आम आदमी पार्टी की अग्नि परीक्षा होगी दिल्ली विधानसभा चुनाव में

aam aadmi parti thumbडॉ. मनीष कुमार काजल की काली कोठरी के बाहर रह कर खुद को बेदाग कहना आसान है, लेकिन काजल की काली कोठरी के अंदर रह कर खुद को बेदाग रखना ही असली परीक्षा है. आम आदमी पार्टी राजनीति की काली कोठरी से अब तक बाहर है. अभी अंदर गई भी नहीं है, लेकिन इसके अंदाज बदलने लगे हैं. राजनीतिक दलों वाली बीमारियां इसे ग्रसित करने लगी है. पार्टी कार्यकर्ता ही झूठ, फरेब और धोखाधड़ी के आरोप लगा रहे हैं. पैसे का हिसाब मांगा जा रहा है. उम्मीदवारों के सेलेक्शन पर पार्टी बंट चुकी है. आम आदमी पार्टी यानी आप का अब बाप यानी भारतीय आम आदमी परिवार बन चुका है. अरविंद केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी दिल्ली में चुनाव लड़ने जा रही है. इसका दिल्ली के चुनाव व देश की राजनीति पर क्या असर होगा, यह समझना जरूरी है.

कुछ दिन पहले की बात है. आम आदमी पार्टी को चुनाव चिन्ह झा़डू मिल चुका था. दिल्ली के कनॉट प्लेस में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता पोस्टर लगा रहे थे. कुछ देर बाद उन्होंने ऑटो रिक्शा वालों से गुजारिश की कि वे अपने-अपने ऑटो के पीछे आम आदमी पार्टी के पोस्टर लगा लें. ऑटो वालों ने मना कर दिया. कार्यकर्ता उन्हें समझाने की कोशिश में जुटे रहे. देश में फैले भ्रष्टाचार व दिल्ली सरकार की कमियों को समझाने की कोशिश की. करीब आधे घंटे तक कार्यकर्ता उन्हें समझाने में लगे रहे. इस दौरान करीब 20 ऑटो वाले जमा हो गए, लेकिन सिर्फ एक ही ऑटो वाला मुफ्त में पोस्टर लगाने को राजी हुआ. इस बात का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे ने अनशन की थी, तो दिल्ली के ऑटो वाले इस आंदोलन में काफी सक्रिय थे. रामलीला मैदान जाने वालों को दिल्ली के ऑटो वालों ने मुफ्त सेवाएं दी थीं. आज आम आदमी पार्टी का पोस्टर लगाने में भी ऑटो वालों को आपत्ति है. 2011 और 2013 के बीच ऐसा क्या हो गया कि लोगों के विचार में इतना फर्क आ गया? क्या यह कोई संकेत है?

आम आदमी पार्टी अन्ना हजारे के आंदोलन से अलग होकर बनी है. अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को लगा कि संसद और विधानसभाओं में जाकर ही भ्रष्टाचार खत्म किया जा सकता है. अरविंद केजरीवाल ने अपना आंदोलन खत्म करके पार्टी बना ली. अन्ना के समर्थक इस पार्टी से अलग हो गए. अन्ना ने अरविंद केजरीवाल को साफ-साफ मना कर दिया कि आम आदमी पार्टी न तो उनका नाम और न ही फोटो का इस्तेमाल कर सकती है. अपनी जनतंत्र यात्रा के दौरान अन्ना कई बार कह चुके हैं कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई व्यवस्था में शामिल हो कर नहीं लड़ी जा सकती और उनके लिए भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी या आम आदमी पार्टी सब एक जैसी हैं और उन्हें इन राजनीतिक दलों से कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन आजकल दिल्ली में एक एसएमएस भेजा जा रहा है. इस एसएमएस में लोगों से आम आदमी पार्टी को वोट देने की अपील की जा रही है. हैरानी की बात यह है कि इस एसएमएस में अन्ना का नाम है और आम आदमी पार्टी को अन्ना का सहयोगी बताया जा रहा है. हकीकत यह है कि अन्ना हजारे को आम आदमी पार्टी से कुछ लेना-देना नहीं है और न ही उन्होंने कभी इसे अपना समर्थन दिया है. इसलिए आम आदमी पार्टी के लिए वोट मांगने वाले एसएमएस में अन्ना का नाम होना लोगों को धोखा देने जैसा है. अब सवाल यह है कि इस एसएमएस का सूत्रधार कौन है? क्या इसे आम आदमी पार्टी द्वारा भेजा जा रहा है?

