शास्त्री जी के मर्मस्पर्शी प्रेरणादायक संस्मरण

j k garg
नाटे कद और हमेशा मुस्कराता हुवा चेहरा रखने वाले शास्त्री जी जवाहर लाल के उतराधिकारी बन कर देश के दुसरे प्रधानमंत्री बने | वास्तव में शास्त्री जी जहाँ एक तरफ आजादी के लिये अपना सर्वस्व कुर्बान करने का संकल्प रखते थे वहीं दसरी तरफ वो मितभाषी और आत्मसम्मान के धनी थे | मात्र 17 साल की उम्र में वे जेल गये थे | उन्होंने नो साल जेल के अंदर बिताये | वर्तमान समय के राज नेता तो अपनी आत्म वंचना सेल्फ प्रेज ईगो और सच्चे झूटे बडबोलेपन एवँ सेल्फ मार्केटिग से जनसाधारण नागरिको को बहलाने फुसलाने और उनका नाम अख़बारों में छपे और टेलीवीजन पर लोग उनकी तारीफ के गीत गीत गायें तथा उनके कामों की प्रशंसा करें ऐसा काम करके शान चला रहें हैं | इन सब के विपरीत शास्त्री जी तो कभी भी नहीं चाहते थे कि उनका नाम अखबारों मे छपे | उन्होंने अपने जीवन में कभी भी कायदे कानून की अवेहलना नहीं होने दी थी वो तो सही मायनो के अंदर बापू जी के आदर्शो को मानने वाले उनके सच्चे अनुयायी थे | उनमे ना किसी भी पद और सम्मान का लालच था और ना ही पद का अभिमान था | 1965 की भारत पाकिस्तान की लड़ाई के समय पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा को पार करके पाकिस्तान की धरती में घुस कर आक्रमण कर लाहोर के नजदीक पहुच जाने का साहिसिक फेसला लेने वाले शास्त्री जी ही थे उनके इस निर्णय की प्रसंसा तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल चोधरी और वायुसेना के मुखिया एयर मार्शल अर्जुन ने भी की थी | पिछले 50 वर्षो में जन्म लेने वाले हिन्दुस्थानियो को तो इस बात में वीस्वश ही नहीं होगा कि आज का कोई मंत्री नैतिकता और अपनी आत्मा की आवाज पर उसके विभाग में घटित दुर्घटना पर अपना मन्त्री पद से त्याग पत्र देने की हिम्मत करने वाले शास्त्री जी ही थे |जननायक शास्त्री जी की एक आवाज पर लाखो नर नारियों ने सप्ताह के एक दिन सोमवार को अन्न नहीं खाने का व्रत ले लिया था और उसका पालन भी किया | जय जवान जय किसान के नारे का उद्दघोष करने वाले नाटे कद के हमारे शास्त्री जी ही थे | शास्त्री जी सहनशीलता में उनकी महानता में भी परिलक्षित होती थी | लाल बहादुर जी ने ना कभी क्रोध किया और ना ही कभी कोइ शिकायत की थी | उनका मानना था कि “ अगर हम भष्टाचारको गम्भीरता से लें तो हम जरुर अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकेंगें |शास्त्री जी का मानना था कि सच्चे लोकतंत्र में कभी भी हिंसा से कोई विवाद सुलझाया नहीं सकता है , परस्पर संवाद वार्तालाप से ही समस्याओं को दूर किया जा सकता है | विभिन्न विचार धारा वाले समूहों में परस्पर अविश्वास की जगह संवाद होना चाहिये | बचपन में ही नन्हें लालबहादुर ने तय कर लिया कि वो कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे दूसरों को नुकसान नहीं हो | आत्मसम्मान के धनी आजादी के दिवाने शास्त्री जी स्वतंत्रताआन्दोलन के दौरान जेल भी गये थे 2 अक्तूबर 2023 को जननायक शाष्त्रीजी के 119 वें जन्म दिन पर 142 करोड़ भारतियों का उनके श्री चरणों में कोटि कोटि नमन और श्रद्धा सुमन

लाल बहादुर शास्त्री के विस्मयकारी प्रेरणा दायक संस्मरण

बचपन में ही नन्हें लाल बहादुर ने तय कर लिया कि वो कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे दूसरों को नुकसान नहीं हो

