तेलंगाना प्रकरण ने साबित कर दी दिग्विजय की काबलियत

digvijay singh 450-शेष नारायण सिंह- 

आमतौर पर भाजपा की राजनीति की हवा निकालने के लिये विख्यात दिग्विजय सिंह ने इस बार राजनीतिक शतरंज की बिसात पर ऐसी चाल चली है कि भाजपा को बिना शह का मौक़ा दिये मात की तरफ बढ़ना पड़ सकता है।

इस बात में दो राय नहीं है कि कांग्रेस में नीतिगत सारे फैसले पिछले 40 वर्षों से हमेशा ही कांग्रेस अध्यक्ष का होता रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष की निर्णय लेने की शक्ति की क्षमता की पहचान इस बात से होती है कि अपने फैसले लागू करने के काम में सहयोगी कौन बनाया जाता है। इस बात में दो राय नहीं है कि तेलंगाना का फैसला कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला है। उसकी राजनीति को अधिकतम लोगों की स्वीकार्यता का विषय बनाने का काम उन्होंने आंध्र प्रदेश के इंचार्ज महासचिव, दिग्विजय सिंह को दिया। संप्रग और कांग्रेस की तरफ से फैसले को सार्वजनिक किये जाने के तीन दिन बाद साफ़ हो गया है कि तेलंगाना की स्थापना से जहाँ उस इलाके के लोगों के साथ एक ऐतिहासिक ईमानदारी का कर्त्तव्य निभाया जाएगा, वहीं चुनावी हिसाब किताब से भी यह फैसला कांग्रेस के लिये बहुत ही उपयोगी साबित होगा।

इस घटना ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत भी दिया है। देश में सत्ता की राजनीति में दिग्विजय सिंह का कद लगातार बढ़ रहा है। कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर के बाद माना जा रहा था कि पार्टी की नीतियों के प्रचार प्रसार का ज़िम्मा दिग्विजय सिंह को दिया जायेगा। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद है और आम तौर पर माना जाता है जो इस पद पर बैठ जाता है उसकी तरक्की अवश्यम्भावी हो जाती है। लेकिन जब पदाधिकारियों के काम का पुनर्गठन हुआ तो संचार का काम किसी और को दिया जा चुका था। दिग्विजय विरोधियों ने डुगडुगी बजा दी थी कि दिग्विजय सिंह का पत्ता कट चुका है। लेकिन अब समझ में आ रहा है कि सोनिया गांधी पिछले कई वर्षों से जिस रणनीति पर काम कर रही थीं, उसको पूरा करने का काम उन्होंने दिग्विजय सिंह को सौंपा दिया था। हाँ ,यह दिग्विजय सिंह की काबिलियत है कि उन्होंने एक राजनीतिक फैसले को चुनावी लिहाज़ से भी लाभप्रद बनाने की कोशिश की।

शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं।
शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं।

तेलंगाना का फैसला किसी भी कांग्रेस अध्यक्ष के लिये बहुत कठिन फैसला हो सकता था। सब को मालूम है कि जवाहरलाल नेहरू चाहते हुए भी यह फैसला नहीं ले पाए थे। इसलिये सोनिया गांधी के लिये यह मामूली हिम्मत की बात नहीं है। लेकिन उस से भी बड़ी हिम्मत की बात यह है कि उन्होंने दिग्विजय सिंह को इस कठिन काम को करने के लिये चुना। आजकल नरेंद्र मोदी और बाबा रामदेव ब्रिगेड के पत्रकारों ने ऐसा माहौल बना रखा है कि लगता है कि मीडिया दिग्विजय सिंह के खिलाफ है। ऐसी हालत में सोनिया गांधी ने उन्हें अपने राजनीतिक जीवन के के एक मुश्किल काम को लागू करने का ज़िम्मा देकर बड़ा जोखिम उठाया था। यह जोखिम उन्होंने एक बार और उठाया था जब उन्होंने दिग्विजय सिंह को आर एस एस की साम्प्रदायिकता और आतंकवाद से उसके सम्बंधों को बेनकाब करने का ज़िम्मा दिया था। उस काम में भी कांग्रेस सफल रही थी। आजकल आर एस एस के उस सिद्धांत की हवा निकल चुकी है जिसमें भाजपा के नेताओं को घूम- घूमकर कहना पडता था कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने नियमित प्रयास से साबित कर दिया है कि आतंकवादी आर एस एस वाला भी हो सकता है और लश्कर-ए-एतैय्यबा वाला भी। यह काम भी सोनिया गांधी ने दिग्विजय सिंह से ही करवाया था। आज उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि देश का कोई भी पढ़ा लिखा आदमी बता देगा कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जबकि हिंदू धर्म एक पवित्र धर्म है। दिग्विजय सिंह ने यह भी साबित कर दिया है कि असली हिंदू साम्प्रदायिक नहीं होता क्योंकि वे खुद असली हिंदू हैं।
कांग्रेस के सबसे ज़रूरी काम को करने का ज़िम्मा दिग्विजय सिंह पर डालने का सोनिया गांधी का फैसला भी गैरमामूली है क्योंकि दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सत्ता गँवाई थी। उस हार में दिग्विजय सिंह की जिम्मेदारी सबसे ज़्यादा थी लेकिन सोनिया गांधी ने उनपर भरोसा किया तो इसके लिये सोनिया की राजनीतिक सूझबूझ और जोखिम लेने की शक्ति का भरोसा किया जाना चाहिए।

तेलंगाना के बाद जिन राज्यों से भी छोटे राज्यों की मांग उठ रही है, न इलाकों में कांग्रेस को थोड़ी संभावना नज़र आने लगेगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश की माँग चल रही है, अजित सिंह उसके साथ हैं। अब उनको कांग्रेस के साथ रहना पड़ेगा क्योंकि अब यह संकेत साफ़ पढ़े जा सकते हैं कि कांग्रेस ही छोटे राज्य बना सकती है। उनके इलाके के मुसलमान वैसे भी कांग्रेस के साथ हैं। अजित सिंह के जनाधार से मिलकर कांग्रेस की जीत हो सकती है। यही हाल बुंदेलखंड का है। बुंदलेखंड में भी छोटे राज्य की माँग बहुत मज़बूत है। जो भी उसे समर्थन देगा जनता उसके साथ चली जायेगी। आंध्र प्रदेश की बात तो बिलकुल अलग है। वहाँ आज की तारीख में कांग्रेस खस्ताहाल में है। लेकिन अब तेलंगाना राष्ट्र समिति उसके साथ हो जायेगी तो तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस सफल रहेगी इस तरह से आंध्र प्रदेश की 42 सीटों में शून्य की तरफ बढ़ रही कांग्रेस बड़े मज़े में तेलंगाना में सफल हो सकती है। जो भी हो तेलंगाना का फैसला जहाँ एक ऐतिहासिक गलती को सुधारने की कोशिश है वहीं चुनावी लिहाज़ से भी दमदार रणनीति है।

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