भाजपा में कोई पूर्ण विराम नहीं

adwani blogभारतीय जनता पार्टी के सभी कार्यकर्ताओं के लिए 25 सितम्बर एक महत्वपूर्ण तिथि है। यह, सन् 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना के समय से ही हमारी पार्टी के प्रमुख विचारक रहे पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मतिथि है। पार्टी की स्थापना डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने की थी। जनसंघ ने पहला आम चुनाव सन् 1952 में डा. मुकर्जी के नेतृत्व में लड़ा था, उन्होंने इस बीच दीनदयालजी को पार्टी का पहला महासचिव नियुक्त किया। महासचिव के रुप में उपाध्यायजी ने संगठनकर्ताओं की ऐसी मजबूत टीम खड़ी की जिसने डा. मुकर्जी के मार्गदर्शन में सभी राज्यों में पार्टी की मजबूत नींव रखी।
बाद में 1952 में डा. मुकर्जी ने पार्टी का अखिल भारतीय सम्मेलन कानपुर में आहूत किया। इस कानपुर सम्मेलन की तैयारियों में दीनदयालजी के साथ काम करते श्यामा प्रसाद जी ने पाया कि दीनदयालजी एक चिंतक के साथ-साथ एक कुशल संगठन की प्रतिभा और कुशाग्रता से भरे हैं। उन्हीं दिनों उन्होंने एक टिप्पणी की थी: ”यदि मेरे पास दो या तीन दीनदयाल और होते तो मैं निश्चित रुप से इस देश का नक्शा बदल देता!”
इस ब्लॉग के शीर्षक की प्रेरणा मुझे एक विदेशी पत्रकार द्वारा इस शीर्षक से लिखी गई सर्वोत्तम पुस्तक को पढ़ने के बाद मिली। इस पत्रकार को मैं व्यक्तिगत रुप से अनेक वर्षों से जानता हूं और सदैव उनका प्रशंसक रहा हूं। मैं मार्क टुली की बात कर रहा हूं जो भारत और दक्षिण एशिया में 25 वर्ष तक बीबीसी के संवाददाता रहे। आपातकाल में भारत में जिन 29 विदेशी पत्रकारों के प्रवेश पर पाबंदी थी उनमें से वे भी एक थे। बीबीसी से सेवानिवृत्त होने के बाद वह भारत में बस गए हैं और नई दिल्ली में रहते हैं।
जिस पुस्तक का मैंने उल्लेख किया उसका शीर्षक है ”नो फुल स्टॉप इन इण्डिया।” पुस्तक उन घटनाओं का संकलन है जो भारत में एक सवांददाता के रुप में काम करते समय मार्क टुली ने नजदीक से देखी-इन घटनाओं ने वास्तव में इस तथ्य के प्रति सचेत किया कि भारत का भद्रलोक भारतीयता से काफी परे है।
जब जनवरी, 2009 में मैंने ब्लॉग लिखना शुरु किया तब मेरा दूसरे ब्लॉग का शीर्षक था: ”अंडरस्टैंडिंग जेनुएन सेक्युलरिज्म” (सही सेक्युलरिज्म को समझना)। ब्लॉग में मार्क टुली द्वारा अमित मेहरा की कॉफी टेबुल पुस्तक में लिखी गई प्रस्तावना में से काफी कुछ लिया गया है। पुस्तक का शीर्षक था: ”इण्डिया: ए टाइमलैस सेलिब्रेशन।” मैं इस सभी को दोहराना नहीं चाहता। यह ब्लॉग वाली मेरी पुस्तक “AS I SEE IT” में है।
पुस्तक में मुझे जो ज्यादा पसंद आया, जिसे आज मैंने उदृत किया है और जिससे आज के ब्लॉग का शीर्षक भी प्रेरित है, वह है उनका अपना परिचय। इसमें टुली ने भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा एक पुस्तक में उपनिषद् के बारे में लिखे को उद्दत किया है: ‘भारतीय दिमाग की विशिष्टता आम आदमी के विश्वास को हिलाने की नहीं अपितु उनके विश्वास के पीछे के गहनतम दार्शनिक अर्थ को समझकर क्रमश: उनका नेतृत्व करने की है।‘ मार्क टुली आगे जोड़ते हैं: ”पश्चिमी जगत और उसकी नकल करने वाला भारतीय अभिजात वर्ग भारतीय प्रतिभा की महत्ता को नकारता है। वे पूर्णविराम लगाना चाहते हैं लेकिन भारतभूमि पर पूर्ण विराम की कोई जगह नहीं है।”
