, कुछ इस तरह जैसे मेले में मिट्टी के खिलौनों की जगह अचानक चाबी वाले खिलौनों ने ले ली हो। विशेषकर, बिजली का होना तो ऐसा ही कमाल था कि एक बटन दबाते ही हर घर में अपना छोटा सा सूरज उग जाया करता। मुझे गांव के घरों की टिमटिमाती लालटेनें या दीये याद आते मानों वे किसी अदृश्य आकाश गंगा की तरह कहीं दूर खो गए हों। बिजली के पंखों को देखकर लगता यहाँ तो हवा भी बटन के इशारों पर चलती है।
जब कभी बिजली जाती पूरा मोहल्ला बैचेन हो उठता। एक दूसरे से बिजली का पता पूछता। उनकी बैचेनी या घबराहट देखकर मैं सोचता कि शहर अंधेरे से इतना डरता क्यूँ है ? जबकि गांव के अंधेरे तो किसी को नहीं डराते। मुझे अपने सवाल का अपने आप जबाब मिल जाता कि गाँव चाँद-सितारों से रोशनी माँग लेता है, जबकि शहर का आसमानी चीजों पर यक़ीन नही है। पंखों के बन्द हो जाने पर लोग हाथ से हवा बटोरते या घरों के बाहर आ जाते, ऐसा लगता वे आदमी नहीं परिंदे हैं, जो खुली हवा में परों की फड़फड़ाहट से हवा को बुला रहे हैं। सच भी था कि हवा बिल्कुल रुकी रहती, यह देखकर मेरे भीतर एक अजीब ख्याल जन्म लेता कि पेड़-पौधों ने भी शहरी तौर-तरीके अपना लिए हैं, उन्हें भी हिलने ढुलनें के लिए अब किसी बिजली के बटन का इंतजार है।
पिता बताते थे कि बिजली के तारों में करंट होता है। इसे छूने से लोग मर जाते हैं। मैं बिजली के इन तारों से बहुत डरता था। जागती रोशनी में सपनों के बाहर डर से यह मेरा परिचय था। शहर में अंधेरे और उजाले के अपने अपने डर थे। मैं जान गया था कि शहर का एक मतलब डर के साथ जीना भी है। ….
*उपन्यास ” आवाजों के छायादार चेहरे” -रासबिहारी गौड़-पूरा पढ़ने के लिए अमेजन अथवा सामयिक प्रकाशन से प्राप्त कर सकते हैं।*