राहुल गांधी! राजनीतिक मंत्र क्या है पार्टनर?

पुण्य प्रसून वाजपेयी
पुण्य प्रसून वाजपेयी

-पुण्य प्रसून बाजपेयी- देखने में खूबसूरत हैं। अंग्रेजी भी अच्छी बोल लेते हैं। हर जिम्मेदारी से भागते भी हैं। देश को सुधारने की बात भी लगातार करते हैं। और नारा पार्टी, पार्टी, पार्टी का लगाते रहते हैं। जी, यह राहुल गांधी हैं। नेहरु-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी। जिसकी राजनीति कांग्रेस में सुधार चाहती है। यानी तीन पीढ़ियों से इतर जो देश चलाने में सुधार की बात करती रही लेकिन राहुल तक आते आते बात कांग्रेस में सुधार की हो रही है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राहुल गांधी 2014 की दौड़ में है ही नहीं। या फिर यह माना जाये कि अगर कांग्रेस राहुल की सोच के मुताबिक सुधर जाये तो कांग्रेस ही इंडिया हो जायेगी जैसे एक वक्त दि इंदिरा इज इंडिया था। इसका जवाब हां भी है और नहीं भी। हां इसलिये क्योंकि बिना जिम्मेदारी राहुल गांधी मान चुके हैं कि कांग्रेस का मतलब ही इंडिया है और कांग्रेस में गांधी परिवार हमेशा से सत्ताधारी रहा है। और नहीं इसलिये क्योंकि राहुल कोई जिम्मेदारी लेने के लिये आगे आते नहीं है। ध्यान दें तो मौजूदा परिस्थितियां इन्हीं हालातों के बीच एक ऐसी लकीर खींच रही है, जहां राहुल को सत्ता में लाने के लिये कांग्रेस को पूर्ण बहुमत चाहिये। और पूर्म बहुमत मिल नहीं सकता है तो संघर्ष करते हुये 2014 में पिछड़ती कांग्रेस में लगातार सुधार की आवाज राहुल उठाते रहेंगे। चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी में यह सोच क्यों आयी है या कहे बिना जिम्मेदारी की राजनीति की समझ को ही श्रेष्ठ गांधी परिवार ने क्यों माना। इसके लिये मौजूदा दौर की संसदीय राजनीतिक व्यवस्था को भी ठोक-बजा कर देखने की जरुरत है। राजीव गांधी की हत्या और सोनिया गांधी के कांग्रेस के मुखिया के तौर पर संभालने के बीच सात बरस तक गांधी परिवार कांग्रेस से दूर भी थी और सात में से पांच बरस काग्रेस सत्ता में भी थी। अप्रैल 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस को संभाला उस वक्त तक कांग्रेस ही नहीं देश भी मान चुका था अब किसी राजनीतिक पार्टी के लिये “एकला चलो” की सोच दूर की गोटी हो चली है। ध्यान दें तो इसी सोच को मनमोहन सिंह ने बीते 9 बरस में और पुख्ता ही किया है। और इसी नौ बरस में राहुल गांधी अमेठी से बतौर सांसद मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े भी।


राहुल गांधी की राजनीति और मनमोहन सिंह सरकार के कामकाज ने कई बार दिखायी बताया कि दोनों के रास्ते बिलकुल जुदा हैं। लेकिन हर बार राहुल की तुलना में मनमोहन सरकार सोनिया गांधी की ज्यादा जरुरत बने क्योंकि राहुल बिना जिम्मेदारी के खुद के लिये वैसे ही संघर्ष करते नजर आये जैसे वर्तमान में कोई कांग्रेसी सिर्फ और सिर्फ खुद की जीत के लिये संघर्ष करते हुये नजर आ रहा है। यानी कांग्रेसी सांसद को कांग्रेस के चुनाव चिन्ह से ज्यादा सरोकार नहीं है और गांधी परिवार की राजनीति भी किसी कांग्रेसी को चुनाव चिन्ह से ज्यादा देने की स्थिति में है भी नहीं। तो हर कांग्रेसी का महत्व यही है कि वह अपने क्षेत्र में चुनाव जीत जाये तो हर कांग्रेसी के लिये खुद की जीत को पुख्ता बनाने के लिये हर तरह की जोड़-तोड़ को अंजाम देना ही महत्वपूर्ण हो चला है। यहां ना तो राहुल गांधी के इमानदारी भरे भाषण मायने रखते हैं और ना ही कांग्रेस की परंपरा। हर कांग्रेसी सांसद के पास आज की तारीख में इतनी पूंजी है कि वह कई पुश्तो की सियासत कर सकता है। तो ऐसे में कांग्रेसी समझ से ज्यादा खुद को बनाये रखने की सियासत कांग्रेसियो की ज्यादा है। यह समझ गांधी परिवार के जादू खत्म होने का भी संकेत है और मौजूदा चुनावी राजनीति में जमी काई के पत्थर हो जाने का भी संकेत है।

