वे जनतांत्रिकता की बातें करते हैं। फिर भी इस बात को समझ नहीं पाते (या समझना नहीं चाहते?) कि तमाम असहमतियों के बावजूद रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर विष्णु खरे का लेख मैं जनसत्ता में कैसे दे देता हूँ, जिसमें अशोक वाजपेयी (जिनसे मेरे घनिष्ठ संबंध हैं) के खिलाफ भी कटु उक्तियाँ लिखी हों! ऐसे ही, वे बड़ी हैरानी प्रकट करते हैं जब कवि कमलेश पर विष्णु खरे का पत्र मैं अपनी वाल पर उत्साह से साझा कर लेता हूँ, जिसमें उनकी कविता की तारीफ, लेकिन शख्सियत पर छींटाकशी की गई हो!
जनतंत्र इकहरा नहीं होता। विडम्बना है कि ऐसे ‘जनतांत्रिक’ लेखक भी मुझे मिलते हैं जो अपने आलेख के साथ जैसे फरमान भेजते हैं कि खबरदार जो एक शब्द भी इधर से उधर हुआ! ऐसा लेख लौटती डाक से उनको लौट जाता है। .. अच्छा संपादक अच्छे आलेख को यथासंभव जस का तस ही छापने की कोशिश करता है। लेकिन उपलब्ध जगह की सीमा, आलेख में दुहराव, वाक्य-रचना की जटिलता, वर्तनी की भूलें, अन्य भाषिक विचलन आदि (अगर हों) उसे ही देखने होते हैं। संपादक की स्वतंत्रता दरअसल संपादक की नहीं, उसके पाठकों की स्वतंत्रता होती है। स्वतंत्रता से ज्यादा वह दायित्व का निर्वाह है। संपादक के हाथ बाँधने की ख्वाहिश किस किस्म के जनतंत्र की तरफदारी है? प्रतिवाद तक की शब्द-सीमा लेखक ही तय कर ले, संपादन का अधिकार भी संपादक के हाथ न छोड़ना चाहे, तो संपादक वहां मौजूद क्यों है?
पत्रकारिता कोई फेसबुक नहीं है, जहाँ किसी अनुपस्थित कवि की टोपी कविता से बाहर जाकर उछाली जाय, मनमाफिक गलत उद्धरण दिए जायं, खुद उनका स्रोत तक न उजागर किया जाय, कभी “भूल” को सुधारा न जाय, कवि को बचाव का अवसर छोड़ें, हमलों की भनक तक न लगने दी जाय क्योंकि कवि आपकी मित्र-सूची में तो क्या, फेसबुक तक पर नहीं है! और जब अपने पर आती है तब यही लोग कैसे जनतंत्र-जनतंत्र की रट लगाते हैं। लगता है फेसबुक के निर्बाध, असीम, यहाँ तक कि अनर्गल ‘लेखन’ ने कुछ लेखकों की अपेक्षाएं आसमान पर ले जा छोड़ी हैं। उन्हें अपने पाँव कुछ जमीन पर भी जमा रखने चाहिए! http://bhadas4media.com
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के एफबी वॉल से साभार.