झाबुआ चुनाव का कडकनाथ फेक्टर

brijeshझाबुआ -आमतौर पर झाबुआ हम भगोरिया के मौकों पर ही जाते होते हैं। आमचुनावों में सोनिया और राहुल गांधी की रैली इस आदिवासी बहुल इलाके में होती है तो दौडते हुये जाते हैं और भागते हुये आ जाते हैं। इस उपचुनाव के मौसम में झाबुआ में थोडा ज्यादा रूकना हुआ तो पूरे इलाके में अलग ही नजारा दिखा। झाबुआ की डरी सहमी सडकों ने इतनी सारी मित्सुबिसी पजेरो, टोयोटा फारचूनर, फोर्ड इंडेव्योर और महेंद्रा एक्सयूवी नहीं देखीं हो्रंगी जितनी पिछले दो हफते से इस इलाके में घूम रहीं है। यहां हम इनोवा की बात नहीं कर रहे हैं जो संकरी सी सडकों पर तेज हार्न बजाती हुयीं बहुतायत में धूल उडा रही हैं। उपचुनाव हो रहा है तो प्रचार के लिये प्रदेष भर से पार्टियांें के नेता दलबल और गाडियां लेकर आये हैं जिनका सबूत हर जिले की गाडियों के नंबर से समझ में आता है। प्रदेष सरकार के आधे से ज्यादा भारी भरकम कैबिनेट मंत्री उनके संगी साथी समर्थक तो हैं ही दोनों पार्टियों के अनेकों विधायकों ने भी झाबुआ रतलाम अलीराजपुर जिला मुख्यालयों के साथ ही थांदला पेटलावद और सैलाना जैसे छोटे कस्बों की होटल ओर लाजों में डेरा डाल रखा है। पार्टी कार्यकर्ताओं के अलावा बडे नेताआंे के सुरक्षाकर्मी और हैलीकाप्टरों के पायलट और उनका स्टाफ भी रतलाम के होटलों मे जमे हैं। आलम ये है कि षादियों का सीजन षुरू होने वाला है और होटलों में जगह नहीं मिल रही। रतलाम के सैलाना रोड पर रहने वाले राजेष जैन कहते हैं कि अगले महीने बेटी की षादी है मगर अभी होटल वाले बात करने को तैयार नहीं है। कहते हैं ये बाहरी लोग चले जायें फिर षादी ब्याह के कमरे की बात बाद में कर लेंगे। होटल वालों का अच्छा धंधा चल रहा है। धंधा तो अच्छा नानवेज रेस्टारेंट का भी जमकर चल रहा है। झाबुआ कडकनाथ मुर्गे के लिये जाना जाता है सुर्ख काले रंग और की काली कलगी वाला ये लंबा मुर्गा इसी इलाके के सरकारी फार्म हाउस में मिलता है। खाने में घनघोर स्वादिप्ट कडकनाथ मुर्गा का दाम आम दिनो में आठ सौ से हजार रूप्ये होता है। मगर बाहरी लोगों की भीड के पसंद के कारण अब ये मुर्गा या तो मिल ही नहीं रहा या फिर ढाई से तीन हजार रूप्ये खर्च करने पर ही हांडी में पकाकर दिया जा रहा है। झाबुआ के सर्वोदय रेस्टारेंट और एंजिल ढाबे पर हमें अनेक लोग मिले जो कडकनाथ की स्वाहिष पूरी नहीं होने पर निराष होकर लौटते दिखे। नानवेज रेस्टारेंट के अलावा षराब की देषी और विदेषी दुकानों पर भी पूरे वक्त हमें भीड दिखी। वैसे भी षराब तो जैसे चुनाव का अनिवार्य हिस्सा ही हो गयी है। झाबुआ के बसस्टेड पर षराब की दुकान पर जब हमने काउंटर वाले से पूछा कि कैसा चल रहा है तो उसने हंसकर यही कहा अरे सर चुनाव में धंधा उफान पर होता है इस बार भी है। वैसे भी चुनावी पर्यटन पर आये लोगों की चाहत नये इलाके में महंगी गाडियों में घूमने घामने के बाद फिर अच्छा खाना और पीना होता ही है। इसमें नयी बात क्या है।
आदिवासी इलाके के इस चुनाव में पार्टियां आम सभांए तो कर ही रहीं है। मगर खाटला बैठक और फालिया मिटिंग भी जोरों से हो रहीं है। खाटला बैठक यानिकी गंाव की चैपालों में खटिया पर बैठकर होने वाली बैठकें। जिनमें बाहरी आदमी सेव परमल लाता है जिसे बैठक में बुलाये गये स्थानीय लोगों को खिलाया जाता है। साथ में पिलायी जाती है अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने की घुटी। कभी कभार ाषराब भी परोस दी जाती है। एक खटिया बैठक या मिटिंग में चालीस से पचास लोग ही जुडते हैं। आबादी के हिसाब से यहां गांव और फलिये छोटे ही होते हैं पांच से दस घरों को ही फलिया कहते हैं। फलिया की मिटिंग में ही तय हो जाता है किसे वोट करना है। इसलिये फलिये या गांवों के वोट एकतरफा एक ही पार्टी को गिरते हैं ये आंकडे बताते हैं। इसलिये झाबुआ के बाजार में सेव परमल भी खूब बिक रहा है। झाबुआ का आम आदिवासी बाहरी लोगों को बजारिया कहता है। इतने सारे बजारिया यानिकि बाहरी लोगों को देख कर यहंा का वोटर सहमा हुआ है। कांगे्रस का कांतिलाल और बीजेपी की निर्मला भूरिया के चुनाव में जिस तरह से प्रदेष भर की भीड प्रचार करने आयी है वो झाबुआ के आदिवासियों के लिये हैरान करने वाली बात हे। साठ साल का कडवा भील कुरेदने पर बोलता है चुनाव दोनों भूरियाओं के बीच हो रहा है इन बजारियों का यहंा क्या काम। आदिवाीसी बहुल कांगे्रस की इस परंपरागत सीट को बीजेपी ने पिछली बार कांगे्रस के नेता के दम पर ही कब्जा किया था मगर अब हालात बदले हैं इसलिये सीएम षिवराज सिंह ने भी हाथ में भीलों वाला मोटा चांदी का कडा पहन कर जिताने का जिम्मा उठा लिया है। बीजेपी की सरकार और संगठन का दावा है कि उनकी नजर इलाके के हर वोटर पर है। उधर इलाके के सारे कांगे्रसी नेता भी मतभेद भुलाकर भूरिया के साथ खडे हो गये हैं। बूथ लेवल पर कांगे्रस ने भी रणनीति बनायी है। मगर वोटर किसके साथ जा रहा है कहना मुष्किल है। इलाके के पत्रकार चंद्रभान भदौरिया कहते हैं पंद्रह साल की पत्रकारिता के बाद भी मैं कह नहीं पा रहा हूं कि चुनावी उंट किस करवट बैठेगा। वैसे गुजरात और राजस्थान की सीमा से सटे इस झाबुआ में बहुत सारे उंट सीमा पार से भी आ गये हैं और मैं हर उंट को देख यही सोचता रहा कि ये उंट किस करवट बैठेगा।
ब्रजेश राजपूत भोपाल

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