छः साल का एक नाटे कद का मासूम लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया,उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी अपनी झोलियाँ भर लिये वहीं लालबहादुर जो वह लड़का जो सबसे छोटा और कमज़ोर था सबसे पिछे रह गया और ज्योंहि उसने फूल तोडना चालू किया उसी वक्त बगीचे का माली आ पहुँचा। माली को देख कर दूसरे लड़के भाग गये किन्तु छोटा और नाटा बालक माली के हत्थे चढ़ गया।माली ने सारा गुस्सा छः साल के बालक पर निकाला और उसे बुरी तरह पीट दिया।नन्हे बच्चे ने माली से कहा “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!” यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिताके न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।” माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो। बड़ा होने पर वही बालक भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन में कूद पड़ा। एक दिन इसी मासूम बालक ने लालबहादुरशास्त्री के नाम से देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया।

स्वाभिमान के धनी

आजादी के दिवाने शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल में थे तब की घटना। आत्मसम्मान के धनी आजादी के दिवाने शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जेल में थे तब घर पर उनकी पुत्री गम्भीर रूप बीमार थी,उनके साथियों ने उन्हें जेल से बाहर आकर पुत्री को देखने और उसकी देखभाल करने लिये आग्रह किया, शास्त्री की पैरोल भी स्वीकृत हो गई, परन्तु शास्त्री जी ने पैरोल पर छूटकर जेल से बाहर आना अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध समझा ! क्योंकि वे यह लिखकर देने को तैयार नथे कि बाहर निकलकर वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में कोई काम नहीं करेंगे। अंत मेंमजिस्ट्रेट को शास्त्रीजी को पन्द्रह दिनों के लिए बिना शर्त छोड़ना पड़ा। वे घर पहुँचे, लेकिन उसी दिन बालिका के प्राण-पखेरू उड़ गए। शास्त्री जी ने कहा, “जिस काम के लिए मैं आया था, वहपूरा हो गया है। अब मुझे जेल वापस जाना चाहिये।” और उसी दिन वो जेल वापस चले गये।

शास्त्रीजी नहीं चाहते थे कि उनका नाम अख़बारों में छपे और लोग उनकी प्रशंसा करें

लाला लाजपत राय से लोक सेवामंडल के सदस्य की दीक्षा लेने के बाद लाला लाजपत राय ने उनसे कहा “लालबहादुर ताजमहल में दो तरह के पत्थर लगे हैं यथा सफेद सगंमरमर और नीव में लगाये गयेसाधारण पत्थर, संगमरमर के पत्थरों को दुनिया देखती है और उनकी प्रसंसा भी करती हैवहीं दूसरे तरह के पत्थर नीव में लगे जिनके जीवन में सिर्फ अँधेरा-अँधेरा ही है लेकिन ताजमहल को उन्होंने खड़ा रक्खा हुआ है, इसलिए तुम नीव के पत्थर बनने की कोशिश करना”| शास्त्रीजीने कहा मुझे लालाजी के वो शब्द आज भी याद है इसीलिए में नीव का पत्थर बना रहना चाहता हूँ | इसीलिए शास्त्रीजी जीवन पर्यन्त नीवं का मजबूत पत्थर काम करते रहेऔर कभी भी नहीं चाह कि उनका नाम अख़बारों की सुर्खियाँ बने और लोग उनकी प्रशंसाकरें |

कभी भी कायदे कानून की अवहेलना नहीं होने दी

जब शास्त्रीजी उत्तर प्रदेश में ग्रह मंत्री थे, तब एक दिन शास्त्री जी की मौसी के लड़के को एक प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना पड़ा। उसे कानपुर से लखनऊ जाना था। गाड़ी छूटने वाली थी, इसलिए वह टिकट नहीं ले सका। लखनऊ में वह बिना टिकट पकड़ा गया। उसने शास्त्री जी का नाम बताया। शास्त्री जी के पास फ़ोन आया। शास्त्री जी का यही उत्तर था, “हाँ है तो मेरा रिश्तेदार ! किन्तु आप नियम का पालन करें।” यह सब जानने के बाद मौसी नाराज़ हो गई। एक बार उनका सगा भांजा I.A.S की परीक्षा में सफल हो गया, परन्तु उसका नाम सूची में इतना नीचे था कि चालू वर्ष में नियुक्ति का नंबर नहीं आ सकता था, बहन ने अपने भाई से उसकी नियुक्ति इसी वर्ष दिलाने को कहा, अगर शास्त्री जी जरा सा इशारा कर देते तो उसे इसी वर्ष नियुक्ति मिल सकती थी। परन्तु शास्त्रीजी का सीधा उत्तर था, “सरकार को जब आवश्यकता होगी, नियुक्ति स्वतः ही हो जाएगी।” निसंदेह शास्त्रीजी ईमानदारी की साक्षात् मूर्ती थे। नियमों के पालन में उन्होंने कभी भी अपने नाते-रिश्तेदारों का भी पक्ष नहीं लिया, जबकि कई मर्तबा उनके अधीनस्थ अधिकारी, उनके रिश्तेदार की नियम विरुद्ध भी सहायता करने को तैयार थे |

