अन्ना, केजरीवाल के एक पृष्ठ बाद!

विकास कुमार गुप्ता
विकास कुमार गुप्ता

भारत में बहुत से आन्दोलन हुये है। हाल के वर्षों में हुये आन्दोलनों में अन्ना-केजरीवाल आन्दोलन सबसे प्रबल और सशक्त रहा। इनका मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार मिटाने को लेकर था। लेकिन आन्दोलन बिना किसी प्रतिफल के धाराशायी हो गया। भ्रष्टाचार को लेकर हमारे देश में पहले से ही इतने अधिक कानून है कि यदि उन्हीं कानूनों का पालन सही तरीके से हो जाये तो भ्रष्टाचार काफी हद तक कम हो जायेगा। लेकिन उन कानूनों का पालन करवाने वाले यदि स्वयं ही लिप्त हो तो अथवा उनके करीबी लिप्त हो तो आखिर कार्रवाई कैसे हो सकती है? भ्रष्टाचार से से लड़ना और उसे खत्म करने की कार्रवाई होनी चाहिये लेकिन यदि भ्रष्टाचार के पीछे के मौजूद कारणों को खत्म कर दिया जाय तो भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जायेगा, पेड़ की डाली कांटने-छांटने से पेड़ का अस्तित्व कभी खतम नहीं होने वाला। वैसे ही भ्रष्टाचार के डाली से कांटने-छांटने से नहीं वरन इसके जड़ को नष्ट करना होगा। जड़ को नष्ट करने के लिये जड़ तक पहुंचना भी होगा तभी यह खतम हो सकता है। एक पुरानी कहावत है एक बार एक संन्यासी दीक्षा प्राप्त करने के लिये एक प्रख्यात गुरु के पास गया और शिक्षा ग्रहण ही कर रहा था कि एक दिन किसी दूसरे संन्यासी का आना हुआ। नये संन्यासी ने आते ही वेदों, पुराणों का उद्धरण दे-देकर अपने ज्ञान का प्रभाव जमा रहा था। शिक्षारत संन्यासी भी काफी प्रभावित हुआ। 2 घंटे लगातार बोलने के बाद जब संन्यासी ने गुरु से अपने ज्ञान के बारे में पुछा तब गुरु ने कहा बेटा ये दो घंटे तुमने जो बोला वह तुमने नहीं वेदों और पुराणों ने बोला तुमने क्या बोला? इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं था। जिस दिन तुम्हें लगने लगे की तुम स्वयं बोलने में समर्थ हो गये उस दिन मेरे पास आना। और वह नवागत संन्यासी वापस ज्ञानाभ्रमण के लिये चला गया। इस देश में चीन, जापान और यूरोप के उद्धरण देने वालों की संख्या दिन दूनी रात चौगूनी बढ़ रही है। और यह इतना अधिक बढ़ गया है कि अब हम किसी को प्रभावित करने के लिये विदेशी भाषा तक को बोलने लगे है। हमारी शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था से लेकर सभी व्यवस्थायें यूरोप के मॉडलों की कॉपी ही तो है। जब हम कॉपी और मोडिफाई करने में असक्त हो गये तो हुबहू उठाने लगे हैं। कान्वेन्ट स्कूल इसका सबसे उचित उदाहरण है। एक प्राचीन घटना है एक अंतरिक्ष का ज्ञाता रात्रि में आसमान की ओर देखते हुए गांव की पगडंडी पर चल रहा था। वह इतना मग्न था कि उसे पता ही नहीं चला और रास्ते से भटककर गड्ढ़े में जा गिरा। उसके बाद वह चिल्लाता रहा। कुछ दूरी पर एक वृद्ध महिला का झोपड़ा था। वह महिला आवाज सुनकर आयी और उसकी मदद से वह विशेषज्ञ बाहर निकला। बाहर आने पर उसने वृद्ध महिला से कहा माताजी हम अंतरिक्ष के बहुत बड़े विशेषज्ञ है। बड़े-बड़े राजा महाराजा हमसे राय लेते है। इसपर वृद्ध महिला ने कहा बेटा सब ठीक है लेकिन जब जमीन से ही भटक जाओगे तो अंतरिक्ष ज्ञान का क्या करोगे? कुछ यही स्थिति हमारे देश की है हम हमेशा से ही यूरोप की तरफ देखते आ रहे है। वह अंतरिक्ष विशेषज्ञ तो वृद्ध महिला की मदद से बाहर भी निकल गया लेकिन हम 6 करोण की जनसंख्या वाले ब्रिटेन द्वारा उस गड़ढे में गिरा दिये गये है कि निकलना मुश्किल हो चुका है। भरी गर्मी में देश के नीति नियंता वकील और जज कस-कसके कोट और मोटे-मोटे कपड़े पहन कर न्यायालय में जाते है और फिर एसी से खुद को ठंडा करते है। और फिर न्यायालय में कैसे और कितने सालों में फैसला होता है वह सभी को पता है। थानों से लेकर हर उस जगह जहां हमें अधिकार मिलना चाहिये क्या होता है सब जानते है? किसी भी गड्ढे से बाहर निकलने के लिये एकता की आवश्यकता होती है लेकिन हमारे देश में एकता तो दूर अनेकता ही अनेकता व्याप्त हो चुकी है। हम भ्रष्टाचार की ओर देखते है