-संजय तिवारी- भारतीय जनता पार्टी की भोपाल रैली के लिए सिर्फ अलग अलग संभागों और विभागों से कार्यकर्ता ही नहीं बुलाए गये थे। गिनिज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी वहां मौजूद रहने के लिए कहा गया था। कारण यह कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा यह इतिहास का सबसे बड़ा कार्यकर्ता सम्मेलन था जिसमें मंच से इस बात की पुष्टि की गई कि कुल 7 लाख 21 हजार कार्यकर्ता इस सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं। अब पता नहीं गिनीज बुक वालों ने इसे इतिहास का सबसे बड़ा सम्मेलन बताकर रिकार्ड में दर्ज किया या नहीं लेकिन एक कारण ऐसा जरूर था जिसके चलते भाजपा के भीतर यह रैली इतिहास के रूप में दर्ज हो गई। वह कारण है- दीनदयाल से दगाबाजी।
भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना भले ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की हो लेकिन इसका सांगठनिक ढांचा जिस व्यक्ति ने खड़ा किया उसका नाम पं दीनदयाल उपाध्याय था। दीनदयाल उपाध्याय संघ के प्रचारक थे और संघ ने उन्हें राजनीतिक कार्य करने के लिए भारतीय जनसंघ में भेजा था। 1951 में भारतीय जनसंघ की उन्हें पहली जिम्मेदारी मिली थी- उत्तर प्रदेश का मंत्री। जल्द ही वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री बना दिये गये और उस वक्त कानपुर अधिवेशन में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कहा था कि अगर उन्हें दो दीनदयाल मिल जाते तो वे भारतीय राजनीति की दशा बदल देते।
डॉ. मुखर्जी ने दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कोई अतिश्योक्ति नहीं की थी। पंडित जी में कई विलक्षण प्रतिभाएं थीं। एकसाथ वे जितने कुशल संगठनकर्ता थे, उतने ही कुशल विचारक। पवित्रता उनके जीवन का सार थी और प्रचार से वे हमेशा दूर रहते थे। उनकी इन्हीं खूबियों की वजह से वे केवल जनसंघ के आदरणीय नेता नहीं थे बल्कि 1963 में जब अमेरिका ने पंडित जी को वीजा देने में अड़ंगा लगाया तो खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हस्तक्षेप करके उन्हें वीजा दिलवाया। हालांकि अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्र राज्य और अमेरिकी नागरिकों को अलग अलग देखा और अपनी पोलिटिकल डायरी में लिखा कि वहां की जनता वैसी नहीं है जैसी वहां की सरकार दिखती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी जनता के व्यवहार में व्यापक परिवरर्तन आया है।
लेकिन दीनदयाल उपाध्याय का जिक्र यहां अमेरिका प्रकरण के कारण नहीं बल्कि उनके राजनीतिक और आर्थिक चिंतन और वर्तमान संदर्भों में उसकी समीक्षा के कारण है। दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनता पार्टी एकात्ममानववाद का प्रणेता मानती है जो मूल रूप से आर्थिक चिंतन है लेकिन इस चिंतन का विस्तार समाज और संस्कृति तक विस्तारित होता है। एकात्म मानववाद पर बहुत विमर्श है लेकिन पंडित जी का एक और डायग्राम है अखण्ड मंडलाकार व्यवस्था। यह अखंड मंडलाकार व्यवस्था पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक चिंतन है। एक रेखाचित्र के जरिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस राजनीतिक चिंतन की जो रुपरेखा खींची है उसमें व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, राज्य और राष्ट्र का क्रम निर्धारित किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के इस अखंड मंडलाकार व्यवस्था में राष्ट्र पर इति नहीं की गई है। इसके आगे एक पायदान और हैं। और वह पायदान है- मानवता। पंडित जी के राजनीतिक चिंतन में यह बात समाहित थी कि हर प्रकार के राजनीतिक, सामाजिक या फिर आर्थिक चिंतन के मूल में इंसान और इंसानियत में अगर किसी एक को चुनना हो तो इंसानियत को चुनना चाहिए। मानवता मानव से भी श्रेष्ठ लक्ष्य है। अगर कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है जिसके मूल में इंसानियत को आला दर्जा दिया जाता है तो वही व्यवस्था अखंड मंडलाकार व्यवस्था हो सकती है।