तो क्या राहुल गांधी का भविष्य वर्तमान संसदीय राजनीति पर उठते सवालो से कटघरे में खड़ा है या फिर राहुल गांधी खुद को गांधी परिवार की उस राजनीति में ढाल नहीं पाये जिसकी लीक मोतीलाल नेहरु ने खींची और जवाहर लाल से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक उसपर चले। 1991 से 1998 तक सोनिया गांधी ने इस लीक को नहीं समझा तो 2004 से 2013 तक राहुल गांधी भी इस लीक को समझ नहीं पा रहे है कि आखिर क्यों। यह सवाल राहुल गांधी के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि बीते 22 बरस से गांधी परिवार ने देश में कोई सीधी जिम्मेदारी ली नहीं है और जिन्होने कांग्रेस हो कर जिम्मेदारी संभाली उन्होंने गांधी परिवार के सत्ता संभालने के तौर तरीको को ही मटियामेट कर दिया। उसमें खासतौर से मनमोहन सिंह- चिदबरंम की जोड़ी। आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने 1991 में बतौर वित्त मंत्री बनकर शुरु की, अगर अब के दौर में उसे बारिकी से देखें तो 2004 में चिदंबरम ने उन्हीं नीतियों के कैनवास को मनमोहन सिंह की अगुवाई में और व्यापक किया। देश में खनन और टेलीकॉम को निजी कंपनियों के जरीये खुले बाजार में ले जाने का पहला खेल बीस बरस पहले नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ। उस वक्त मनमोहन सिंह अगर वित्त मंत्री थे तो चिदंबरम वाणिज्य राज्य मंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार देख रहे थे। उस दौर में आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों तले भारतीय आर्थिक नीतियां जिस तेजी से करवट ले रही थीं और सबकुछ खुले बाजार के हवाले प्रतिस्पर्धा के नाम पर किया जा रहा था, उसमें पहली बार सवाल सिक्यूरटी स्कैम के दौरान खड़ा हुआ और पहली कुर्सी चिदंबरम की ही गई थी। उन पर फेयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था। लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदंबरम की वकालत की थी। और जुलाई 1992 में गई कुर्सी पर दोबारा फरवरी 1993 में चिदंबरम को बैठा भी दिया था। अगर अब के दौर में चिदंबरम पर लगते आरोपों तले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल देखें तो अठारह बरस पुराने दौर की झलक दिखायी दे सकती है। क्योंकि वित्त मंत्री रहते हुये चिदंबरम ने जिन जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिये और मनमोहन सिंह ने खुली वकालत की, उसकी झलक शेयर बाजार से लेकर खनन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की आई बाढ़ समेत टेलिकॉम और बैकिंग प्रणाली को कारपोरेट घरानों के अनुकूल करने की परिस्थितियों से भी समझा जा सकता है।

चिदबरंम ने आर्थिक विकास की लकीर खिंचते वक्त हमेशा सरकार को बिचौलिये की भूमिका में रखा। मुनाफे का मंत्र विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना माना। कॉरपोरेट और निजी कंपनियो के हाथों में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर तक को बंधक बनवाया। यानी नब्बे के दशक तक जो सोच राष्ट्रीय हित तले कल्याणकारी राज्य की बात कहती थी, उसे बीते बीस बरस में मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी ने निजी कंपनियो के मुनाफे तले राष्ट्रीय हित का सवाल जोड़ दिया। और इसी सोच के उलट राहुल गांधी पहल करते हुये दिखना चाहते हैं।