manish kumarदो स्थितियां संभव है. एक यह कि अरविंद केजरीवाल और दूसरे वरिष्ठ नेताओं के आदेश से यह एसएमएस भेजा जा रहा हो और दूसरा यह कि अरविंद केजरीवाल को इसके बारे में पता न हो. दोनों ही बातें संभव हैं. अगर आम आदमी पार्टी एक नियोजन के तहत वोट के लिए ऐसे एसएमएस भेज रही है, अन्ना के नाम का इस्तेमाल कर रही है, तो इसका मतलब साफ है कि राजनीतिक दलों की बीमारियां इस पार्टी को भी लग चुकी हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए उनके पास न तो अन्ना की अनुमति है और न ही पार्टी ने यह सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है कि वह अन्ना के नाम का इस्तेमाल कर रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का दावा करने वाली पार्टी को कम से कम इतना तो समझ में आना ही चाहिए कि सही क्या है और गलत क्या है? ऐसा भी संभव है कि अरविंद केजरीवाल व पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस एसएमएस के बारे में पता न हो और कुछ कनिष्ठ नेता या कोई उम्मीदवार अपने मन से इस तरह के एसएमएस भेज रहा हो. अगर स्थिति यह है, तो मामला और भी गंभीर है. इसका मतलब यह है कि आम आदमी पार्टी कोई संगठन नहीं, बल्कि अराजक तत्वों का जमावड़ा है, जहां जिसे जो मन में आता है, कर गुजरता है. जब अन्ना ने उनके नाम का इस्तेमाल करने से मना कर दिया था, तब आम आदमी पार्टी के नेता या कार्यकर्ता उनके नाम से एसएमएस कैसे भेज सकते हैं. अगर अरविंद केजरीवाल को इसके बारे पता है, तो ऐसे लोगों के खिलाफ क्या एक्शन लिया गया है और पता नहीं है, तो इसका मतलब यही है कि पार्टी नेताओं के नियंत्रण से बाहर है. ऐसे में आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली में चुनाव लड़ना काफी कठिन साबित हो सकता है.

दरअसल, आम आदमी पार्टी की परेशानी इससे भी गंभीर है. दिल्ली विधानसभा चुनाव महज एक चुनाव नहीं, बल्कि अस्तित्व का सवाल बना हुआ है. यह आम आदमी पार्टी के लिए पहली और आखरी अग्नि परीक्षा है. यह करो या मरो की स्थिति है. कैसे? इसे समझना जरूरी है. आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पार्टी के कार्यकर्ता ही उम्मीदवारों के चयन को लेकर नाराज हैं. नाराजगी की वजह चुनाव प्रक्रिया से ज्यादा कार्यकर्ताओं की महात्वाकांक्षा है. सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता सांसद व विधायक बनने की आशा मन में पाले बैठा है. वैसे तो यह स्थिति न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि प्रजातंत्र के लिए अच्छी बात है, लेकिन अगर पार्टी में सब नेता ही रहे, कोई कार्यकर्ता न बचे, तो पार्टी को चलाना मुश्किल हो जाता है. इसलिए कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करना जरूरी है और उम्मीद तो यही है कि उनकी नाराजगी दूर भी हो जाएगी, लेकिन दिल्ली के चुनाव में क्या होगा? किसे कितना वोट मिलेगा, कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह अभी तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन चुनाव परिणाम के बाद की स्थिति को एनलाइज जरूर किया जा सकता है.

