मांस विक्रय पर रोक का विरोध भारतीय संस्कृति व संविधान का अनादर

DInesh Muniषिर्डी – 9 सितम्बर 2015। कुछ दिनों के लिए बूचड़खानों के संचालन तथा मांस-व्यापार को कानूनन प्रतिबंधित करना भारत की प्राचीन परम्परा रही है। मध्यकाल, स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता के बाद भी इस परम्परा का पालन होता रहा है। समाज के सभी वर्गों का इस परम्परा के पालन में हमेषा सहयोग रहा है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी इसे संवैधानिक और लोकतांत्रिक माना है। 14 मार्च 2008 को सर्वोच्च न्यायालय ने जब यह निर्णय सुनाया कि जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हुए पर्युषण के दौरान कत्लखाने बन्द रखे जाने चाहिये, तब उस निर्णय में सम्राट अकबर का भी हवाला दिया गया था। न्यायालय ने सम्राट अकबर का हवाला इस लिए दिया क्यों कि उनके राज्यकाल में जैनों के पर्युषण पर्व के दौरान तथा अन्य भारतीय पर्व तिथियों और त्योहारों पर मांस-व्यापार पर कानूनन रोक लगाई जाती थी। सम्राट अषोक के षिलालेखों में भी जीवहिंसा पर कानूनी रोक के उल्लेख मिलते हैं। यह विचार श्रमण संघीय सलाहकार दिनेष मुनि ने बुधवार 9 सितम्बर 2015 को को जैन स्थानक षिर्डी में धर्मसभा में व्यक्त किए।
उन्होेंने कहा कि बृहण मुम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेषन द्वारा भी 1964 और 1994 में पर्युषण के दिनों में मांस-व्यापार निषिद्ध करने के प्रस्ताव परित हुए हैं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी 2004 में इस आषय का प्रस्ताव पारित किया था। वर्तमान में पर्यावरणविद् भी मांसाहार और मांस-व्यापार पर अंकुष की अपील करते हैं। संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी भी चाहती है कि मांसाहार पर अंकुष लगाया जाए। जो लोग मांसाहार और मांस-व्यापार की अल्पकालीन बन्दी पर भी ऐतराज करते हैं, वे भारतीय संस्कृति और संविधान दोनों का अनादर करते हैं। लोगों को चाहिये कि वे कुछ दिनों के लिए मांस-व्यापार निषेध को अपना मुक्त समर्थन दे। धर्मसभा को संबोधित करते हुए दिनेष मुनि ने कई राज्यों के हवाले देते हुए मुम्बई मीरानगर भायंदर महानगर पालिका के निर्णय को उचित ठहराते हुए महापौर गीता जैन को साधुवाद देते हुए कहा कि अहिंसा दिवस की परम्परा को आगे बढ़ाना समय की मांग है और आवष्यकता भी है।
डॉ. द्वीपेन्द्र मुनि ने कहा कि मनुष्य जन्म की कीमत नहीं समझ पा रहा है। धर्मरूपी रत्नी किसी के बदले खरीदा नहीं जा सकता। धर्म करेंगे तो उसका फल आने वाले भवों तक मिलेगा।

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