सन् 1951 से अपनी पार्टी के उतार-चढ़ाव को मैंने अत्यन्त ही व्यवस्थित ढंग से देखा है। 1951 से हुए सभी आम चुनावों में निर्विघ्न रूप से प्रचार करने के अलावा मैंने 6 देशव्यापी यात्राएं की हैं। इन यात्राओं में से पहली सोमनाथ से अयोध्या की यात्रा थी जो 25 सितम्बर, 1990 को शुरू हुई। यात्रा 30 अक्तूबर को अयोध्या में समाप्त होनी थी। परन्तु बिहार की तत्कालीन लालू प्रसाद यादव की सरकार द्वारा समस्तीपुर में इसमें व्यवधान डाला गया। 23 अक्तूबर को मुझे गिरफ्तार कर बिहार और पश्चिम बंगाल की सीमा पर मसानजोर ले जाया गया। उससे वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई―इसका जिम्मा लालू प्रसाद को जाता है।
इस पहली यात्रा के शुरूआती स्थान के रूप में सोमनाथ के चयन के पीछे एक ऐतिहासिक – मध्यकालीन और आधुनिक-पृष्ठभूमि थी।
स्वामी विवेकानन्द ने एक स्थान पर मध्यकालीन मूर्तिभंजन का संदर्भ इन शब्दों में दिया है: ”विदेशी आक्रमणकारी एक के बाद एक मंदिर तोड़ता रहा; लेकिन जैसे ही वह वापस जाता, फिर से वहां उसी भव्य रुप में मंदिर खड़ा हो जाता दक्षिण भारत के इन मंदिरों में से कुछ मंदिर और गुजरात के सोमनाथ जैसे अन्य मंदिर आपको भारतवर्ष के इतिहास के बारे में इतना कुछ बता सकते हैं, जो आपकों पुस्तकों के भंडार से भी जानने को नहीं मिलेगा।”
इसी संदर्भ में डा. भीमराव अम्बेडकर को उदृत करना चाहता हूं। डा. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया‘ में सोमनाथ मंदिर पर हुए इन हमलों का उल्लेख करते हुए महमूद गजनवी के इतिहाकार अल उत्बी के वर्णन को उध्दृत किया है: ‘उसने मूर्ति वाले मंदिरों का विध्वंस किया और इस्लाम को स्थापित किया। उसने नगरों पर कब्जा किया और मुसलमानों को खुश करने के लिए मूर्ति-पूजाकों को मारा। उसके बाद अपने राज्य में वापस आकर वह अपना यशोगान करता था कि इस्लाम के लिए उसने कितनी जीतें हासिल की और उसने यह शपथ ली कि हर साल वह हिंद के खिलाफ धर्मयुध्द लड़ेगा।‘
सोमनाथ के ताजा इतिहास के बारे में कुछ जानकारी।
सोमनाथ सौराष्ट्र के जूनागढ़ राज्य में स्थित है। जूनागढ़ की 80 प्रतिशत जनसंख्या हिंदू थी, लेकिन रियासत का नवाब मुसलमान था। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर नवाब ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा कर दी। इससे रियासत के हिंदू भड़क उठे और उन्होंने विद्रोह कर दिया। परिणामस्वरुप एक स्थानीय कांग्रेसी नेता सामलदास गांधी के नेतृत्व में एक ‘समानांतर सरकार‘ बनाई गई।
तुरंत पश्चात् नवाब पाकिस्तान भाग गया। सामलदास गांधी ने तब सरदार पटेल को टेलीग्राम भेजा कि जूनागढ़ का भारत में विलय गया है। अपनी पुस्तक में डा. के.एम. मुंशी ‘पिलग्रिमेज टु फ्रीडम‘ में स्मरण करते है कि जब टेलीग्राम पहुंचा तब वह सरदार पटेल के पास थे। सरदार ने इसे मुंशी को थमाते हुए उद्धोषित किया ‘जय सोमनाथ!‘