असल में कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियों के आसरे आर्थिक विकास का जो खेल इन बीस बरस में लगातार चला अगर उसकी नींव को देखे तो सबसे बड़ा सवाल उस पूंजी की आवाजाही का है, जो बेरोक-टोक हवाला और मनी-लैडरिंग के जरीये देश में आती रही। और इसने चुनावी तंत्र को ही सीधे प्रभावित कर दिया है। और संसदीय राजनीति ही इस कारपोरेट पूंजी के आगे नतमस्तक हो चुकी है। असर इसी का है कि राज्यसभा ही नहीं लोकसभा में जनता के वोट से चुनाव जीतने का तंत्र भी कारपोरेट पूंजी पर जा टिका है। और कांग्रेस के तमाम महारथी इसी कारपोरेट पूंजी को आधार बनाये हुये हैं। जबकि दूसरी तरफ कारपोरेट के साथ राजनेताओ के सरोकार ने आम लोगो के बीच संसदीय राजनीति से ही मोह भंग की स्थिति पैदा कर दी है। और गांधी परिवार की चौथी पीढी पर सवालिया निशान इसलिये ज्यादा गहरा है क्योकि संसदीय राजनीति से इतर देश पहली बार स्टेटसमैन की खोज में राष्ट्रीय नेता देखना चाहता है और राहुल गांधी संसदीय राजनीति के तंत्र में खुद को कांग्रेस का नेता बनाये रखना चाहते हैं।

तो राहुल गांधी या काग्रेस का राजनीतिक सच दो स्तर पर है। पहला राहुल गांधी की राजनीतिक चालें और उन्हे घेरे नेताओ की जरुरतें। दूसरा, गैर कांग्रेसी राज्यों में काग्रेस का घटता कद। राहुल की राजनीति चाल काग्रेस के दाग को उभारती है। राहुल को घेरे नेता तिकड़मी और दागदार छवि वाले ज्यादा है। फिर कांग्रेस अभी भी किसी कांग्रेसी को कांग्रेस का चेहरा बनने नहीं देती। जबकि इसी दौर में चुनावी राजनीति, राजनीतिक दलो की साख से खिसक कर नेताओं की साख पर जा टिकी है। और कांग्रेस में सत्ता से लेकर सड़क की राजनीति करने में किसी की साख है तो गांधी परिवार की ही है, जो जिम्मेदारी से मुक्त है तो फिर राहुल के राजनीतिक उवाच का मतलब क्या है। राहुल की मौजूदा परिस्थिति को देखते ही हर किसी के जहन में तुरंत सवाल उभरता है कि क्या कांग्रेस में सत्ता भी गांधी परिवार को संभालनी है और सड़क पर संघर्ष भी गांधी परिवार को करना है। क्योंकि कांग्रेस के लिये संघर्ष करने वाले नेता है कहां। और क्या 1989 में राजीव गांधी के सत्ता गंवाने के बाद गांधी परिवार का भविष्य यही है कि वह कांग्रेस के लिये संघर्ष करें और सत्ता बिना आधार वाले नेता संभाले। दरअसल जो सवाल कांग्रेस के सामने है या कहें मनमोहन सरकार के सामने है अगर दोनो में तारतम्य देखा जाये तो मनमोहन सिंह हो या काग्रेस संगठन दोनों इस दौर में मुश्किल में हैं और दोनों का संभालने की जिम्मेदारी गांधी परिवार की है। लेकिन सरकार गांधी परिवार के हाथ में सीधे नहीं है और संगठन बनाने में राहुल गांधी के युवा भत्ती अभियान छोड दें तो संगठन को व्यापक बनाने के लिये कुछ हो भी नहीं रहा है।

यहीं से अब के दौर की वह राजनीतिक परिस्थितियां खड़ी होती है जो किसी भी कांग्रेसी को परेशान करेंगी कि आने वाले दौर में कांग्रेस का हाथ कितना खाली हो जायेगा। उत्तर प्रदेश से लेकर आध्र प्रदेश और बंगाल ,बिहार से लेकर तमिलनाडु तक की गद्दी संभालने वाला कोई कांग्रेसी निकलेगा नहीं , जिसकी कनेक्टिविटी आम वोटर से कांग्रेस के नाम पर हो। यानी वोटरों से जुड़ाव के लिये जाति, धर्म , जरुरत या मजबूरी , जो भी होनी चाहिये वह कांग्रेस के पास नहीं है। और कांग्रेस गांधी परिवार के जरीये इन मुद्दों से इतर जो लोभ इन पांच राज्यो में दूसरे दल जनता को देती है वह केन्द्र की सत्ता से मिलने वाली सुविधा की पोटली या पैकेज है। यानी सौदेबाजी का लोभ भी कांग्रेस का हथियार बन जायेगा और इसे लागू कराने में गांधी परिवार से लेकर सरकार तक भिड़ जायेगी, यह किसने सोचा होगा।