नैतिकता के आधार पर छोड़ दिया था मंत्री पद

1956 में तमिलनाडू के अरियालपुर में हुई रेल दुर्घटना की नेतिक जिम्मेवारी लेते हुए शास्त्रीजी ने रेलवे मंत्री का पद छोड़ दिया था | क्या हम वर्तमान समय मंत्रियों से ऐसे आचरण की अपेक्षा रख सकते हैं? कदापि नहीं |

सहनशीलता में भी उनकी महानता परिलक्षित होती थी

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय सुरक्षा कारणों से हवाई हमले की घंटी बज सकती थी | उन दिनों सुरक्षा के लिये प्रधान मंत्री भवन मे भी खाई बनाई गई थी। सुरक्षा कर्मियों ने प्रधान मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री से अनुरोध किया ”आज हमले की आशंका अधिक है आप घंटी बजते ही तुरंत खाई में चले जायें।” किंतु दैवयोग से हमला नहीं हुआ। अगले दिन सुबह देखा गया कि बिना बमबारी के खाई गिरकर पट गई है। खाई बनाने वालों तथा उसे पास करने वालों की यह अक्षम्य लापरवाही थी। यदि वे उस रात खाई के अंदर होते तो क्या होता सुनकर रौंगटे खडे हो जाते हैं। देश के प्रधानमंत्री का जीवन कितना मूल्यवान होता है? वह भी युद्धकाल में? अन्य व्यवस्था अधिकारियों ने भले ही इस प्रसंग पर कोई कार्यवाही की हो, किन्तु शास्त्री जी ने संबंधित व्यक्तियों के प्रति कोई कठोरता नहीं बरती अपितु बालकों की भाँति क्षमा कर दिया। ना क्रोध और ना ही शिकायत |साधारणतया लोग घर में तो वजह-बेवजह अपने अधिकार एवं डांट-फटकार से काम करवाते हैं किन्तु घर के बाहर सज्जनता तथा उदारता के प्रतीक बने रहने का स्वागं करते हैं, किन्तु शास्त्रीजी इसके अपवाद थे।

स्वभाव से ही उदार तथा सहिष्णु इन्सान

ताशकंद जाने के एक दिन पूर्व वे भोजन कर रहे थे। ललिता ने उस दिन उनकी पसंद का खिचडी तथा आलू का भरता बनाया था। ये दोनों वस्तुएं उन्हें सर्वाधिक प्रिय थीं। बडे़ प्रेम से खाते रहे। जब खा चुके उसके थोड़ी देर बाद उन्होंने वह प्रसंग आने पर बड़े ही सहज भाव से श्रीमती ललिता जी से पूछा-क्या आज आपने खिचड़ी में नमक डाला था ? ललिता जी को अपनी गलती पर बडा दुःख हुआ किन्तु शास्त्री जी ने न कोई शिकायत की और ना ही गुस्सा, वेतो फीकी खिचड़ी खाकर भी मुस्कुराते रहे ।

ना कोई लालच और ना ही पद का अभिमान

घटना 1965 की है,एक दिन प्रधानमंत्री शास्त्रीजी एक कपड़े की मिल देखने मिल के मालिक, मिल के उच्च अधिकारीयों तथा कई विशिष्ट लोगों के साथ मिल को देखने गये थे। मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुंचे तो उन्होंने मालिक को कुछ साड़ियां दिखलाने को कहा। मिल मालिक ने एक से एक खूबसूरत साड़ियां उनके सामने फैला दीं। शास्त्रीजी ने साड़ियां देखकर कहा- ‘साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं”, पर इनकी कीमत क्या है?’ मील मालिक बोला ‘जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1000 की है’ | शास्त्रीजी बोले यह तो मेरे बजट से बहुत ज्यादा है, सस्ती साड़ीयां बताओं | दूसरी साड़ियां दिखलाते हुये मील मालिक बोले देखिये यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की’। ‘अरे भाई, यह भी बहुत महंगी हैं। मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियां दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूं। मील मालिक कहने लगा, ‘वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, आप गरीब कैसे हो सकते हैं ? आप से कीमत कोन मांग रहा है,हम तो ये साड़ियां आपको भेंट कर रहेहैं।’ ‘नहीं भाई, मैं साड़ियाँ भेंट में नहीं लूंगा’,| ‘क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें’ | ‘हां, मैंप्रधानमंत्री हूं’, शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- ‘पर इसकाअर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊं। भाई, मैं प्रधानमंत्री हूं पर हूं तो गरीब ही। देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियां ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं। ऐसे महान थे हमारे शास्त्रीजी जिन्हें कोई लालच था और ना ही पद का अभिमान,उन्होंने जीवन पर्यन्त अपने पद का कोई फायदा नहीं उठाया ।