नवम्बर 1947 में सरदार पटेल का जूनागढ़ में गर्मजोशी से स्वागत हुआ। उनके सम्मान में एक जनसभा आयोजित की गई थी, जिसे संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण घोषणा की-स्वतंत्र भारत की सरकार ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर का उसी स्थान पर पुनरुध्दार करेगी, जहां प्राचीन काल में वह स्थित रहा था और उसमें ज्योतिर्लिंगम् स्थापित किया जाएगा।
इस कदम को गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त था और नेहरुजी की केबिनेट ने इसको औपचारिक तौर पर स्वीकृत किया। गांधीजी की शर्त इतनी थी कि निर्माण की कीमत लोगों द्वारा वहन की जाए न कि सरकार द्वारा। अत: एक ट्रस्ट गठित किया गया जिसने आवश्यक धन जुटाया। सरदार पटेल जो पुनरुध्दार के बाद इसका लोकार्पण करने वाले थे, का दिसम्बर 1950 में निधन हो गया। अंतत: इसका औपचारिक लोकार्पण राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा पण्डित नेहरु की मनाही के बाद भी किया गया। इस अवसर पर दिया गया उनका भाषण भारत के किसी राष्ट्रपति द्वारा पंथनिरपेक्षवाद पर दिए गए सबसे महत्वपूर्ण भाषणों में एक है।
‘अपने ध्वंसावशेषों से ही पुन:-पुन: खड़ा होनेवाला सोमनाथ का यह मंदिर पुकार-पुकारकर दुनिया से कह रहा है कि जिसके प्रति लोगों के ह्दय में अगाध श्रध्दा है, उसे दुनिया की कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती। आज जो कुछ हम कर रहे हैं, वह इतिहास के परिमार्जन के लिए नहीं है। हमारा एकमात्र उद्देश्य अपने आदर्शो और श्रध्दा के प्रति अपने लगाव को एक बार फिर दोहराना है, जिनपर आदिकाल से ही हमारे धर्म और धार्मिक विश्वास की इमारत खड़ी हुई है।
यदि 25 सितम्बर, 1990 हमारे लिए सोमनाथ से अयोध्या यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है तो इस वर्ष की यह तिथि मात्र एक राज्य-मध्य प्रदेश के पार्टी कार्यकर्ताओं के रिकार्डतोड़ संख्या में भोपाल के सम्मेलन में आने के कारण सदैव हमारी स्मृति में अंकित रहेगी।
भोपाल के जम्बूरी मैदान में आयोजित इस सम्मेलन के मंच पर पार्टी के सभी केन्द्रीय नेता मौजूद थे। उनके सामने 6,49,702 पार्टी कार्यकर्ताओं का संगम था, जिन्होंने इस अनोखे सम्मेलन के लिए औपचारिक रूप से अपने को पंजीकृत कराया था; राज्य के 51 जिलों में फैले 53,896 पोलिंग बूथों से औसतन दस कार्यकर्ता आए थे। इस दिन भोपाल में मैंने जो देखा उससे मुझे सही में महसूस हुआ कि भाजपा के लिए कोई पूर्ण विराम नहीं है।
इस ‘कार्यकर्ता महाकुम्भ‘ के लिए अनेक महीनों से तैयारियां चल रही थी। इन दिनों आगामी चुनावों – विधानसभाओं और लोकसभाई – की तैयारियों के लिए देशभर में विशाल रैलियां आयोजित की जा रही हैं। लेकिन वे जनसभाएं हैं। शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र सिंह तोमर द्वारा आयोजित यह भोपाल सम्मेलन एक कार्यकर्ता सम्मेलन था। लोगों को नहीं बुलाया गया था। मुझे संदेह है कि देश में कोई अन्य राजनीतिक दल इस किस्म की कोई गतिविधि आयोजित करने की क्षमता भी रखता होगा। किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि: पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति को श्रध्दांजलि देने हेतु कोई अन्य इससे भी अच्छा कुछ और कर सकता है जो इस वर्ष मध्य प्रदेश ने किया।
