15 अगस्त और 26 जनवरी पर होने वाला सम्मान
*अमित टण्डन*
अजमेर। “सम्मान” शब्द की परिभाषा का मूल तथ्य “दिल से उपजी “भावना” है, लेकिन मंचों पर दिए जाने वाले सम्मान में भावना का स्रोत “दिल” की जगह “दिमाग” होता है। और सम्मान के मद्देनज़र जहां दिमाग का इस्तेमाल शुरू होता है, वहां भावना तो शून्य हो जाती है और साजिशें, चापलूसी, मौकापरस्ती, चमचागिरी, भेदभाव, पक्षपात व फेवरेटिज़्म जैसी दूषित सोच शामिल हो जाती हैं।
हर साल हर सरकारी विभाग में तथा कुछ कारपोरेट कंपनियों में होने वाले कार्यक्रम; और उससे बढ़ कर ज़िला स्तर, राज्य स्तर पर प्रशासन व सराकरी तौर पर होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह तथा गणतंत्र दिवस समारोह इन “सम्मानों” की दुकान बन कर रह गए हैं।
इस बीच एक किस्सा यूँ याद आया कि अपने ज़माने के मशहूर अदाकारा स्वर्गीय ऋषि कपूर ने एक साक्षात्कार में बताया था कि जब उनकी बतौर नायक पहेली फ़िल्म “बॉबी” रिलीज़ हुई और सुपर डुपर हिट बन गई तो उन्हें लगा कि बेस्ट एक्टर अवार्ड पर उन्हीं का हक़ है और उन्होंने उस ज़माने में तीस हज़ार रुपए में वह अवार्ड खरीद लिया। हालांकि यह कबूलनामा फ़िल्म रिलीज़ के कोई चार दशक बाद उन्होंने किया था, जिसके लिए यूँ तो ऐसी ओछी हरकत के लिए उनकी आलोचना होनी चाहिए थी, लेकिन सेलिब्रिटीज़ के आगे नतमस्तक मीडिया और समाज का “प्रशंसक वर्ग” उस अवार्ड-खरीद की आलोचना की जगह उनके कबूलनामे की तारीफ कर उन्हें और भी ज्यादा ऊँचे मुकाम पर बैठाने को आमदा था। गोया के यह सीख दी जा रही हो कि जवानी में गुनाह करो और 40-50 साल बाद बुढ़ापे में कबूल करके बड़प्पन दिखा दो, इससे औऱ बड़े सलिब्रिटी बन सकते हैं। हालांकि मेरी निजी राय और वैधानिक चेतावनी है कि इस बात पर अमल मत करना, क्योंकि ऋषि कपूर राष्ट्रीय सेलिब्रिटी थे और मशहूर कपूर खानदान के फिल्मी चिराग थे, लिहाज़ा उनको गुनाह के कबूलनामे पर भी तालियां मिलीं। यदि आप-हम ऐसा करेंगे तो अदालती पचड़ों में फंस सकते हैं।
यह आरोप सिर्फ ऋषि कपूर पर नहीं बल्कि शाहरुख खान पर भी लगा था और उनकी तो “सेटिंग” करते हुए बातचीत के ऑडियो भी वाइरल हो गए थे। यह बात दूसरी है कि उस टाइम लानत-मलानत के बाद भी बेस्ट एक्टर अवार्ड उन्हें ही मिला था और आयोजन कंपनी का दावा था कि उन्होंने शाहरुख को अवार्ड बेचा नहीं है, बल्कि ज्यूरी ने वैसे भी उन्हें ही अवार्ड देना तय किया था।
बहरहाल, फिल्म इंडस्ट्री तो यूँ भी भ्रष्टाचार और व्याभिचार का बाज़ार बन कर रह गई है; परन्तु सच्चाई, ईमानदारी, देशभक्ति और सदाचार के ढकोसले पीटने वाले सरकारी विभाग और कारपोरेट जगत सहित सरकारी तंत्र में भी अवार्ड व सम्मान “अंधों वाली रेवड़ियों” की तरह बंटते हैं। यह सच्चाई है कि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा कर्म और कर्तव्य निर्वहन में डूब कर अपना जीवन जला लेती है; और ऊपर वर्णित चापलूसी, चमचागिरी, फेवरेटिज़्म आदि जैसी दिमागी गंदगियां किसी न किसी मंच पर शॉल-माला ओढ़-पहन कर हंसते हुए फोटो खिंचवा रही होती हैं।
