दो गजलें

देवी नागरानी
देवी नागरानी

 

8ग़ज़लः 1

हमें अपनी हिंदी ज़बाँ चाहिये

सुनाए जो लोरी वो माँ चाहिये

 

कहा किसने सारा जहाँ चाहिये

हमें सिर्फ़ हिन्दोस्ताँ चाहिये

 

जहाँ हिंदी भाषा के महकें सुमन

वो सुंदर हमें गुलसिताँ चाहिये

 

जहाँ भिन्नता में भी हो एकता

मुझे एक ऐसा जहाँ चाहिये

 

मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ

वतन ऐसा जन्नतनिशाँ चाहिये

 

तिरंगा हमारा हो ऊँचा जहाँ

निगाहों में वो आसमाँ चाहिये

 

खिले फूल भाषा के ‘देवी’ जहाँ

उसी बाग़ में आशियाँ चाहिये.

 

देवी नागरानी

 

ग़ज़लः 2

अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल

खुश्क होठों की तिश्नगी है ग़ज़ल

 

उन दहकते से मंज़रो की क़सम

इक दहकतीसी जो कही है ग़ज़ल

 

नर्म अहसास मुझको देती है

धूप में चांदनी लगी है ग़ज़ल

 

इक इबादत से कम नहीं हर्गिज़

बंदगी सी मुझे लगी है ग़ज़ल

 

बोलता है हर एक लफ़्ज़ उसका

गुफ़्तगू यूँ भी कर रही है ग़ज़ल

 

मेहराबाँ इस क़दर हुई मुझपर

मेरी पहचान बन गई है ग़ज़ल

 

उसमें हिंदोस्ताँ की खु़शबू है

अपनी धरती से जब जुड़ी है ग़ज़ल

 

उसका श्रंगार क्या करूँ ‘ देवी’

सादगी में भी सज रही है ग़ज़ल

-देवी नागरानी

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