इसलिये राहुल के सामने दोहरी चुनौती है । एक तरफ यूपी, बिहार, बंगाल, तमिलनाडु की दौ सौ लोकसभा सीट पर कांग्रेस है कहां, यह राहुल गांधी तक को नहीं पता और इसी दौर में किसानों को केन्द्र का मुआवजा देने या बुदेलखंड या पूर्वोत्तर के लिय पैकेज के एलान से लेकर कैश ट्रांसभर या फूड सिक्यूरटी के ऐलान से ग्रामीण क्षेत्र की 196 सीटों पर काग्रेस को क्या लाभ होने वाला है, इसकी भी कोई राजनीतिक कवायद राहुल गांधी ने की नहीं है। तो फिर कांग्रेस किस भरोसे 2014 में जा रही है। भरोसा ठीक वैसा ही है जैसे गांधी परिवार की महत्ता को बता कर मनमोहन सिंह खुद को टिकाये रहे है। लेकिन राहुल गांधी यह कभी समझ नहीं पाये कि सरकार उनकी। सरकार का रिमोट उनके हाथ में। बावजूद इसके कांग्रेसियों को ही गांधी परिवार पर भरोसा नहीं कि उनकी चुनावी जीत में कोई भूमिका राहुल गांधी की हो सकती है। और राहुल गांधी में वह औरा नहीं बच रहा जहां कांग्रेस तो दूर कोई कांग्रेसी नेता भी इस दौर में खडा हो सके और बिहार, यूपी, छत्तिसगढ, मध्य प्रदेश,उडिसा , गुजरात,तमिलनाडु, आध्र प्रदेश में अपने बूते कांग्रेस का कद बढाने की हैसियत रखता हो।

तो क्या राहुल गांधी के अलावे कांग्रेस का ना कोई चेहरा है ना ही संगठन। यह सच इसलिये क्योकि काग्रेस शासित राज्यो में कौन सा मुख्यमंत्री अपना चेहरा लिये यह यकीन से कह सकता है कि उसके भरोसे कांग्रेस अगली बार भी जीत सकती है। या संगठन इतना मजबूत है कि गांधी परिवार फ्रक्र करें कि सोनिया-राहुल की सभाओं भर से सत्ता काग्रेस के हाथ में आ सकती है। सिर्फ असम में तरुण गगोई ही ऐसे हैं, जो अपने काम के भरोसे अपना अलग चेहरा बना पाये हैं। और उनकी कोई पूछ नहीं है । असल में काग्रेस के भीतर की इस कश्मकश को भी समझना जरुरी है कि गांधी परिवार को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मान कर केन्द्र में रखने के बदले अब जिले से लेकर दिल्ली तक और भ्र्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर भूख मिटाने की जरुरत के लिये लाने वाले खादान्न बिल के अक्स में भी गांधी परिवार को ही क्यों जोड़ा जा रहा है। लोकपाल विधेयक हो या भूमि अधिग्रहण या फिर खाधान्न विधेयक को लेकर राहुल गांधी इतने उत्साहित क्यो हो जाते है। जबकि यह हर कोई जानता है कि सत्ता में बने रहने के लिये लायी जाने वाली नीतिया हमेशा राजनीतिक लूट में तब्दिल होती है और कार्यकर्त्ता यह मानकर चलता है कि उसे लूट का लांसेंस मिलेगा। दरअसल जन-नीतियों को लेकर बाजार अर्थवयवस्था का यह टकराव ऐसे दौर में खुल कर नजर आ रहा है, जब जनता के मुद्दों को राहुल गांधी संभाले हुये हैं और बाजार अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह। और दोनों ही कांग्रेसी हैं। फिर राहुल गांधी के मिशन 2014 की टीम में मनमोहन सिंह कही नहीं है और मई 2014 तक सत्ता संभाले मनमोहन सिंह की राजनीतिक थ्योरी में राहुल गांधी कहीं नहीं है। तो अब सोचिये संसदीय चुनावी राजनीति के मिशन 2014 के लिये राहुल गांधी गुड लुकिंग है। राहुल गांधी अग्रेजी दा है। राहुल गांधी पार्टी पार्टी पार्टी करने वाले नेता है। तो राहुल गांधी का भविष्य पढ़ने वाले तय करें। क्योंकि 2014 के लिये राहुल गांधी के सामने नरेन्द्र मोदी खड़े हैं। और राहुल के लिये यही राजनीतिक ऑक्सीजन है।(ब्लॉग से साभार)

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