पंडित जी जिस दौर में इसी राजनीतिक चिंतन के आधार पर भारतीय जनसंघ का सांगठनिक विस्तार कर रहे थे उसी दौर में जनसंघ में अटल बिहारी वाजपेयी का उभार हुआ था। लिखित तौर पर प्रमाण कहीं मिले या न मिले लेकिन दिल्ली के राजनीतिक इतिहासकार अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कैसे दीनदयाल जी के सामने अटल बिहारी वाजपेयी बौने साबित होते थे। कारण सम्मान भी हो सकता था लेकिन असल बात थी दीनदयाल उपाध्याय की वह नीति जो शायद अटल बिहारी जैसे उभरते नेतृत्व को अपच होती थी। अटल बिहारी वाजपेयी प्रचारात्मक प्रवृत्ति के नेता थे और मानते थे कि नेता का प्रचार दल के प्रसार के लिए जरूरी है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस बात के सख्त खिलाफ थे। वे राजनीति को वैमनस्य की नीति नहीं मानते थे और विरोधी दल की निंदा करने की बजाय अपनी नीतियों का प्रचार करने पर बल देते थे।
दीनदयाल उपाध्याय की असमय मौत हुई। भारतीय जनसंघ असफल होते हुए भारतीय जनता पार्टी में परिवर्तित हो गया और परिवर्तन की इस प्रक्रिया में अटल बिहारी वाजपेयी का वही राजनीतिक उदारीकरण साथ हो गया जिसके तहत उन्होंने भाजपा को एकात्म मानववादी रास्ते पर आगे ले जाने की बजाय समाजवादी संस्करण गढ़ने में व्यस्त हो गये। 1980 से 2004 तक भारतीय जनता पार्टी के भीतर निर्विरोध और निर्विवाद रूप से अटल कालखण्ड रहा और उन्होंने संघ की राजनीतिक विचारधारा के साथ गैर संघीय राजनीतिक दलों के साथ ऐसा साझा तालमेल किया कि देश के हाथ गठबंधन दलों की स्थिर सरकार का फार्मूला लग गया। हालांकि इस फार्मूले का समर्थक संघ कभी नहीं रहा लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के सामने संघ भी सिवा तालमेल के और कोई घालमेल कर नहीं सका।
लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के मुक्त होते ही संघ ने राजनीतिक रूप से भाजपा को फिर से उसी दिशा में ले जाने कोशिश शुरू कर दी जहां से जनसंघ का रास्ता भटका था। हालांकि इस भटके रास्ते पर दोबारा वापसी के बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका है लेकिन संघ जिस नयी राजनीति की बिसात बिछा रहा है उसमें अटल बिहारी वाजपेयी के संघीय समन्वय का पूरी तरह से इंकार तो है ही, बहुत सारे वैचारिक मामलों में वह दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भी तिलांजलि देता है। संघ द्वारा नरेन्द्र मोदी का समर्थन उन्हीं में से एक है। दीनदयाल उपाध्याय जिस कट्टर हिन्दुत्व के विरोधी थे और राजनीति को नफरत का औजार नहीं बनने देना चाहते थे नरेन्द्र मोदी उन्हीं तत्वों के माहिर खिलाड़ी हैं। अगर दीनदयाल उपाध्याय को उस दौर में भी प्रचार प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी नागवार गुजरते थे तो इस दौर में नरेन्द्र मोदी सिर्फ और सिर्फ प्रचार और प्रोपोगेण्डा की ही देन हैं। फिर भी संघ नरेन्द्र मोदी को सिर्फ भाजपा का नहीं बल्कि संघ का उद्धारक भी मान बैठा है क्योंकि अपने प्रचार तंत्र की बदौलत वे भीड़ को आकर्षित करते हैं।
यानी आज संघ हो कि भाजपा दोनों ही दीनदयाल के उस मूल विचार को पूरी तरह से खारिज करते हुए दिखाई दे रहे हैं जो उनके राजनीतिक चिंतन और कार्यशैली का मूलाधार है। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शालीन और अपेक्षाकृत कम प्रचार प्रेमी भी अगर दीनदयाल उपाध्याय को खटकते थे तो नरेन्द्र मोदी जैसे प्रचार की पैदाइश कहां से दीनदयाल की भाजपा के भविष्य हो सकते हैं? लेकिन वह जनसंघ तो उसी दिन तिरोहित हो गया जिस दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने भाजपा बनाई। लेकिन वह भाजपा भी उस दिन नहीं रही जिस दिन नरेन्द्र मोदी जैसे प्रायोजित और प्रक्षेपित नेता को साजिश के तहत पार्टी के भीतर शीर्ष नेतृत्व घोषित कर दिया गया। वह संघ तो वह संघ रहा ही नहीं जो दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ में काम करने की जिम्मेदारी सौंपता है। वह संघ होता तो आज जरूर सवाल उठाता कि आखिर दीनदयाल से इस दगाबाजी से भाजपा क्या हासिल करना चाहती है? नरेन्द्र मोदी? http://visfot.com