और चाहिए? बस? पेट भर गया । उसके बाद दोबारा मांगा नहीं गया, आधे पेट हाथ धोना जठराग्नि को और प्रबल कर देता है। स्त्री अस्तित्व ,अस्मिता, आत्मसम्मान के अनगिनत आघात पग पग पर उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं। मन के आंतरिक द्वंद, अवसाद, अंधकार से लेखिका धीरे-धीरे कैसे प्रकाश की ओर बढ़ती है । मुसीबत के पहाड़ में भी मनोबल की दीवार को बार-बार चुनौती स्वरूप चुनने,चीननें वाली यह आत्मकथा पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश से होते हुए आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ती है।धब्बे जो शरीर पर नहीं, आत्मा पर लगे उन्हें कैसे मिटाया जाए। मौन भी अभिशाप है जहां बोलना कर्तव्य है। लेकिन अबोली जब बोली।क्या उसे सुना गया? स्वयं की अभिव्यक्ति, आत्मकथा। वह और भी दुर्गम्य, दुखदाई नासूर बन जाती है। यदि भरी हो दुख ,पीड़ा, संताप और अपनों के छल कपट से। यह डायरी है अबोली की, जिसे पढ़ आप भी चौंक जाएंगे। क्या आज भी ऐसा होता है? इन पन्नों से गुजरते हुए हमें अपनी मनुष्य कहलाई जाने वाली सीट बेल्ट पेंटी बाधं लेनी चाहिए। कुछ दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं । जिस उम्र में गुड्डे गुड़ियों का खेल खेलना चाहिए था।
उस उम्र में मासूम बच्ची को गोद में उठा। अपने कहे जाने वाले रिश्तो ने ही पूरी दुनिया को उसके लिए गलीच बना दिया। पग पग पर उसे चीड़ सी जलती अग्नि पर कितने सच्चे झूठे रिश्ते निभाने पड़े। ताउम्र इस ब्लैक होल से निकलने वाले कीड़े आज भी उसके संवेदनशील जिस्म पर रेंग रहे हैं।कैसे उस स्त्री को उसके अपने ही प्रारब्ध की वेदी, वेदना,मनहूस समझ अपने से दूर झटक देते हैं। अवसाद कुछ नहीं होता। सब बकवास है।
सच है सबसे ज्यादा खून रोटी के लिए बहाए गए।
वेदनाओं के विचारो, स्वयं के निर्वात व्योम में ही विचरण करती छटपटाहट, घबराहट, आत्महत्या को आतुर कैसे जीवन से जंग लड़नी है। वह नन्ही बच्ची बड़े होते होते भी धीरे-धीरे मृत कणों में विभक्त करूंण क्रंदन सी धीमी गति को धीमे जहर की तरह रोज पीती है। डरी सहमी ,वो रंगों की माया नगरी में कैसे अपने ब्लैक एंड व्हाइट जीवन में विचरण करती है।एक सुदृढ़ गृहिणी बहु,बेटी, बहन,पत्नी, मां कितने रिश्तो के दायित्व, कर्तव्य बोध को साथ निभाते हुए भी हतोत्साहित ,प्रताड़ित की जाती है। हौसला तो देखिए पीड़ा की पराकाष्ठा को पुस्तक का रूप देना भी जिसके अपनों को गवारा नहीं होता।जीते जी पितृसत्तात्मक, रूढ़िवादी समाज में एक औरत के लिए आत्मकथा की अभिव्यक्ति का खतरा उठाना आसान नहीं। अति सत्य थोड़ा घिनौना ,विचलित करने वाला भी होता है।
चाहे वह स्वयं का हो या अन्य का, बड़ी ही बेबाकी, निडरता ,साहस से समाज का आइना दिखा रहा है। मानसिक अवसाद में मनोचिकित्सकों की संवेदनहीनता, पेशेंट को पैसा छापने की मशीन समझना भी साफ दिखाई देता है। दुखों का दोहरीकरण थोड़ा उड़ाऊ लग सकता है किन्तु यह ना होता यदि उसे भी ठीक से पढ़ा गया होता।
एकता शर्मा