(यह बात सम्मानित होने वाले 100 फीसदी लोगों के लिए नहीं कही जा रही है, कुछ वाजिब लोग भी सम्मानित होते हैं। ऐसे वाजिब लोगों को उनके भाग्य के लिए बधाई)।
खासकर 15 अगस्त व 26 जनवरी को बड़े सरकारी विभागीय कार्यक्रमों और ज़िला स्तरीय कार्यक्रमों में सम्मानित होने के लिए दिए जाने वाले नामों की अनुशंसा उस विभाग का विभागाध्यक्ष (HOD) यानी हैड ऑफ दी डिपार्टमेंट करता है। उस अधिकारी के चेम्बर में जीहुज़ूरी करने वाले नकारे-निकम्मे कार्मिक चापलूसी से अपने नाम की अनुशंसा करवा लेते हैं। यह कड़वी हकीक़त है, मगर हकीक़त है। जिनकी रीढ़ मजबूत है उन्हें ऐसे किसी दिखावटी सम्मान की जरूरत नहीं। लेकिन, सम्मान व अवार्ड की ऐसी सौदेबाज़ी उन विभाग-अध्यक्षों (HODs) की सोच, दिमागी स्तर, और उनके स्वयं को न्यायप्रिय बताने के दावों पर प्रश्नचिन्ह हैं।
दफ्तर को दरबार बना कर अपने चेम्बर में किन्नरों की फौज से चमचागिरी करवाकर स्वयं के लिए बड़ा ओहदेदार वाला गर्व महसूस करने वाले अफसर देशभर में हुनरमंदों का मनोबल गिराने के दोषी हैं।
चूंकि बतौर पत्रकार अखबारों व tv चेनल पर फुलटाइम पत्रकारिता करते हुए मेरी काफी उम्र बीती है। प्रसंगवश, एक बार हमारे एक पूर्व संपादक इसी विषय पर किसी चर्चा के दौरान हमसे कहते हैं कि “मैं तमाशा देख रहा था कि देखें कौन कौन अपना नाम स्वयं देता है कि वह खुद कहे कि इस बार मुझे 15 अगस्त या 26 जनवरी पर ज़िला स्तर पर सम्मानित करवाओ”।
यह एक शर्मनाक स्टेटमेंट था। आप परोक्ष रूप से यह कहना चाह रहे हैं कि जो-जो आकर गिड़गिड़ायेगा और याचना-चापलूसी करेगा आप बतौर सम्पादक अथवा किसी संस्था के अध्यक्ष तभी उसकी सिफारिश करोगे?! जबकि आपका फ़र्ज़ है कि आप बड़े होने के नाते अथवा वरिष्ठ होने के नाते हुनर देखो, काबिलियत देखो। मगर सम्मान व अवार्ड पाने के लिए चूंकि सिर्फ फेवरेट होना और चापलूसी करना ही क्वालीफिकेशन है, इसलिए मैं आज तक सम्मानित नहीं हुआ, क्योंकि माँग कर लिया गया अवार्ड भी भीख से बदतर है।
यह रेफरेंस भी सिर्फ इसलिए लेख में शामिल कर रहा हूं, क्योंकि मीडिया और प्रेस-जगत हमारे समाज के कथित चौथे स्तंभ हैं। हम ख़बरनवीज़ (पत्रकार) समाज की उन गंदगियों को उजागर कर राष्ट्र-सुधार में योगदान का दावा करते हैं, जिन सामाजिक गंदगियों को भ्रष्टाचार, लूट, शोषण या ऊपर वर्णित अन्य दिमागी प्रदूषणों के नाम से जाना जाता है। मगर अफसोस यह है कि सरकार, प्रशासन, सरकारी विभाग व अन्य संस्थाओं-संस्थानों की कमियां उजागर कर समाज को जगाने व सुधारने का दम्भ भरने वाला मीडिया भी इन्हीं दिमागी सडांधों का गटर बना हुआ है।
बचपन में स्कूल में 8वीं कक्षा की संस्कृत विषय की किताब की एक कहानी याद आ गई। शीर्षक था “ऊष्ट्र खरश्च विवाह”, यानी ऊंट और गधे की शादी। इसमें बताया गया था कि ऊँट की शादी में गधा गाना गाता है और गधे की शादी में ऊँट डांस करता है। ऊँट गधे से कहता है कि तुम कितना मधुर गाते हो और गधा ऊँट से कहता है कि तुम कितना अच्छा नृत्य करते हो।
“वन्दे मातरम, जय हिन्द, जय भारत”