इसमें कोई शक नहीं है कि दिल्ली चुनाव के नतीजों पर आम आदमी पार्टी का भविष्य लटका है. आम आदमी पार्टी पूरी ताकत से चुनाव के लिए तैयारी कर रही है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं से ज्यादा आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता मेहनत कर रहे हैं. यह पार्टी नई है, इसलिए ऐसा करना जरूरी भी है. अरविंद केजरीवाल जिस तरह से प्रचार कर रहे हैं और जिस तरह से उन्होंने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को चुनौती दी है, तो इससे यही लगता है कि आम आदमी पार्टी की रणनीति बहुमत लाने की है. अगर आम आदमी पार्टी को बहुमत मिल जाता है और केजरीवाल सरकार बना लेते हैं, तो इसमें कोई शक नहीं है कि पूरे देश का राजनीतिक माहौल बदल जाएगा. 2014 लोकसभा चुनाव की कहानी कुछ और ही होगी, लेकिन समस्या यह है कि अब तक जितने भी सर्वे आए हैं, उसमें आम आदमी पार्टी को बहुमत मिलता नजर नहीं आ रहा है. आम आदमी पार्टी हर सर्वे में फिसड्डी है.

दो स्थितियां संभव हैं. एक यह कि अरविंद केजरीवाल और दूसरे वरिष्ठ नेताओं के आदेश से यह एसएमएस भेजा जा रहा हो और दूसरा यह कि अरविंद केजरीवाल को इसके बारे में पता न हो. दोनों ही बातें संभव हैं. अगर आम आदमी पार्टी एक नियोजन के तहत वोट के लिए ऐसे एसएमएस भेज रही है, अन्ना के नाम का इस्तेमाल कर रही है, तो इसका मतलब साफ है कि राजनीतिक दलों की बीमारियां इस पार्टी को भी लग चुकी हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए उनके पास न तो अन्ना की अनुमति है और न ही पार्टी ने यह सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है कि वह अन्ना के नाम का इस्तेमाल कर रही है.

इंडिया टुडे-सी वोटर्स के सर्वे के मुताबिक, शीला दीक्षित को 41 फीसद और केजरीवाल को 21 फीसद लोग मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. वैसे यह हैरानी की बात है, लेकिन सच्चाई यही है कि भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद, सर्वे रिपोर्टों में शीला दीक्षित आज भी दिल्लीवासियों के लिए सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं. इस सर्वे के मुताबिक, आम आदमी पार्टी को सिर्फ 9 सीटें मिलेंगी. हालांकि इन सर्वे रिपोर्ट्स पर विश्‍वास नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसे एक संकेत जरूर माना जा सकता है. कहने का मतलब यह है कि दिल्ली में ऐसी स्थिति का निर्माण नहीं हुआ है कि जहां यह दावा किया जा सके कि आम आदमी पार्टी को बहुमत मिल ही जाएगा और यही आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी समस्या है. दिल्ली में अगर किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है, तब आम आदमी पार्टी के सामने यह प्रश्‍न होगा कि वह किसे समर्थन दे. अगर वह कांग्रेस का समर्थन करती है, तो भ्रष्टाचार को गले लगाएगी और अगर बीजेपी को सपोर्ट करती है, तो उस पर सांप्रदायिक होने का टैग लगेगा. एक तरफ खाई, तो दूसरी तरफ कुआं वाली स्थिति होगी. नुकसान सिर्फ आम आदमी पार्टी का होगा. दुविधा यह है कि चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल इस सवाल का जवाब नहीं देंगे कि ऐसी स्थिति में वह किसे समर्थन देंगे. चुनाव के बाद उन्होंने किसी का भी समर्थन किया या वोटिंग में हिस्सा न लेकर किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का मौका दिया, तो लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी लोगों की नजरों में एक विश्‍वसनीय पार्टी नहीं रह पाएगी. आम आदमी पार्टी की छवि मायावती और मुलायम सिहं यादव की पार्टी जैसी होगी, जो संसद के बाहर तो कांग्रेस को भला-बुरा कहती है, लेकिन संसद के अंदर हमेशा मदद के लिए तैनात रहती है.