लेकिन इसके मुल के तरफ नहीं। इसका मूल यूरोपीय कानूनों और और हमारे देश में फैले अनेकता और अज्ञानता में है। जाति, भाषा, धर्म से लेकर हर जगह अनेकता ही अनेकता है। मति भिन्नता है। कुछ लोगो का धर्म है गाय खाना तो कुछ का धर्म है गाय की पूजा करना। कुछ पूर्व की तरफ देख रहे है तो कुछ पश्चिम की तरफ। कुछ अंग्रेजी के दिवाने है तो कुछ हिन्दी, तमिल, तेलुगु, मराठी आदि की माला जप रहे है। हजारों विदेशी कंपनीयां हमारे देश में आकर अपने देश का उत्पाद और कच्चा माल यहां खपा रहे है और यहां की पूंजी अपने यहां ले जा रहे है। और उस पैसे से यहां के खादान्न, नदियां और प्राकृतिक सम्पदायें दोनो हाथों से खरीद रहे है। और हमे कर्ज भी दे रहे है और ब्याज भी ले रहे है। और यही विदेशी कंपनीयां मेट्रों से लेकर रोड तक का निर्माण कर रहीं है और हमसे टॉल टैक्स भी वसूल रही हैं। हिटलर ने कहा था कि कोई भी ऐसा झूठ नहीं है जिसे बार-बार बोलकर सच न बनाया जा सके। अंग्रेजी और यहां के कानूनों की भी यही स्थिति हैं।
भारत में शायद ही ऐसा कोई सरकारी कार्य हो जिसको पूरा करने के लिए जूते के सोल न घीसाने पड़ जायें। अंग्रेजी राज का लाइसेंसी कानून आज भी चल रहा है और इसके कठिन प्रक्रिया को पूरा न कर पाने के मजबूरी में हमारी जनता भ्रष्टाचार में संलिप्त होने को विवश है। ड्राइविंग लाइसेन्स बनवाने से लेकर, पासपोर्ट, ठेकेदारी का अनुबंध अथवा सरकारी मशीनरी से जुड़़े हुये लगभग कार्य इतने दुरूह है कि उनको पूरा करने के लिए हमारे देश के लोगों को बहुधा जुगाड़ लगाना ही पड़ता है। ठेकेदारी या अन्य किसी योजना में सरकारी अधिकारी ठेकेदार अथवा लाभार्थी को इतना चूस लेते है कि योजना का फायदा अगर सही मायने में होता है तो इन लूटेरे अधिकारियों को। आज भारत कर्ज में इतना डूब चुका है और विदेशी कंपनीयों की माया हमारे देश इतना अधिक फैल रहा है कि अगर इसे नहीं रोका गया तो इस देश की स्थिति उन देशों में होने लगेगी जहां भूखमरी व्याप्त हो चुकी है।
एक चर्च था जो इतना जर्जर हो चुका था कि कब गिर जाये उसका ठीक न था। आंधी चलती, बिजली कड़कती तो लोग घर से बाहर आकर चर्च को देखते कि गिरा की नहीं। चर्च के जो पादरी थे वे घर-घर जाकर चर्च में आने की प्रार्थना तो करते लेकिन स्वयं वे कभी भी चर्च में नहीं जाते थे। मीटिंग भी करते तो चर्च के बाहर। एक दिन मीटिंग में नया चर्च बनाने को लेकर प्रस्ताव पारित हुआ। चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें पहला था कि जो नया चर्च बनेगा वह पुराने चर्च के स्थान पर ही बनेगा, दूसरा ये कि जो नया चर्च बनेगा उसमें पुराने चर्च की लकड़िया और ईंटे प्रयोग में लायी जायेंगी और, तीसरा ये की जैसा पुराना चर्च था ठीक वैसा ही नया चर्च भी बनेगा और चौथा ये की जब तक नया चर्च बन नहीं जाता पुराना चर्च नहीं तोड़ना। विचारणीय है कि जब तक पुराना तोड़ा नहीं जाता नया कहां से बन जायेगा? ठीक यही स्थिति भारत का भी है। यहां के जो कानून गुलामों के लिए बनाये गये वहंी कानून हमपर भी चल रहा है। सभी व्यवस्थाओं को भारतवासियों के अनुकूल बनाना होगा तभी यहां परिवर्तन हो सकेगा। पुराने चर्च को तोड़कर नया चर्च जितनी जल्दी बनाया जा सकेगा उतना ही अच्छा रहेगा।
असली समस्या भ्रष्टाचार नहीं वरन भ्रष्टाचार के पीछे छुपे वे कारण है जो भ्रष्टाचार के लिए उत्तरदायी है। गलत विदेश नीति, अंग्रेजी गुलामी मानसिकता से ओतप्रोत कानून, अंग्रेजी अत्याचार वाली मानसिकता से लिप्त सरकारी नजरिया आदि। भारत को जितना जल्दी हो सके राष्ट्रमंडल की सदस्यता को छोड़ देना चाहिए और जितने भी डबल टैक्सेसेशन अवाएडेन्स ट्रीटी है और अत्याचार की प्रेरणा से लिप्त वैश्विक सदस्यता हैं का भी त्याग करना चाहिए। तभी आत्मनिर्भर, स्वदेशी आत्मसम्मान से ओतप्रोत भारत निर्मित होगा।
-विकास कुमार गुप्ता
लेखक पी-न्यूजडॉटइन के सम्पादक हैं इनसे 9451135000, 9451135555 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

error: Content is protected !!