यह एक सुखद संयोग है कि गत् सप्ताह मुख्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा मध्य प्रदेश हेतु 25 नवम्बर, यानी इस ऐतिहासिक और अभूतपूर्व घटना के ठीक दो महीने के बाद मतदान की तिथि निर्धारित की गई है।
टेलपीस (पश्च्यलेख)
ऊपरी तौर पर, मेरी पहली यात्रा, सोमनाथ से अयोध्या तक को माना जाता है कि यह विश्व हिन्दू परिषद द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्देश्य को मजबूत करने के उद्देश्य से की गई। परन्तु भाजपा के लिए, इस अभियान के दो स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य भी थे।
(1) असली सेक्युलरिज्म और छद्म सेक्युलरिज्म के बीच बहस चलाना, और
(2) सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे को मजबूत करना।
आज के ब्लॉग में मैंने पूर्व ब्लॉग में लिखे गए असली सेक्युलरिज्म सम्बन्धी मार्क टुली के विचारों को हवाला दिया। संस्कृति और धर्म के बारे में उन्होंने ”नो फुल स्टॉप्स इन इण्डिया” पुस्तक में जो लिखा है, मैं उसे उदृत कर रहा हूं।
मार्क टुली लिखते हैं:
किन्हीं लोगों की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सर्वाधिक अच्छा तरीका है उनके धर्म और उसकी भाषा को उपेक्षित करना। हम, ब्रिटिशों ने भारत के शासक के रूप में और अब विश्व की प्रभुत्व वाली संस्कृति के रूप में कर रहे हैं। यह सत्य है कि भारत के ब्रिटिश शासक हिन्दुओं के बारे में, विशेष रूप से विद्रोह के बाद ज्यादा सचेत थे। हमने भारत को ईसाइयत में बदलने का प्रयास नहीं किया। लेकिन हमने यह आभास पैदा कर दिया कि हमारा धर्म हिन्दूइज्म से श्रेष्ठ है। कलकत्ता में एक बच्चे के रूप में मुझे स्मरण है कि हमें सिखाया जाता था कि मुस्लिम हिन्दुओं की तुलना में श्रेष्ठ हैं क्योंकि कम से कम वे मूर्तिपूजा नहीं करते।
स्वतंत्रता के समय, भारत ने आधुनिक पश्चिमी विचार को अपनाया कि सामान्य ज्ञान बताता है कि धर्म को सम्पूर्ण रूप से निजी दायरे तक सीमित रखना चाहिए और इसे सभी सार्वजनिक जीवन से दूर रखना होगा। तथ्य यह है कि पश्चिम में बहुसंख्या में लोग धर्म को अपने तक सीमित रखते हैं। ‘आधुनिक‘ भारतीय अपरिहार्य रूप से हमारा उदाहरण अपनाते हैं और जो कोई भी सार्वजनिक जीवन से सभी रूपों में धर्म को अलग रखने में विश्वास नहीं करते, को ‘साम्प्रदायिक‘ माना जाता है, पूर्ण रूप से उनके अपने समुदाय से। अभिजात वर्ग का तथाकथित सेक्युलरिज्म, अपरिहार्य रूप से धर्म के प्रति अनादर के रूप में होता है। लेकिन बहुसंख्यक भारतीयों जो आधुनिकता के लाभों का आनन्द नहीं लेते, अभी भी मानते हैं कि धर्म – उनके जीवन के महत्वपूर्ण तत्वों में से सर्वाधिक जरूरी है।”
-लालकृष्ण आडवाणी

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