दिल्ली के चुनाव में एक और स्थिति बन सकती है. आम आदमी पार्टी को 10-20 फीसद वोट मिलती है, लेकिन सीटें नहीं मिलती और कांग्रेस पार्टी फिर से जीत जाती है. शीला दीक्षित फिर से मुख्यमंत्री बन जाती हैं, तब कांग्रेस की जीत का सेहरा आम आदमी पार्टी के सिर पर होगा. यह स्थिति आम आदमी पार्टी के लिए शर्मनाक होगी. लोग उस थ्योरी को सच मानने लगेंगे कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस की सेफ्टी वॉल्व है, जिसे बीजेपी को दूर रखने के लिए मैदान में उतारा गया है. हालांकि इस बात में सच्चाई नहीं है, लेकिन अरविंद केजरीवाल देश में किस-किस को समझाएंगे, पार्टी कार्यकर्ता अपने मुहल्लों में किसे मुंह दिखा पाएंगे, क्योंकि आप जिस सरकार के खिलाफ पिछले 2-3 साल से लड़ रहे हो, वही सरकार आपकी वजह से फिर से जीत गई. आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी छोड़ घर बैठ जाएंगे, क्योंकि ज्यादातर कार्यकर्ता कांग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आकर ही अन्ना के आंदोलन में आए थे, जो बाद में अरविंद केजरीवाल से जुड़े. आम आदमी पार्टी की इमेज एक वोट-कटुआ पार्टी की हो जाएगी, जिसे लोकसभा चुनाव में लोग गंभीरता से नहीं लेंगे और कांग्रेस को जिताने वाली पार्टी के रूप में देखेंगे.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक और स्थिति पैदा हो सकती है कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत जाती है. कांग्रेस हार जाती है. आम आदमी पार्टी को ज्यादा सीटें नहीं मिलती है. तब आम आदमी पार्टी का अस्तित्व निरर्थक हो जाएगा, क्योंकि इसे यही माना जाएगा कि इस पार्टी का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ा. लोग यही कहेंगे कि यह तो पहले से ही तय था कि कांग्रेस इस बार चुनाव नहीं जीत सकती और बीजेपी को जीतना ही था. ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी का लोकसभा चुनाव में शामिल होने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. कहने का मतलब यह है कि आम आदमी पार्टी को अगर अपना अस्तित्व बचाना है, तो इसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी भी कीमत पर बहुमत लाना जरूरी है.

सच्चाई तो यही है कि दिल्ली के लिए यह गर्व की बात होगी, अगर अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनते हैं, लेकिन ऐसी स्थिति बनती दिखाई नहीं देती. अगर आम आदमी पार्टी चुनाव हार जाती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि लोग भ्रष्टाचार और महंगाई से परेशान नहीं हैं. इसका मतलब यह भी नहीं है कि लोग व्यवस्था परिवर्तन नहीं चाहते हैं. समझने वाली बात यह है कि पिछले 67 सालों में राजनीतिक दलों ने चुनावी वातावरण इतना दूषित कर दिया है कि लोगों को राजनीतिक दलों से ही घृणा हो गई है. 2011 का जनलोकपाल आंदोलन सिर्फ अन्ना की वजह से इतना बड़ा बना था, क्योंकि लोग अन्ना में एक संत देखते हैं. लोगों को अन्ना का त्याग दिखाई देता है. अन्ना में सत्ता की लालसा नहीं है, यही बात भारत के लोगों के दिल में समा चुकी है. इसलिए जो समर्थन अन्ना को 2011 में मिला, वह 2013 में अरविंद केजरीवाल को नहीं मिल सकता है. भारत में लोग आंदोलन करने वाले का त्याग देखते हैं और चुनाव लड़ने वालों की आंखो में उन्हें सत्ता की भूख नजर आती है. देश की जनता भी इन दोनों में अंतर करना भली-भांति जानती है. बिना स्वार्थ के आंदोलन करने वालों को देश की जनता का हमेशा समर्थन मिला है, लोगों का प्यार मिला है, जो किसी भी राजनीतिक दलों के नसीब में नहीं है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एमए, एमफिल और पीएचडी की उपाधि हासिल करने वाले मनीषजी राजनीतिक टिप्‍पणीकार के रूप में मशहूर हैं। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया में लंबी पारी खेलने के बाद इन दिनों आप प्रिंट मीडिया में भी अपने जौहर दिखा रहे हैं। फिलहाल आप देश के पहले हिंदी साप्‍ताहिक समाचार-पत्र चौथी दुनिया में संपादक (समन्वय) का दायित्व संभाल रहे हैं। http://www.pravakta.com

error: Content is protected !!