नहीं करते थे सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल
लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने अपनी किताब ‘लाल बहादुर शास्त्री, मेरे बाबूज’ में देश के पूर्व प्रधानमंत्री के जीवन से जुड़े कई आत्मीय प्रसंग साझा किए हैं। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि उनके पिता सरकारी खर्चे पर मिली कार का प्रयोग नहीं करते थे। एक बार उन्होंने अपने पिता की कार चला ली तो उन्होंने किलोमीटर का हिसाब कर पैसा सरकारी खाते में जमा करवाया था।

हैदराबाद के पूर्व निजाम मीर उस्मान अली ने 1965 में ने युद्ध के फंड के प्रति पांच टन यानि 5000 किलो सोना दान में दिया दिया। आज के बाजार मूल्य के रूप में निजाम का योगदान करीब तीन अरब रुपये का बनता है यह भारत में किसी भी व्यक्ति या संगठन द्वारा अब तक का सबसे बड़ा योगदान है इस सोने को लेने के लिये लाल बहादुर खुद हेदराबाद गये और और मीर उस्मान अली को धन्यवाद दिया को ।[

घर से हटवा दिया था सरकारी कूलर
शास्त्रीजी मन और कर्म से पूरे गांधीवादी थे। एक बार उनके घर पर सरकारी विभाग की तरफ से कूलर लगाया गया। जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री को इस बारे में पता चला तो उन्होंने परिवार से कहा, ‘इलाहाबाद के पुश्तैनी घर में कूलर नहीं है। कभी धूप में निकलना पड़ सकता है। ऐसे आदतें बिगड़ जाएंगी।’ उन्होंने तुरंत सरकारी विभाग को फोन कर कूलर हटवा दिया।

फटे कुर्ते से बनवाते थे रुमाल
शास्त्रीजी बहुत कम साधनों में अपना जीवन जीते ते। वह अुनी पत्नी को फटे हुए कुर्ते दे दिया करते थे। उन्हीं पुराने कुर्तों से रुमाल बनाकर उनकी पत्नी उन्हें प्रयोग के लिए देती थीं।

अकाल के दिनों में रखा था एक दिन का व्रत
अकाल के दिनों में जब देश में भुखमरी की विपत्ति आई तो खुद शास्त्री जी ने नियमित व्रत रखा और परिवार को भी यही आदेश दिया कि वे सब एक दिन का उपवास रखें और तब शास्त्री जी ने कहा कि देश का हर नागरिक एक दिन का व्रत करे तो भुखमरी की समस्या का सामना किया जा सकता है |

शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री कहते हैं, ‘बाबूजी देश में शिक्षा सुधारों को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। अक्सर हम भाई-बहनों से कहते थे कि देश में रोजगार के अवसर बढ़े इसके लिए बेहतर मूल्य परक शिक्षा की जरूरत है।’

शास्त्रीजी की टेबल पर रहती थी हरी दूब
सुनील शास्त्री ने बताया, ‘बाबूजी की टेबल पर हमेशा हरी घास रहती थी। एक बार उन्होंने बताया था कि सुंदर फूल लोगों को आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ दिन में मुरझाकर गिर जाते हैं। घास वह आधार है जो हमेशा रहती है। मैं लोगों के जीवन में घास की तरह ही एक आधार और खुशी की वजह बनकर रहना चाहता हूं।’

क्या ही अच्छा होता अगर आज भी देश को शास्त्री जी जैसा जननायक मिलता ||

जन नायक लाल बहादुर जी के जन्म दिन पर हम सभी देश वासी उनकी कर्तव्य निष्ठा सत्यता निर्भीकता ईमानदारी देश प्रेम सादगी और सरलता से प्रेरणा लें और जननायक शास्त्री जी के जीवन के अद्भुत मर्मस्पर्शी प्रेरणादायक घटनायें हमारे जीवन को आलोकित कर के हमें सही अर्थों में राष्ट्र भक्त बनाये |

डा.जे.के.गर्ग
पूर्व संयुक्त निदेशक कालेज शिक्षा जयपुर

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